पथ के साथी

Sunday, October 25, 2009

दो कविताएँ

1 मजदूर

मधुर कुलश्रेष्ठ

शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
लगी है हाट मजदूरों की
लोग आलू, प्याज की तरह
हाथों की मछलियाँ देख-देखकर
छाँट रहे हैं मजबूत मजदूर
ताकि मजदूर के पसीने की बूँदों से
चमक उठे
उनके सपनो का महल.



2-अपना अपना दर्द

झोपड़ी को दर्द है

कि वह कभी

अपना सिर उठाकर

सीना ताने

आसमान से बातें नहीं कर पाई

और महलों को दर्द है

कि वह हमेशा

अपना सारा अस्तित्व

समेट कर भी

धरती की गोद में

सिमटकर सोने में

नाकामयाब रहा है।


1 comment:

  1. एक बेहतरीन रचना
    काबिले तारीफ़ शव्द संयोजन
    बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति
    सुन्दर भावाव्यक्ति .साधुवाद
    satguru-satykikhoj.blogspot.com

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