पथ के साथी

Friday, May 30, 2025

1468

 

विजय जोशी

 (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल )

 


1

प्यार तो एक फूल है

फूल तो एक प्यार है

हम- तुम :

इसकी दो पंखुरियाँ हैं

समय रहते न रहते

पंखुरियाँ झर जाएँगी

शेष रह जाएगी

महक :

हमारे- तुम्हारे प्यार की

दिल के इसरार की

मन के इकरार की

जो रच- बसकर वातावरण में

छा जाएगी अरसों तक

महकेगी बरसों तक

प्यार तो एक फूल है .....

-0-

2-मैं हूँ ना !

 


भयावह आँधी

प्रबल झंझावात

उखड़ते महावृक्ष

विपथगा महानदियाँ

घनघोर अँधेरी रात

श्मशान- सा समाँ

 

वृक्ष के कोटर में डरा- सहमा

चिड़िया का नन्हा बच्चा

डर से काँपता, माँ से बोला :

माँ ! हमारा क्या होगा

 

माँ ने अपने पंखों में

उसे समेटते हुए कहा :

डरो मत, मैं हूँ ना!

-0-

Thursday, May 29, 2025

1467-नौतपा ये आ गया है

 गुंजन अग्रवाल अनहद

 


नौतपा ये आ गया है।

सनसनाती लू चली है।
ताप से जलती गली है।
वैद्य कोई तो बुलाओ।
औषधी इसकी कराओ।
ताप ज्यादा छा गया है।
नौतपा ये आ गया है......

 

सूर्य ऐसे आग उगले।
विह्वल हो उड़ते बगुले।
वृक्ष पंछी प्राण व्याकुल।
हो गई शीतल हवा गुल।
शूल उर में ज्यों गया है। नौतपा ये आ गया है....

-0-

Monday, May 26, 2025

1466

 

रणभेरी-2

डॉ. सुरंगमा यादव

  

धोखा खाते रहने की तो आदत-सी पड़ी हमारी

तभी जागते हैं हम जब नुकसान उठा लेते भारी

हवा के रुख का हम कैसे अनुमान नहीं लगाते हैं

दीपक बुझने से पहले क्यों ओट  नहीं  कर पाते हैं

रहें पीटते खूब लकीरें साँप नहीं मर पागा

मौका मिलते ही वह फिर से अपना फन फैलाएगा

जो मरने पर तुले हुए हैं,उनका क्या ही रोना है

लेकिन निर्दोषों को कब तक अपनी जानें खोना है

आजादी के लिए लड़े जो उनका तो एक  र्म था

मिलकर था खून बहाया,सबको प्यारा राष्ट्र धर्म था

अमिट शृंखला बलिदानों की, तब  थी आजादी पा

पर आजादी के संग  त्रासदी बँटवारे की  आ

कितने बिछड़े, कितने बेघर, जान गँवाई कितनों ने

भाई- भाई अब दुश्मन थे, लूट मचाई अपनों ने

ऐसा हमें मिला पड़ोसी, जिसे कब सद्भाव सुहाया

जिसकी रगों में रात और दिन, सिर्फ़ दुर्भाव समाया

जिन दरबारों में आतंकी आका बनकर फिरते हैं

अपनी बर्बादी का वे नित खुद शपथ पत्र भरते हैं

फौज जहाँ की हत्यारों को, अपना  शीश झुकाती है

उसकी मंशा क्या होगी, बात समझ खुद आती है

-0-

 

 

Thursday, May 22, 2025

1465- अन्तरराष्ट्रीय चाय-दिवस 21 मई पर दो कविताएँ

1-चाय चढ़ा/ शशि पाधा

  


घटा घनेरी घिर-घिर आई

मुझे न ठंडी धूप सुहाई

नरम-गरम दोहर ओढ़ा

अरी बहुरिया! चाय चढ़ा

घिस लेना अदरक की फाँकें

दो -दो लौं- इलाची

सूँघ मसाले आ बैठेगी

मुँहबोली वह चमको चाची

पीढ़ी खटिया पास बढ़ा

सौंफ-मुलेठी चाय चढ़ा |

चाय-पकौड़ी का तू जाने

सखी-सहेली  का  है नाता

चटनी हरे पुदीने वाली

धनिया तो है सबको भाता

नकचढ़ा है देवर तेरा

गाढ़े दूध की चाय चढ़ा |

सारा दिन तू खटती फिरती

कुछ अपने मन भी की कर

सब की रीझें पूरी करती

तुझको है अब किसका डर

मन की पोथी खोल, पढ़ा

शक्कर वाली चाय चढ़ा |

 -0-

2-चाय: जीवन की  साँझ में घुलती तपिश

डॉ . पूनम चौधरी

 


चाय,

जैसे पहाड़ की ओट से

धीरे-धीरे फिसल रही धूप—

ना बहुत गर्म, ना बहुत तेज, ना धीमी,

बस मन को छू ले उतनी ही।

 

वह पहला घूँ,

सर्दियों की सुबह सी

जिसमें देह काँपती है

पर आत्मा मुस्कराती है।

तपती साँसो में कुछ अनकही-सी

पीर जो घुल रही है

मिठास में

जैसे बारिश के बाद

मिट्टी की गंध

बीते हुए प्रेम को छू जाए।

 

चाय,

बिलकुल वैसी ही है

जैसे एकांत में किसी पुराने मित्र की चुप्पी—

जो बोलती नहीं,

पर साथ निभाती है।

 

पत्तियों की भाप में

कभी पापा का सिर सहलाना छुपा होता है,

कभी माँ की पुरानी रेसिपी,

जिसमें हर उबाल

संघर्षों की लोरी-सा लगता है।

 

यह चाय ही तो है

जो काम के बोझ में तो कभी ऑफिस की भीड़ में

एक कोना बनाती है,

जहाँ हम थोड़ी देर

खुद से मिल पाते हैं,

जैसे बिखरे हुए पत्तों में

कोई रास्ता ढूँढता हुआ हवा का झोंका

एक फूल को छू जाता है।

 

प्रकृति की तरह,

यह हर रूप धरती है—

कभी मसालेदार मानसून,

कभी कड़वी सच्चाई की तरह काली,

कभी दूध-सी कोमल,

तो कभी शक्कर-सी मीठी याद।

 

कभी प्रतीक्षा की घड़ी में

घड़ी की टिक-टिक को रोकने का बहाना,

तो कभी विदाई की बेला में

थामी हुई बातों का अंतिम घूँट।

 

चाय—

ना केवल स्वाद,

बल्कि एक अनकही भाषा,

जिसमें रिश्ते फुसफुसाते हैं,

समय ठहरता है,

और जीवन

अपनी सारी थकान छोड़

एक कप में सिमट आता है।

 

यह चाय मात्र नहीं,

यह एक खूबसूरत पल है—

जिसमें हम

अपना सबसे सच्चा ‘मैं’

गर्म भाप के साथ

अंतस् से बाहर बहने देते हैं।

-0-


Wednesday, May 21, 2025

1464-तुम मिल गए

 

1-चुम्बन का वरदान/ रश्मि विभा त्रिपाठी

 


पलकों के झुरमुट से
एकाकीपन के सूरज की किरन
कभी चमकी
कभी बीते पल की
हवा चली
कभी न सुहाई
कभी लगी भली
दर्द का बादल
छा गया अगले पल
आँखों के आसमान से
आँसू की एक बूँद
कभी
गालों की छत पे
गिरी टप से
ज्यों चुम्बन का वरदान मिला
प्रेम के कठिन तप से
उस बूँद को
पीता रहा
जीता रहा मन का चातक
हुई धक-धक
आज भी
सोच के सहन में लगे
देह के पेड़ की टहनी पर
बहुत देर से बैठा
यादों का पंछी
उड़ गया
काँप गई
रोम- रोम की पत्ती

धमनी में
उठा है ज्वार- भाटा
बेबसी की बाढ़ में
डूबती
साँस छटपटाई है
छाती की धरती डोली है
हर मौसम में
तुम्हारी अनुभूति की कोयलिया
आत्मा की अमराई में
बोली है।

-0-

2-बाहों के बिस्तर पर — रश्मि विभा त्रिपाठी

 

थकन से चूर
तुम्हारी बाहों के
बिस्तर पर
जिस दिन सोई थी
कुछ पल के लिए
तुम्हारे प्यार की पाकीज़गी की
मलमली चादर ओढ़के
उस पल से लेकर
अब तक
तुम्हारे ख़्वाब 
जो देखे हैं मैंने
ओ मेरे अहबाब
इन्हीं से मेरी ज़िन्दगी में 
बरकत है
कोई फर्क नहीं
कि अब उम्र भर
न रहे पास
नींद का असबाब
तुम मिल गए
मुझको मिल गया शबाब

-0-

3-क्षणिकारश्मि विभा त्रिपाठी

1
ये मुहब्बत नहीं
तो फ़िर आप ही कहिए
इसे क्या मानते हैं,
हम रू- ब- रू कभी न हुए
मगर सदियों से
इक दूसरे को जानते हैं!
2
आज खुशियों पे
बंदिश नहीं है
क्योंकि
अब दुख से
मेरी रंजिश नहीं है।
3
मेरी ज़िन्दगी का दीया
बुझाने का है जमाने का पेशा,
नहीं मालूम मैं रश्मि हूँ,
सूरज मेरे पीछे चलता है हमेशा।
4
मायूसी की धूप
या दर्द की बरसात में
दिन- रात मैं
रखती हूँ अपने पास
उम्मीद का छाता
आँखें भीगती नहीं,
मन जल नहीं पाता।
5
ज़िन्दगी के खेत में
पिछली बार बो दिए थे
उम्मीद के बीज
फसल काटकर
साफ कर
छानकर
फटककर
भर दिया कुठला
इस बरस की रोटी का
हल हो गया मसला।
6
होठों पे खिल उठीं
कलियाँ तबस्सुम की नई,
तुम आए
तो ज़िंदगी के सहरा में
बहार आ गई!
7
तेरी याद का सूरज
दिल के फ़लक से
कभी भी ढला नहीं
कहने को दूर हैं हम,
हमारे दरमियान
कोई फासला नहीं!
-0-

Friday, May 16, 2025

1463- सन्नाटे के ख़तों की आवाज़


भीकम सिंह


लम्हों का सफर, नवधा, झाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु- संग्रह) और मरजीना (क्षणिका- संग्रह) को जोड़कर डा. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य- संग्रह (सन्नाटे के खत) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के खतों से गुजरते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन खतों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फेंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है।

प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबंध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-

एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

कभी साथ-साथ घटित न होना

एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)

जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-

बेवक्त खिंचा आता है मन

बेसबब खिल उठता था पल

हर वक्त हवाओं में तैरते थे

एहसास जो मन में मचलते थे

अब इन्तिजार है। (पृष्ठ संख्या 29)

जो यह होने को एक निजी इन्तिजार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिजार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आ बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुजरते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए खुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती है उस तरफ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-

जाने कैसी हवा चल रही है

न ठण्डक देती है, न साँसें देती है

बदन को छूती है

तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है

अब हवा बदल ग। (पृष्ठ संख्या 52)

अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-

मन उचट गया है शहर के सूनेपन से

अब डर लगने लगा है

भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से

चलो लौट चलते हैं अपने गाँव। (पृष्ठ संख्या 58)

अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मजदूर के लिए एक अदद रोटी-

सुबह से रात, रोज सबको परोसता

गोल-गोल, प्यारी, नरम रोटी

मिल जाती, काश!

उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)

भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितांत पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्यय हो जाती है-

अब दो पात्र मुझमें बस गए

एक तन में जीता, एक मन में बसता

दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)

और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार में की समर्थक होती चली जाती हैं-

इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है

बदलता नहीं कानून

किसी के सपनों की ताबीर के लिए

कोई संशोधन नहीं

बस सजा मिलती है

इनाम का कोई प्रावधान नहीं

कुछ नहीं कर सकते तुम

या तो जंग करो या पलायन

सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)

और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी जिन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-

एक कैनवास कोरा-सा

जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग

पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे

रोप दिए अपनी ख्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)

और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-

मन चाहता

भूले-भटके

मेरे लिए तोहफा लिये

काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)

जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और म़गज के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।

इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने- समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पाइंट है और पाठकों के लिए जरूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गंभीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-

नीयत और नियति समझ से परे है

एक झटके में सब बदल देती है

जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)

जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-

किस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर

अपने वजूद में शामिल कर

जाने कितना इतराया करती थी

कितने सपनों को गुनती रहती थी

अब यह बीते जीवन का किस्सा लगता है

हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)

जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, ‘अति सूधौ  सनेह को मारग है घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरजोर कोशिश करती, अनुभूतियों के सफर में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, जिंदादिली की सूचक है। अपनी पीठ छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचा रखा है। शायद अवतार सिंह संघू ‘पाश’ की ‘सबसे खतरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को जिंदा रखती है और उम्मीद करती है-

शायद मिल जाए वापस

जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)

काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-

प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक

बदन के घेरों में

या मन के फेरों में?

सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है

या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)

अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते-

सन्नाटे के खत (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन खतों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन खतों की आवाज़ साहित्यिक जगत में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।

-0-सन्नाटे के खत-डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024,मूल्य- 425 रुपये, पृष्ठ- 150

प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी,उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059