हर बार ऐसा हुआ है- रश्मि विभा त्रिपाठी
हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कुछ और कहने की कोशिश में
कुछ और कह गई हूँ मैं,
बोलते- बोलते हो गई ख़ामोश
या कुछ का कुछ लिख गई
अचानक खो बैठी होश
सबने सोचा- मैं नशे में हूँ
तुम ये क्यों करती हो?
तुम रखके
मेरे होठों पर अपनी उँगली
मेरा हाथ थामकर क्या ये चाहती हो
कि मेरी रुसवाई हो?
हर बार ऐसा हुआ है
कि जब तुम याद आई हो
तो जो भी मिला मुझसे
उस शख़्स के आगे
तुम्हारी हर बात
दुहराई शिद्दत से
इस बात से बेख़बर
कि कौन समझेगा उस बात को
मेरे- तुम्हारे जज़्बात को
क्या कुछ न कहा मेरे बारे में
दुनिया वालों ने
यहाँ तक कह दिया मुझसे
कि तुम पगलाई हो
हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कुछ खाया न गया ज़रा- सा
मर गई भूख
आँखों से बही नदी
मन रहा प्यासा
जैसे दो निवाले खाके जल्दी में
मैं दौड़ती थी स्कूल के लिए
और तुम पीछे आती थी
खाने की प्लेट,
पानी का गिलास लिये
फिर अचानक
अपने हाथ में
मेरे बस्ते में रखने के लिए
तुम टिफिन
और पानी की बोतल लाई हो
कई बार नींद खुली है
कई बार रात भर जागी हूँ
कई बार दिखा है साया तुम्हारा
जिसे पकड़ने को
तेज रफ़्तार से भागी हूँ
फिर थककर
जब लेटी हूँ बिस्तर पर
तो महसूस हुआ माथे पर
तुम्हारा हाथ
और आने लगी झपकी
जैसे बचपन में तुम मुझे सुलाती थी
तुमने दी हो वही थपकी
लगा, तुमने लोरी गाई हो
कई बार ऐसा हुआ
जब तुम याद आई हो
दिन के उजाले में भी
चलते- चलते किसी चीज से
टकरा गई हूँ
ठोकर खाकर औंधे मुँह गिरी हूँ
कई बार घुटने छिले
हमदर्दी या दिलासे के बजाय
ताने मिले-
जवानी के जोश में अंधी हूँ
तो कोई बोला-
देखकर नहीं चलती, सिरफिरी हूँ
हर मोड़ पर मैं
मुसीबतों में घिरी हूँ
कुछ भी नहीं दिखता तुम्हारे सिवा
मेरी आँखों के आगे
तुम धुंध बनकर छाई हो
हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कि तुम्हारे जाने का जो घाव
दिल में है
उससे ख़ूब रिसा मवाद
ख़ूब उठी टीस
फिर लगा
धीरे से आकर
तुमने छू लिया मुझको
वो घाव भर गया
बगैर मरहम- पट्टी के
दर्द मिट गया
जैसे तुम दवाई हो
हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
जब मैंने तुम्हें
अपने बहुत क़रीब पाया है
तुम्हारा बोसा लिया
तुम्हें गले लगाया है
जबकि मेरे तुम्हारे बीच
अब सात समंदर की नहीं
धरती से आसमान तलक की दूरी है
लोग चौंके बहुत ये कहते हुए
क्या ज़िन्दगी में
फिर उससे मिलना मुमकिन है
जिससे ताउम्र की जुदाई हो
मैं नहीं दे पाती जवाब
किसी भी बात का
किसी को क्या पता
किस्सा मेरे हालात का
तुम थी मेरी ज़िन्दगी
जो ख़त्म हो चुकी हो;
लेकिन मैं फिर भी जी रही हूँ
क्योंकि तुम
मेरे सीने की धुकधुकी हो
उससे पूछे कौन जिए जाने का आलम
और वो क्या बतलाए?
-जो जी तो रहा हो
पर जिसने अपनी जान गँवाई हो
पर मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ
बताओ ना?
कि ये क्या जादू है तुम्हारा
(कहाँ से सीखा, कब सीखा,
मैंने तो तुम्हें बाहर जाते कभी नहीं
देखा)
तुम थीं
तो तुम्हारा वज़ूद
सिमटा हुआ था
कमरे से
घर की दहलीज़ तक,
तुम
नहीं हो
तो आज क्यूँ
तुम हर शय में समाई हो??
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कविता में भावनाएँ आपकी है पर पूरी तरह से हमारे दिल को छू गई। बहुत सुंदर सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको
अद्भुत
ReplyDeleteमेरी कविता को प्रकाशित करने हेतु आदरणीय गुरुवर का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteआदरणीया रत्नाकर दीदी, सुरभि जी और आदरणीय विजय जोशी जी की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
बहुत स्पर्शील अभिव्यक्ति । जो घर की देहलीज़ पार कर दूसरे घर चलीं आईं ।
ReplyDeleteमां के जाने के पश्चात अब मां को खुद में पातीं हैं । बधाई ।
हृदय को गहरे तक स्पर्श करती मार्मिक कविता। हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसुंदर कविता, बधाई रश्मि जी!
ReplyDeleteमन को भीतर तक छू लेने वाली रचना। शुभ कामनाएं
ReplyDeleteनिःशब्द कर दिया रश्मि जी, आपकी कविता ने! बेहद मर्मस्पर्शी! दिल के भीतर कुछ होने लगा! ...
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
आपकी कविता पढकर बहुत कुछ याद आने लगा, बधाई।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी मार्मिक सार्थक रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना
ReplyDeleteआप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
ReplyDeleteसादर
दिल को छू लेने वाली मार्मिक रचना.
ReplyDeleteअपना जब कोई असमय चला जाता है तो दिल के घावों को समय की मल्हम भी भर नहीं पाती.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... हार्दिक बधाई।
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