थोड़ा सा नेह
कमला निखुर्पा
औ छलक उठा
मन दीपक।
दिप-दिप जल उठी
सोई थी जो बाती।
लगन की लौ
लहककर जल उठी
लगने लगी
हवा से होड़
जलने की
बुझने की।
हवा चलती रही
दिया जलता रहा
नन्ही एक हथेली
करती रही ओट
भरती रही नेह
मन दीपक में।
थोड़ा सा नेह
कमला निखुर्पा
औ छलक उठा
मन दीपक।
दिप-दिप जल उठी
सोई थी जो बाती।
लगन की लौ
लहककर जल उठी
लगने लगी
हवा से होड़
जलने की
बुझने की।
हवा चलती रही
दिया जलता रहा
नन्ही एक हथेली
करती रही ओट
भरती रही नेह
मन दीपक में।
मनहर कविता
ReplyDeleteनन्ही हथेली करती रही ओट, भरती रही नेह... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, आपकी लेखनी को नमन कमला जी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता, बधाई कमला जी.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता। बधाई कमला जी। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति...बधाई कमला जी।
ReplyDeleteआप सबका धन्यवाद । सहज साहित्य में मेरे भावों को स्थान देने के लिए भैया का आभार
ReplyDeleteकमला निखुर्पा
Great readinng
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