1-जब हम छोटे थे
रश्मि विभा त्रिपाठी
बहुत लोगों से सुना है
कि जब हम छोटे थे
बारिश होती थी
तो
पूरी छत टपकती थी
हम बाल्टी, भगोने लगाते
थे
पंलंग के नीचे रात बिताते
थे
सो नहीं पाते थे
बचपन को बहुत दूर
छोड़ देने के बाद
आज
मेरे सर पर जो
छत थी,
वो छत टूट गई है
जाने कहाँ से
उफनते चले आ रहे हैं
बरसाती नाले
लबालब
बाल्टियों में ये तूफान
समाने वाला नहीं है
काश!
मैं एक छोटी बच्ची होती
तो
एक कागज की नाव बनाकर
उसपर बैठकरके
उस पार निकल जाती
या फिर मेरे बड़े होने
तक
छत न टूटती।
1-ज़िन्दगी लिखती रही
शैशवी मन के पुलक की
कल्पना लिखती रही।
ज़िन्दगी धर मृदुल-पग, प्रस्तावना लिखती रही।।
हो वसंती-सा गया मन, नववधू-सी व्यंजना,
कल्पना मधुयामिनी की
कामना लिखती रही।
भावना ने प्रेम-पूरित
छंद-लय सब रच दिया,
दिव्यता अभिव्यक्त हो
कर, साधना लिखती रही ।।
रूपसी बन मिलन -बेला, हो रही श्रृंगार-रत,
हो समर्पित कामिनी, आराधना लिखती रही।।
कर दिया अवरुद्ध
जीवन-पथ अकथ संभाव्य ने,
आयु विचलित रह, नई संभावना लिखती रही।।
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2- एक
नयी दुनिया
गुड़िया बड़ी हो रही है!
अपने विलक्षण सपनों के साथ!
उसको भाता है..
प्रातः की किरणों का साथ।
खिलती हुई घास की परतों पर,
मोतियों की तरह टँकी
हुई
शबनम की बूँदों को
छूना और..
अपने हाथों में सहेज लेना।
वो देखती है सपना..
अपने विचारों की क्रान्ति का!
अंतर्द्वंद्व की शांति का!
वो सीख रही है..
शिक्षा के साथ-साथ..
अनुभव के समुद्र पर
कुलाँचे भरना!
वो पहुँचना चाहती है
एक नयी सभ्यता गढ़ने की
दिशा की ओर!
वो क्षितिज पर है
और चाहती है कि
एक नया आसमान उसकी बाहों में हो!
एक नई सभ्यता उसकी राहों में हो!
वो चाहती है नए शज़र
नव-परिकल्पनाओं के।
वो कुरेदती चलती है
अपनी दादी, मामी और
नानी के अनुभवों को।
वो जुड़ना चाहती है..
असंख्य! भयभीत
प्रश्नवाचक निगाहों से!
गुड़िया सीख रही है..
भानु की अनुरक्त रश्मियों
और
विधु की लजीली ज्योत्स्ना के मध्य
सामंजस्य बैठाने का सलीका!
बदल रही है गुड़िया..
बदल रहा है उसका तौर-तरीका।
बदल रहे हैं..
उसके वैचारिक अनुबंध!
सॅंभल रहे हैं उसके
सधे किंतु अनवरत
बढ़ते हुए क़दम!
सुलझ रहा है उसका
दुनिया देखने का ढंग।
पर बदल रहे हैं उसके ..
एक नई दुनिया गढ़ने के
मौन संघर्ष!
वो बिखरा देना चाहती है
संपूर्ण विश्व में
खिलखिलाता लाल रंग!
वो डुबो देना चाहती है
उमस भरे हर इन्सान को
स्वतंत्रता और सहजता की
उन्मुक्त झील में!
वो चाहती है कि देख सके मानव
बदलाव के प्रेमिल स्वप्न।
जहाँ हो..
ऊॅंच-नीच से विलग
समानता की दुनिया।
देखकर उसकी ये लगन..
उसके अनंत-अबोले सृजन,
मुझे विश्वास है कि..
इस दुनिया के समाप्त
होने से पहले!
गुड़िया!
गढ़ चुकी होगी
एक नई दुनिया
एक नई दुनिया!
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वाहह वाहह!!! अत्यंत मनोरम , भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी रचनाएँ 🌹🌹🙏 आप दोनों को असीम बधाई 🌹🙏
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
Deleteबहुत सुंदर सृजन दोनों को खूब बधाइयाँ।
ReplyDeleteसादर
सादर धन्यवाद!
ReplyDeleteसहज साहित्य के पटल पर अपनी रचनाऍं देखकर असीम आनन्द की अनुभूति हुई। सादर धन्यवाद!
ReplyDeleteसुंदर कविताएँ, दोनों को हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविताएँ...आप दोनों को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसभी कविताएँ बहुत सुंदर,रश्मि विभा जी एवं रश्मि लहर जी को बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण कविताएँ। आप दोनों को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteआदरणीया रश्मि जी को सुंदर सृजन की हार्दिक बधाई 🌷💐🌹
ReplyDeleteसादर
मेरी कविता को सहज साहित्य में स्थान देने के लिए आदरणीय सम्पादक जी का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteआप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
सुंदर सृजन, आप दोनों को बधाई!
ReplyDeleteसभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक! बहुत सुंदर!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित