पथ के साथी

Thursday, February 9, 2023

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1-मेरी कलम

सुरभि डागर

  


लिखना चाहती है

मेरी कलम बहुत कुछ

पर ना जाने क्यों

ठहर जाती है ।

हो जाती है संकुचित

धुँधला जाते हैं

स्वच्छ शब्द,

पीला पड़ जाता है

कोरा सफेद कागज़ और

लग जाता है पूर्ण विराम

लिखना चाहती है

मन की व्यथा, जो

दर्द है उड़ेल दूँ स्याही से

पर रुक जाती हैं मेरी

अँगुलियाँ ।

ह जाता बस कोरा कागज़

और टकटकाता

रह जाती है मेरी

उदास कलम।

-0-

सॉनेट

विनीत मोहन औदिच्य

1-करें रतजगा सपने सारे



करें रतजगा सपने सारे, जी भरकर भरते सब आहें
रौंद हितों को दुखिया मानव इन्हें पूर्ण करना ही चाहें
स्वार्थ की अंधी दौड़ में हिस्सा लेता है आकर हर कोई
नंगेपन का देख खेल अति त्रस्त मनुजता बरबस रोई ।

शील लूटता अबला का नर कामुक नहीं लजाता
उसे भोग की वस्तु समझ कर कुत्सित भाव दिखाता
आडंबर का खेल घिनौना देख सहमती पावन धरती
अत्याचारों से उकताई सहिष्णुता घुट घुट नित मरती।

अब पथभ्रष्ट युवा भी सोचो कितने करते हैं मनमानी
संस्कार से हीन पृथक जीवन जीने की मानो ठानी
भ्रष्ट आचरण को अपनाकर मानव है जो पोषण पाता
देश प्रेम और मूल्यों से अब नहीं रहा है उसका नाता।

भारत माता के गौरव के बने हुए हैं जो रखवाले ।
हाय ! उन्होंने सुंदर सपने सारे चूर- चूर कर डाले।।

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2-आ गया ऋतुराज 

आ गया ऋतुराज देखो ओढ़कर पीला दुशाला
शारदे माँ भी विराजी, कर में वीणा, गले माला
पीत सरसों को पहनकर, खेत हर्षित लहलहाते
मधुप की ताजा चुहल से, पुष्प सारे खिलखिलाते।

सुगंधित वातावरण में, आस मृदु हृद में है पलती
घोलती मदिरा स्वरों में जब कोई पायल खनकती
नैन रतनारे प्रिया के , निश सजन की बाट हेरें
अंक में पिय के समाने, द्वार पग हर बार फेरें।

कामना की नदी चंचल, वेग से अति बह रही है
तितलियों ने पुष्प से भी प्रीति की भाषा कही है
शुष्क अधरों ने पिया के, मौन सा संदेश भेजा
विरह की अग्नि ने जैसे पीर को उर में सहेजा।

विटप से लिपटीं लताएँ प्रीति की मनुहार करती।
चपल वासंती बयारें, रंग नव, जीवन में भरतीं ।।

-0-

3-प्रणय-अनुबंध 

कनखियों से लख रहा हूँ अप्रतिम चेहरा तुम्हारा
ज्योति को चहुँ दिस बिखेरे चंद्रमा से लगे प्यारा
लालिमा गालों की तेरी रंग प्रकृति का लजाए
आ खड़ी हो द्वार पर तुम पुष्प वेणी में सजाए।

अधर कंपित जब तुम्हारे प्रीति के पट खोलते हैं
रागिनी के स्वर सहज ही हृदय में मधु घोलते हैं
वक्षस्थल का उठना गिरना करता है जब विचलित
निरख रूप को असमय होते जाने कितने कवलित।

आशा और निराशा अंतर में उपजे जब निश दिन
सच मानो वैधव्य झेलता चैन भी जाता है छिन
कर रही व्याकुल हृदय को यह सुवासित देह चंदन
मौन साधे यह पथिक भी कर रहा करबद्ध वंदन ।

गीत मनोरम प्रीति रीति के रहें धरा पर अक्षत।
यह अनुबंध प्रणय का अपना रहे सदा ही शाश्वत।।

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15 comments:

  1. सुंदर रचनाएँ, आप दोनों को बधाई!

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    1. हार्दिक आभार आपका।
      सुरभि डागर

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  2. अति सुन्दर कविता और साॅनेट, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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    1. आभार आपका।
      सुरभि डागर

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  3. सुंदर रचनाएँ। दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
      सुरभि डागर

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  4. बहुत सुंदर रचनाएँ...आप दोनों को हार्दिक बधाई।

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    1. आपका हार्दिक आभार।
      सुरभि डागर

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  5. आपका हार्दिक आभार।
    सुरभि डागर

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  6. आपका हार्दिक आभार ।
    सुरभि डागर

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  7. बहुत ही सुंदर कविता आद. सुरभि जी 🌹🙏
    सार्थक एवं उत्कृष्ट सॉनेटस के लिए आपको असीम बधाई सर 🌹🙏

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    1. आपका हार्दिक आभार।
      सादर
      सुरभि डागर

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  8. सुंदर रचनाएँ!

    ~सादर
    अनिता ललित

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    1. हार्दिक आभार आपका।

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  9. सुन्दर रचनाएँ...बहुत बहुत बधाई आप सभी को

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