पथ के साथी

Tuesday, December 21, 2021

1170-बंधन

कृष्णा वर्मा 


बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें         

लेकिन भींच लेता हूँ मुठ्ठी में 

कसकर सोच की लगाम 

चाहे कितना भी दबा लूँ 

अंतस् की आग को,   

फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से 

थक गए हैं मेरे हवास 

लगा-लगाकर होंठों पर ताला 

अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से 

जिसे कब का बेमायने कर दिया है

तुम्हारी हठधर्मियों ने  

चाहकर भी मन कस नहीं पाता  

ढीली हुई रिश्तों की दावन को 

सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता

ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द 

तुम्हारे ग़ुरूर को बेंधने को 

मेरी चुप्पियाँ 

तुम्हारी अना की जीत नहीं 

अपितु गृह कुंड में शांति की आहुति है 

अच्छा होगा जो अब भी

थाम लो तुम 

अपनी कुंद सोच के क़दम

ऐसा न हो रह जाए कल

तुम्हारी ज़िद की मुठ्ठी में

केवल पछतावा। 

 

 

9 comments:

  1. कृष्णा जी की वेदना पूर्ण भावों से भरी हुयी रचना पढकर हृदय सोच में पद गया | हर बात महसूस की जाती है लेकिन लेखनी से कुछ और ही बन जाती है | अत्यंत गम्भीर हृदय को स्पर्श करने वाली रचना | आपको बहुत सारी शुबकामनाएं |श्याम हिंदी चेतना

    ReplyDelete
  2. बहुत ही भावपूर्ण रचना।
    आदरणीया दीदी को हार्दिक बधाई।

    सादर

    ReplyDelete
  3. ज़िद्द की मुठ्ठी. चाहे किसी की हो, सदा दुखदायक । सुंदर रचना के लिए कृष्णा जी को बधाई!

    ReplyDelete
  4. सचमुच बहुत ही भावपूर्ण कविता। हार्दिक बधाई कृष्णा जी।

    ReplyDelete
  5. अच्छी कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

    ReplyDelete
  6. वाह सुन्दर रचना है | गृह कुंड में शान्ति की आहुति देकर भी जिद्द की मुट्ठी ना खुली तो अंत में पछतावा ही रह जाएगा |हार्दिक बधाई कृष्णा जी |

    ReplyDelete
  7. बहुत सुंदर, भावपूर्ण अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई

    ReplyDelete
  8. मर्मस्पर्शी कविता के लिए बहुत बधाई आदरणीय कृष्णा जी को

    ReplyDelete