डॉ. सुरंगमा यादव
वैधव्य - प्रसार
देखकर आसपास
सोच में पड़ा मन
क्या रखा नहीं इन्होंने
करवा व्रत !
या चूक हुई
विधि-विधान में
जो जीवन बना भार
पति की उम्र पर
क्यों लगा ग्रहण?
ग्रामीण स्त्रियाँ
रीति-रिवाज और आस्था
दोनों ही निभातीं शतशः
फिर भी क्यों रूठ जाता
इनका भी सौभाग्य !
प्रश्न उठा बार-बार
व्रत को आयु से जोड़ना
छलावा तो नहीं
स्त्री मन के साथ?
झटककर यह प्रश्न
सोचने लगा मन-
व्रत के बहाने चलो
आओ गूँथें हम
एक-दूजे लिए
प्रीत की माला।
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जिंदगी जब तक खुद न रूठ जाए तुमसे
तुम जिंदगी से कभी मत रूठना
सीधी राहों से ही नहीं
कभी -कभी रूट डायवर्ट करके भी
जिंदगी मंजिल तक पहुँचाती है।
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सुंदर सृजन, हार्दिक बधाई शुभकामनाएं
ReplyDeleteव्रत के बहाने चलो/आओ गूँथें हम/एक-दूजे लिए/प्रीत की माला।.....बहुत सुंदर भाव।हार्दिक बधाई
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर सार्थक सृजन... वाह्ह्ह... बधाई 🌹🙏🙏
ReplyDeleteसुन्दर रचना, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण रचना...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी।
ReplyDelete....छलावा तो नहीं स्त्री मन के साथ.....
ReplyDeleteसुंदर सृजन, बधाई सुरँगमा जी।
सुन्दर भावपूर्ण रचना ....
ReplyDeleteसही कहा - छलावा तो नहीं / स्त्री मन के साथ?
हार्दिक शुभकामनाएँ सुरंगमा जी
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआप सभी का हृदयतल से आभार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन। हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसुन्दर रचनाओं के लिए बहुत बधाई
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