रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’
1
बीज जितने भी बिखेरे वे
सभी मधुबन में खिले।
यार जितने भी बनाए, दुश्मनों के घर में मिले
2
वश नहीं तेरा कि मेरा,हम क्यों मिले इस मोड़ पर
जानता इसको विधाता,क्या कुछ चले हम छोड़कर
3
कुछ अपनों ने तो
मुझको इतना प्यार दिया
सौ- सौ जनम मिलें तो कर्ज़
उतारूँ कैसे ।
कुछ ने अपने बनकर
इतने थे वार किए
सौ-सौ मरण मरूँ मैं
उन्हें बिसारूँ कैसे
4
सब काँटे कुछ ने मेरे
पथ के चुन डाले
सब पोर -पोर हाथों के
लहूलुहान किए ।
कुछ ने अपने बनकर
हज़ारों प्रहार किए
नासूर हमें देकर पूरे
अरमान किए ।
5
लोगों की क्या बातें, लोग दगा देते हैं।
अपने बनकर घर में ,आग लगा देते हैं।
मुक्तक
शान से आगे बढ़ो तुमकल तुम्हारा है
तुम तो मेरी जाह्नवी हो, मुझमें जल तुम्हारा है।
पथ तुम्हारा कंटकों का,संग में ही चलना मुझे
सुमन खिलाने हैं वहाँ तक जहाँ आँचल तुम्हारा
है।
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सुन्दर रचनाएँ! मर्मस्पर्शी !
ReplyDeleteअति सुंदर भावपूर्ण सृजन। बधाई
ReplyDeleteअति उत्तम। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबेहद सुंदर। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पंक्तियाँ गुरु जी।👌💐
ReplyDeleteभावपूर्ण सृजन के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय भाईसाहब जी।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ बेहद सुन्दर आदरणीय।
ReplyDeleteमेरा उत्साहवर्धन करने वाले सभी साथियों का आभारी हूँ। अपनी यहीआत्मीयता बनाए रखिए
ReplyDeleteसुंदर काव्य
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसभी पंक्तियां बेहतरीन भाव लिए, आपको अनेकों बधाई आदरणीय!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व भावपूर्ण सृजन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय भैया जी!
ReplyDeleteसुंदर एवं भावपूर्ण रचना बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन भैया, हार्दिक बधाई आपको 🙏💐🙏
ReplyDeleteअद्भुत भाव है. यूँ लगता है जैसे हमारी अनुभूति को भैया ने शब्द-भाव दिए हैं. बहुत उम्दा रचनाएँ. हार्दिक बधाई काम्बोज भैया.
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