[1193 में बख़्तियार खिलज़ी ने भारतीय ज्ञान के प्रति ईर्ष्यावश नालन्दा
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आग लगवा दी। विश्व की उस समय की इस सर्वोच्च
संस्था में सँजोए
सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जलकर ख़ाक़ हो
गए। यह आग कई महीनों तक जलती रही। विद्वान् शिक्षकों की हत्या कर दी गई। इस घटना से मन में
कुछ भाव आए, जो आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।]
चाहे ख़िलजी लाखों आएँ
नालन्दा हर बार जलाएँ
धू -धू करके जलें रात- दिन
अक्षर नहीं जला करते हैं।
विलीन हुए राजा और रानी
सिंहासन के उखड़े पाए
मुकुट हज़ारों मिले धूल में
बचा न कोई अश्क बहाए।
ग्रन्थ फाड़कर आग लगाकर
बोलो तुम क्या क्या पाओगे
आग लगाकर तुम खुशियों में
खुद भी इक दिन जल जाओगे।
नफरत बोकर फूल खिलाना
बिन नौका सागर तर जाना
कभी नहीं होता यह जग में
औरों के घर बार जलाना।
जिसने जीवन दान दिया हो
उसे मौत की नींद सुलाना
जिन ग्रन्थों में जीवन धारा
बहुत पाप है उन्हें मिटाना।
ख़िलजी तो हर युग में आते
इस धरती पर ख़ून बहाते
मन में बसा हुआ नालन्दा
लाख मिटाओ मिटा न पाते।
आखर -आखर जल जाने से
ये शब्द नहीं मिट पाते हैं
भाव सरस बनकर वे मन में
अंकुर बनकर उग जाते हैं
जीवन जिनका है परहित में
कब मरण से डरा करते हैं।
मरना है इस जग में सबको
अक्षर नहीं मरा करते हैं।
कब मरण से डरा करते हैं।
मरना है इस जग में सबको
अक्षर नहीं मरा करते हैं।
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वाह,बहुत सुंदर और सार्थक भाव-अक्षर नहीं मरा करते हैं.. ये सनातन सत्य है,साहित्य अमर है कोई भी निरंकुश सत्ता साहित्य को समाप्त नहीं कर सकती।
ReplyDeleteव्वाहहहह..
ReplyDeleteअक्षर नहीं मरा करते हैं।
कभी नहीं.. अमर हैं अक्षर..
सादर..
वाह!अत्यंत सुंदर एवं सत्य भाव लिए रचना! अक्षर कभी नहीं मरा करते!
ReplyDeleteइस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय भैया जी!
~सादर
अनिता ललित
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर,
भावना
अक्षर नहीं मरा करते हैं ।साहित्य शाश्वत है, कौई नहीं मिटा सकता ।अति सुंदर सार्ँथक भावाभिवक्ति के लिए हार्दिक बधाई
ReplyDeleteअक्षर नहीं मरा करते हैं... बिलकुल सही, अक्षर तो सदा के हैं, सुख मे दुख में अक्षर ही तो हैं जो अभिव्यक्ति का माध्यम है, साथी हैं
ReplyDeletewww.manukavya.wordpress.com
शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति ।बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteवाह! अक्षर नहीं मरा करते हैं...बहुत ही गहन सार्थक बात कही भैया|
ReplyDeleteनालंदा जिला हमारा गाँव है और हमने वहाँ की ईंट ईंट देखी है, ध्वस्त कमरे देखे हैं, रसोई देखी है, पढ़ने का कमरा देखा है| पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है नालंदा विश्वविद्यालय की ध्वस्त दीवारें| देखकर दुःख होता है कि वह जलाया नहीं गया होता तो भारत साहित्य के मामले में और कितना धनी रहता|
रचना का प्रवाह बहुत सुन्दर है और लगता है जैसे जले अक्षर नई काया में पुनः जीवित हो उठे हैं| हार्दिक बधाई भैया!
बेहद ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति... हार्दिक बधाई आदरणीय!
ReplyDeleteबेहद सार्थक और सामयिक रचना. सच है अक्षर कभी मरा नहीं करते हैं. बहुत गहन भाव. हार्दिक बधाई भैया.
ReplyDeleteसार्थक एवं सुंदर सृजन आदरणीय
ReplyDeleteअक्षर सच में कभी नहीं मर सकते...| उस निंदनीय कृत्य से लगी ठेस मानो साकार हो गई...| इतिहास की एक दुखद घटना को लेकर आपने इतनी ओजपूर्ण रचना की है उसके लिए बहुत बधाई...|
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