इंसान पेड़ नहीं बन सकता कभी
रश्मि शर्मा
पेड़ अपने बदन से
एक-एक कर सारी पत्तियाँ
फिर खड़ा रहता है
निस्संग
सब छोड़ देने का अपना सुख है
जैसे
इंसान छोड़ता जाता है
पुराने रिश्ते-नाते
तोड़कर निकल आता है
उन तन्तुओं को
जिनके उगने, फलने, फूलने तक
जीवन के कई-कई वर्ष
ख़र्च किए थे
पर आना पड़ता है बाहर
कई बार ठूँठ की तरह भी
जीना होता है
मोह के धागे खोलना
बड़ा कठिन है
उससे भी अधिक मुश्किल है
एक- एककर
सभी उम्मीदों और आदतों को
त्यागना
समय के साथ
उग आती है नन्ही कोंपलें
पेड़ हरा-भरा हो जाता है
पर आदमी का मन
उर्वर नहीं ऐसा
भीतर की खरोंचें
ताज़ा लगती है हमेशा
इंसान पेड़ नहीं बन सकता कभी।
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बहुत सुंदर। सच में विचारणीय ।बधाई रश्मि जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...बधाई रश्मि जी।
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ReplyDeleteजीवन के कटु यथार्थ को वृक्ष के माध्यम से अभिव्यक्त करती एक सशक्त रचना।बधाई रश्मि जी
रश्मी जी आपने पेड़ से मनुष्य की तुलना करके मरी आँखें खोल दी हैं | क्या कल्पना है ! कितने सन्दर शदों से आपने जीवन की वास्तविकता बता दी | पहली बार इतनी भ्व्पूर्ण रचना देखने को मिली | रश्मी जी आपको बहुत सारी बधाई और शुभकामनाएं | श्याम त्रिपाठी -हिन्दी चेतना
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा सृजन हार्दिक बधाई रश्मि जी
ReplyDeleteइंसान कभी पेड़ नहीं बन सकता..
ReplyDeleteबहुत ही खूब .... बहुत ही सुन्दर रचना ....
वाह रश्मि जी मनुष्य और पेड़ का अंतर बहुत सुन्दर शब्दों में कविता बद्ध किया है बहुत सुन्दर सृजन है हार्दिक बधाई |
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ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है....हार्दिक बधाई रश्मि जी।
सच बयान करती अत्यंत ख़ूबसूरत रचना। इंसान कभी पेड़ नहीं बन सकता... सच है!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई रश्मि जी!
~सादर
अनिता ललित
बहुत सुन्दर...हार्दिक बधाई रश्मि जी
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