माँ
1-डॉ भावना कुँअर
जाने
क्यों बार-बार
आज
भटक रहा था मन ...
रह-रहकर
माँ क्यों याद आ रही थी
पिछले
बरस ही तो आई थी मेरे पास...
दिन भर जाने क्या-क्या करती
कभी
खाली ही नहीं रहती...
जब
मैं ऑफिस से आती
खुल
जाता हमारी यादों का पिटारा
और
रात ढले हौले-हौले बन्द होता...
घर
का हर कोना महकता रहता
माँ
की खुशबू से...
बॉलकनी
में जाते वक्त माँ का हाथ हिलाना
आने
से पहले यूँ खड़े-खड़े इन्तज़ार करना...
आज
मन दुखी है, माँ को याद करता है...
मैं
बैठी हूँ सात समन्दर पार...
ढूँढती
हूँ उस खुशबू को
जो
दब गई है कहीं धूल में...
झाड़ती
हूँ धूल और रख लेती हूँ खुशबू को सहेजकर...
रसोई
में खोजती हूँ कुछ डिब्बों में...
खुशी
से बाछें खिल जाती हैं...
माँ
के हाथों से बने कचरी और पापड़ पाकर
चूल्हे
पर जल्दी-जल्दी भूनती हूँ
तभी
दिख जाती है माँ की पसन्द की चाय...
उन्हीं
की तरह बनाती हूँ छोटे से भगोने में
खूब
पका-पकाकर...
अब
बैठ जाती हूँ, चाय की चुस्की लेती हूँ
कचरी
पापड़ खाती हूँ...
पर
जाने क्यों होठों तक आते ही
सील
जाती है कचरी
और
नमक भी जाने क्यों तेज सा लगता है...
कुछ
सीली-सीली, कुछ गीली-गीली कचरी
चाय
की चुस्की या फिर दबी-दबी सिसकी
सूनी
बॉलकनी, सूना घर
रसोई
में बसी माँ के खाने की खुशबू आज भी है
और
आज भी है इन्तज़ार
अलगनी
पर टँगे कपड़ों को
तहाने
का...
आज
भी शीशे पर चिपकी बिन्दी को
है
इन्तज़ार उन हाथों का
मेरी
नन्हीं चिरैया को है इन्तज़ार
उन
मीठी-मीठी बातों का...
मैं
सब यादों को समेटकर
माँ
से मिलने के दिन
लग
जाती हूँ उँगलियों पर गिनने...
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2-मंजूषा मन
घर
के तहखाने में आज जाकर
सब
सामान उथल-पुथल कर बैठी
खूब ढूँढा
खूब ढूँढा
पर न
मिला
होना
तो था यहीं कही !
फिर
खोले पुराने डिब्बे,
टोकरियाँ पलटाई
पोटलियों
की गाँ खोलीं
यहाँ भी नहीं ..
फिर
कोने में दिखी माँ की संदूकची
सोचा
इसे भी देख लूँ
बेसाख्ता
संदूकची खोली
और
ढूँढना शुरू किया ..
दो
चार चीजें हटाते ही
मिली
वो गुड़िया
जो आँखें मटकाते डमक- डमक नाचती थी
अब
चुपचाप दबी पड़ी !
वो
राजकुमार गुड्डा
जिसके
सिर पर चमकीला सेहरा था
जो
घोड़े पर मटकते गाना गाता था
अब
बदरंग, कुछ नहीं कहता !
कुछ
बिंदियों के पत्ते
जो
इन दिनों अक्सर लगाना भूल जाती हूँ
कितनी
छोटी छोटी चूड़ियाँ , काला कंगन
अब
तो बिटिया के तक न आएँ !
देखती
रही उलट पलटकर जाने कब तक
फिर
उठ बैठी निश्वास
जंगीला
हो चला था ताला बस वही बदला
और
संदूक में मिला था
इन
सब के साथ मेरा बचपन भी
जो
सहेजा था माँ ने...
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3-मेरी माँ -
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
आज अचानक कहा
मेरी माँ ने मुझसे
लिख दो ना मेरे ऊपर भी
कोई कविता
और फिर देखा मैंने माँ
को ध्यान से
आज कई दिनों बाद ।
अरे ! माँ कब हो गई बूढ़ी
सौंदर्य से उनका दमकता
वो चेहरा जाने कब ढक गया झुर्रियों से
माँ के सुंदर लम्बे काले बाल
कब हो गए सफेद ।
कब माँ के मजबूत कंधे
झुक से गए समय के बोझ से।
अचंभित हूँ मैं ...
ढूँढती रही मैं नदियों , पहाड़ों ,
बगीचों में कविता
और मेरी माँ
मेरे ही आँखों के सामने होती रही बूढ़ी।
भागती रही भावों की खोज में
क्यों नही देख पाई
जब प्रकृति खींच रही थी
माँ के जिस्म पर अनेकों रेखाएँ ..
सिकुड़ती जा रही थी माँ तन से और मन से
और मैं ढूँढ रही थी प्रकृति में
अपनी लेखनी के लिए शब्द ।
जब बूढ़ी आँखे और थरथराते हाथों
से
जाने कितनी आशीषें लुटा रही थी माँ ।
तब मैं दूसरों के मनोभावों में ढूँढ रही थी कविता ।
और इसी बीच जाने कब मेरे और मेरी
कविता के बीच
बूढी हो गयी माँ ।
शर्मा ‘कीर्ति’
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3-
माँ( मन्जूषा मन ) के लिए
प्रकृति दोशी
तू ही तू
तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा
दुगना काम
दुगना दर्द
दुगना तनाव
दुगने आँसू
दुगने कर्त्तव्य
दुगना दायित्व-भार
दुगनी सारी जिम्मेदारी
और शायद दुगना बोझ भी।
मगर,
दुगने प्यार
दुगना दुलार
दुगनी खुशी
दुगना आत्मविश्वास
दुगनी हिम्मत
दुगना गौरव
दुगनी ममता
और दुगनी हमारी खुशकिस्मती ।
तू अकेली थी पर अकेली ही काफी थी।।
तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा।।
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सभी रचनाकारों को बधाई, सुंदर शब्द भाव माँ को समर्पित करने हेतु।
ReplyDeleteMaa ko samprit sabhi rachnayen bahut payari hain meri hardik badhai..
ReplyDeleteसभी रचनाकारों की सुंदर प्रस्तुति...सामूहिक बधाई
ReplyDeleteमाँ पर लिखीं बहुत सुंदर रचनाएँ। आप सभी को बधाई।
ReplyDeleteमाँ ही माँ- सँभली हुई,घर-परिवार का दायित्व सम्भालती, जवानी,प्रौढ़ावस्था को पार कर बुढ़ापे की झुर्रियाँ स्वीकारती अपनी अनमोल यादों की बंद पिटारी का प्यारा सा अहसास छोड़ती माँ पर लिखी कविताओं में उसके हर रूप पढ़ने को मिले|सुंदर भावाव्यक्ति
ReplyDeleteहेतु प्यारी प्रकृति दोषी,मंजूषा,सत्या तथा भावना कुँवर जी को बधाई|
माँ की यादों में बसी हर रंग रूप से सजी कवितायों ने मानों माँ को सामने खड़ा कर दिया । माँ के विराट रूप को नई रचनाकार प्रकृति दोषी ने और विराट बना दिया । सभी को बहुत सारी बधाई ।
ReplyDeleteमाँ विषयक डॉ.भावना , मंजूषा मन , सत्या शर्मा कीर्ति और प्रकृति दोषी की कविताएँ अनुपम और मार्मिक |सभी को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteमाँ के लिए, माँ के ऊपर लिखी गई इन पंक्तियों ने बरबस दिल तक दस्तक दी...आँखें भर आई...| आप सभी को हार्दिक बधाई...|
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