एक
शाश्वत सच
-प्रेम गुप्ता `मानी’
कल जब
नीले आसमान से
छिटककर चाँद
सहसा ही
उतर आया
मेरी कोमल,गोरी नर्म हथेली की ज़मीन पर
और ज़िद कर बैठा
मेरी आँखों के भीतर दुबके
बैठे-सपनों से
सपने...
आँखमिचौली का ‘खेल’ खेलकर
थक गए थे
कुछ देर सोना चाहते थे
पर चाँद की ज़िद
बस एक बार और...आँखमिचौली का खेल
सपना पल भर ठिठका
उनींदी आँखों से चाँद को निहारा
और फिर खिल-खिल करते
उसने भी छलाँग लगा दी
इठलाती-बलखाती यादों की उस नदी
में
जो मेरे नटखट बचपन के घर के
बाजू में बहती थी
और उसमें तैरती थी
मेरी कागज़ की कश्ती
न जाने किस ठांव जाने की चाह में
समुद्र-
मेरे आजू-बाजू नहीं था
पर फिर भी
रेत का घरौंदा-चुपके से
हर रात आता मेरे सपनों में
सपनों की तरह
वह कभी बनता- कभी बिखरता
वक़्त-
ढोलक की थाप पर थिरकता
मेरे कानों में
कभी गुनगुनाता, तो
कभी चीखता
और मैं?
उसकी थाप पर डोलती रही
मदमस्त नचनिया सी
मेरे साथ ज़िन्दगी भी थिरकती रही
और फिर एक दिन
थक कर बैठ गई
चाँद-
मेरी हथेली पर सो गया था
तारे, न
जाने कब छिटक गए
आसमान की चादर पर बिखर गए
मेरे आसपास
गझिन अँधेरा घिर आया था
चिहुंक कर चाँद उठा
और जा छुपा बादलों की ओट में
मैं...हैरान...परेशान
अभी-अभी तो तैर रहा था
मेरी क़ागज़ की नाव के साथ
एक अनकहा उजाला
अब मेरे पास
न चाँद था ।न कोई तारा
मेरी खाली हथेली पर
काली स्याही से लिखे
कुछ अनसुलझे सवाल थे
मेरे घर की
बाजू वाली नदी
इठलाना भूल
धीरे-धीरे बहने लगी थी
मेरे मिट्टी के घरौंदे की छत पर
चोंच मारती चिड़िया
अपनी अंतहीन तलाश से बेख़बर
चोंच को सिर्फ़
घायल कर रही थी ।
मैंने,
अपनी आँखों से बहते झरने के झीने
परदे को
अपनी खाली हथेली से सरकाकर
आकाश की ओर देखा
और फिर
धरती पर उतरते गझिन अँधेरे से
भयभीत हो जड़ हो गई
यह क्या?
अब मेरी हथेली सख़्त थी
और
उस पर उग आई थी
जंगली दूब -सी
अनगिनत रेखाएं
अपनी सिकुड़न के साथ
मैं,
जानती थी कि
वे सिर्फ़ रेखाएँ नहीं थीं-
एक सत्य था...
शाश्वत...
अब,
वह सत्य मेरे चेहरे पर भी उग आया
है
मैं क्या करूँ?
आकाश की गोद में इठलाते चाँद की
उजास
मेरी छत की सतह पर उतर आई है
चुपके से...दबे पाँव
और मैं खामोश हूँ
मेरी खिड़की की सलाखों से
आर-पार होती हवा हँसी है
और चाँद भी
चाहती तो हूँ
कि,
उनके साथ खिल-खिल करती
मैं भी हँसूँ
बचपन और जवानी की चुलबुलाहट के
साथ
पर क्या करूँ
सत्य की कडुवाहट
अपनी पूरी शाश्वता के साथ
मेरे मुरझाते जा रहे होंठो पर ठहर
गई है...।
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Chand ki ankhmicholi bahut achhi lagi, bahut bahut badhai meri or se.
ReplyDeleteहार्दिक बधाई प्रेम जी, आपकी सुन्दर एवं मार्मिक रचना हेतु, यही सच है जीवन का/
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण है 'एक शाश्वत सच' ...हार्दिक बधाई !!
ReplyDelete' एक शाश्वत सच ' प्रेम गुप्ता जी परिवर्तन का हुंकारा भरती यह कविता भावाकुल कर गई । बहुत मार्मिक रचना है आपकी ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई ।
बहुत सुंदर रचना प्रेम जी बहुत बधाई।
ReplyDeleteप्रतिपल स्वप्न स्वरूप जीवन के सत्य को उकेरती भावपूर्ण कविता हेतु प्रेम जी बधाई |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एवं मार्मिक रचना प्रेम जी ..हार्दिक बधाई !!
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDeleteप्रेम गुप्ता `मानी’जी बहुत भावपूर्ण रचना हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteप्रेम गुप्ता मानी जी की कविता मन से सम्वाद करने में पूरी तरह सफल
ReplyDeleteमेरी रचना को 'सहज साहित्य' में स्थान देने के लिए भाई कम्बोज जी का आभार...और आप सभी की उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से शुक्रिया...|
ReplyDeleteसहज भाव से भरपूर सरस रचना हेतु बधाई आपको प्रेम गुप्ता'मानी' जी
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