1-कृष्णा वर्मा
माँ-1
घटती है पल-पल
बाँटने को सुख
मिटती है छिन-छिन
जिलाने
को खुशियों के प्राण
मथती है ताउम्र
कर्त्तव्यों का सागर
फिर क्यों
खड़ी रह जाती है माँ
किनारों पर काई -सी।
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माँ-2
दिन- दिन घटी पल-पल मिटी
कई बार बिखरी
तुम्हें ऊँचा उठाने की चाह में
मुझमें भी थी क़ाबिलियत कामयाब होने की
पर लिख दी थी मैंने जीवन के वसीयतनामे में
अपनी सारी ऊर्जा तुम्हारे नाम
कि तुम छू पाओ अपना आकाश
चुराकर अपनी हथेलियों से
अपने हिस्से की शोहरत की रेखा
खींच दी
थी तुम्हारी हथेलियों पर
कि तुम भर सको परवाज़
ग़ैर ज़िम्मेदारी जानकर
ताक पर धर दिया था तुम्हारे लिए
मैंने अपनी हर चाहत को
और जीवन का तमाम सुख निहित कर लिया था
केवल तुम्हारी परवरिश में
पर तुम तो
मेरी ममता और दोस्ताना रवैये को
हलके में ही लेने लगे
हर छोटी बात को
ज़िम्मेदारी का बोझ जान खीजने लगे
अपनी व्यस्तता जताने का स्वांग रचने लगे
देखते-देखते तुम्हारे हाथ
संस्कारों की अँगुली छोड़ने लगे
कभी कुछ नज़रअंदाज़ नहीं किया था मैंने
अपनी सहूलियतों के लिए
और ना ही कभी अपने सुख की अपेक्षाएँ कीं
और तुम
अपने स्वार्थ के आगे सीख ही ना पाए
अपनी ज़िम्मेदारियों की गम्भीरता को
तुम तो
अपनी तथाकथित आज़ादी अपनी मनमानी के लिए
अनदेखा करने लगे अपने अभिभावकों को
आए दिन बढ़ने लगीं तुम्हारी बदसलूकियाँ
ज़माने की विषाक्त हवा जान
भीतर उठती अपनी पीड़ा को
नित बुहार देती ममता की बुहारी से
और सहने की इस निजता ने शायद
आँकने ही न दिया आज तक तुम्हें छोटा।
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2-मंजूषा मन
भोर और साँझ के बीच
थी एक लम्बी दूरी
एक पूरा दिन...
भोर ने शुरू किया सफर
मंजिल तक जाने का
दौड़ते हाँफते
भागी पूरा दिन...
आकाश की तश्तरी पर रखे
सूरज की सिंदूरी डिबिया..
झुलसती रही
सहती रही जलन
और खोया अपना अस्तित्व...
पूरी उम्मीद थी
कि इस सफर में
कहीं न कहीं/ कोई न कोई
तक रहा होगा राह
किसी को तो होगा इंतज़ार,
लहूलुहान पैर, झुलसी
काया ले
तै हुआ पूरा सफर,
न मिला कोई
हाथ आई केवल निराशा...
भोर ने छोड़ी नहीं उम्मीद की डोर
अगले दिन फिर
शुरू हुआ यही सफर...
धरती घूमती रही अपनी धुरी पर
जीवन चलता रहा
अपनी रफ्तार में....
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3- सुषमा धीरज
अच्छा सुन...
कोई तो तरीका
होगा
जो तू आए भी न
और मैं छू भी
सकूँ ...
अच्छा बता ...
कोई तो ज़रिया
होगा
जो तू कहे भी न
और मैं सुन भी
सब सकूँ ...
अच्छा कह तो...
कोई रस्ता तो
होगा
जो तू लौटे न भी
फिर भी मिल मैं
सकूँ ....
जब शरीर में था
तू
तब दूर भी पास
था..
आज रूह बन के
पास है ...
पर जिस्म पहना
नही तूने
तो छुऊं कैसे
भला तुझे ....
बता न कोई तो
रस्ता होगा
कोई जगह तो होगी
कोई तरीका तो
होगा
जहां तेरी टीम
में शामिल हो
फिर से खेलना
मुमकिन हो
और तेरे पीछे
छुपके
निश्चिंत साँस
ले सकूँ कि
तेरे होते मुझे
क्या डर
जीत ही जाना है
मैंने..
पर अब तो डर
लगता है...
बहुत डर लगता है
तेरे बिन
..........
बता न कोई तो
जरिया होगा ...
तीनों रचयित्री अपनी कहन में पूर्णतया सफल !!
ReplyDeleteसुंदर अर्थवान मर्मस्पर्शी !!!
सादर अभिवादन !!!
तीनों कवयित्रियों की रचनाएँ बहुत ही सुंदर। बधाई
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ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर लिखा मंजूषामन जी
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
बहुत ही बेहतरीन सृजन कृष्णा वर्मा जी । सचमुच माँ पर कितना भी लिखूं शब्द कम पड़ ही जाते हैं ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
बहुत ही सुंदर कविता सुषमा धीरज जी।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
बहुत ही सुंदर कविता सुषमा धीरज जी।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
sundar kavitaon hetu teeno rachnakaron ko badhai.
ReplyDeletepushpa mehra
मेरी कविताओं को यहाँ स्थान देने के लिए आ० भाई काम्बोज जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ मंजूषा जी सुषमा जी आप दोनों को बहुत बधाई।
बहुत सुन्दर कविताएँ
ReplyDeleteतीनों कवयित्रियों की ओजस अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचनाएँ ....तीनों कवयित्रियों को हार्दिक बधाई !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों की गहराई लिये तीनों कवयित्रियों की रचनायें हृदय को छू गईं । बधाई आप तीनों को ।
ReplyDeleteमन को छूने वाली बहुत सुन्दर रचनाएँ हैं सभी...| बहुत बहुत बाधाई आप तीनों को...|
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण रचनाओं के लिए आप सबको हार्दिक बधाई ।
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