आस्था झा
खौलती है जब रूह
आस्था झा |
अपनी परछाई पाने को
कितना छटपटाती होगी
तमाम बारीकियाँ समेटे
खुश्क कर जाती है
जो नम थी कभी
वो ओस की बूँदें
हरी घास पर
नंगे पैर
चले तो होगे ना?
इसी नमी को
बरकरार रखने
मेरी रूह गुनगुनाती है अब
प्यार का कोई सुहाना
गीत गाती है अब
वन्दना परगिहा |
कि अब जब मिट्टी में
रखोगे अपने पाँव
तो याद करना मेरा स्पर्श
मिट्टी में घुला हुआ
वो एक और
नम स्पर्श
और तुम भी
गुनगुना देना
मीठा -सा
कोई गीत।
-0-Email-asthajhamaya@gmail.com
स्वागत
ReplyDeleteप्रकृति के सानिध्य का सुंदर एहसास।
वाह क्या अनुभूति, बधाई!
ReplyDeleteआस्था जी अहसासों की सुन्दर कविता के लिए बहुत-बहुत बधाई ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसास आस्था जी बधाई!
ReplyDeleteआस्था जी बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत नज़्म आस्था जी बधाई।
ReplyDeleteआस्था जी सुन्दर कविता प्रकृति के नम एहसास की गुनगुनाती हुई ।स्वागत और बधाई ।सुन्दर रचनाओं के पधारती रहें ।
ReplyDeleteसुन्दर रचनाओं के साथ पधारती रहें ।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब! गुनगुनाती हुई सी रचना !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आस्था जी !
~सादर
अनिता ललित
बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना आस्था जी !!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना ..हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteएक बेहद खूबसूरत, रूमानी से अहसास को समेटे इस प्यारी रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई आस्था जी...|
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