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चाँद
अनिता मंडा
एक बार यूँ
होकर बेक़रार
छूना चाहा था
चाँद को लहरों ने,
आगे बढ़ती
आकाश की तरफ़
भूली मर्यादा
आगे और ऊपर
बढ़ती गईं
लील गई जीवन
समेट गई
अनमोल निधियाँ
किनारे छोड़
फैल गई रेत में
थकी, ठहरी
होकर असफल
हो गई क्लांत
शांत, निर्भ्रांत, स्थिर
चाँद का अक़्स
आने लगा नज़र
अपने ही भीतर।
-0-
सुन्दर रचना, एवं भावाभिव्यक्ति, बधाई, शुभकामना
ReplyDeleteकविता भट्ट
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-06-2015) को "बनाओ अपनी पगडंडी और चुनो मंज़िल" {चर्चा अंक-2007} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुन्दर ,मोहक प्रस्तुति ...हार्दिक बधाई अनिता जी !
ReplyDeleteखूबसूरत रचना अनीता जी....बधाई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteअनिता जी अभिनन्दन!
सुंदर रचना... अनीता मण्डा जी !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई!
~सादर
अनिता ललित
आप सभी का दिल से आभार।
ReplyDeleteअनिता मण्डा की 'चाँद' कविता में भाव-सौन्दर्य के साथ भाषा का चयन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। बधाई !
ReplyDeleteडॉ सतीशराज पुष्करणा , पटना
अनीता मंड जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteBhavpurn rachna bahut bahut badhai...
ReplyDeletesunder v bhaavpurn!....hardik badhai anita ji .
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteकुलदेवी
मनमोहक पंक्तियाँ...हार्दिक बधाई...|
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