पुष्पा मेहरा
1
चारों ओर निस्तब्धता छाई है,रोशनी की छींटें लिये वाहन ठिठकते बढ़े जा रहे
हैं । मरकरी लाइट सिकुड़ी पड़ी
अँधेरा हरने में असमर्थ है, परिंदे भी दुबके पड़े दूर-दूर तक दिखाई
नहीं देते, रेत की आँधी सा घना अंधकार बिखेरता
कोहरा धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। यह लो!
टप-टप-टप करते उसके कण नीचे बिछने लगे, वे तो बिछते ही जा रहे हैं, धरती भीगती जा रही है, नम हो रहा है उसका
हृदयाकाश ।
एक मात्र धरती ही तो है जिसका
अंतस पीड़ा व सुख समाने की शक्ति रखता है। चारों ओर मौन मुखर होने लगा, उसने कुहासे के सिहरते क्रंदन को सुना, पल भी न लगा,शीत से काँपते हाथों से अपना आँचल
फैला उसे सहेज लिया।कोहरा झड़ता रहा,धरा के वक्ष में समाता रहा।
ममता की पराकाष्ठा ही तो व्याप रही थी सर्वत्र ।
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2
पत्ता ही तो था, आम्र-विटप की हिमाघात सहती वृद्ध शाखा
से जुड़ा उसकी व्यथा-कथा बाँच रहा था कि अचानक काँपता, लड़खड़ाता, भयभीत पवन उससे आ टकराया । डाल अशक्त थी, पत्ता भी अशक्त था , हवा की टक्कर सह ना
सका,काँपता, कराहता नीचे आ गिरा। गिरते समय उसने आवाज़ दी पर मैंने सुनी-अनसुनी कर दी। जब
ध्यान गया वह तो भूमि पर निश्चेष्ट पड़ा था, अब वह शीत, स्पर्श और भय से मुक्त था।
देखा तो आवाक् थी मैं - यह धरती
ही तो थी जो उसे हृदय से लगाये पड़ी थी ।
उसे नहीं पता था कि जो चला गया वह वापस नहीं लौटता। किंतु सच तो यह भी है कि जाता कुछ भी नहीं। शायद
गया आये, शायद क्यों वह तो अवश्य आयेगा। इसी
सोच में डूबी माँ निज पीड़ा भूल वृक्ष को निहार रही है।
उसे विश्वास है कि उसकी आवाज़ ऋतु-डाकिया अवश्य
सुनेगा, जो गया वापस आएगा और उसकी आस
पूरेगा।
देखो तो कोहरा छँटने लगा, भोर ने अपना मुख खोल दिया, सतरंगी बहनें नीचे उतर माँ को पुचकार रही हैं , आरती के स्वरों में भौंरे गुनगुना रहे हैं, तितलियाँ रंग-बिरंगे वस्त्र पहन नाच रही हैं, श्यामल पर्ण -दल सज गये, सौरभ-कुंजों में कोकिल स्वर गूँज रहा है , मन-मंजरी फूल रही है, जीवन फूट रहा है, नवरंग बरसने लगा, शृंगार ही शृंगार, सर्वत्र शृंगार, धरती, गगन, और क्षितिज विभोर हो उठे हैं ।
आस विश्वास में बदल रही है
और विश्वास सत्य में।
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सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-12-2014) को पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मनोमुग्धकारी ! अनुपम !!
ReplyDeleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
बहुत सुन्दर । लय ताल सा अनूठा
ReplyDeleteeak alag hi mithaas liye pyaari si rachna... aadarniy pushpa ji ko sadar naman ke saath - saath nav varsh ki shubhkaamnaye .
ReplyDeleteबेहद अनुपम तरीके से कही गई माँ की ममता बरबस मन गीला कर गई...| भावपूर्ण लेखनी के लिए बहुत बधाई...|
ReplyDelete२८ दिसम्बर२०१४ को प्रकाशित मेरी पोस्ट को २४ दिसम्बर२०१५ को पढ़कर आपने अपनी प्रतिक्रिया दी उससे मेरा मन आपकी खोजी प्रवृति का प्रशंसक हो गया, वास्तव में अतीत कभी-कभी या यूँ कहूँ सदा ही अपनी ओर खींचता है ,आपको धन्यवाद |
ReplyDeleteपुष्पा मेहरा