रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
निर्जल घाटी के सीने पर
आखर लिख दिये प्यास के ।
जंगल में भी शीश उठाकर
खिल गए फूल पलाश के ।
निर्गन्ध कहकरके ठुकराया
मन की पीर नही जानी
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी
इसकी भी साथी थी खुशबू
दिन थे कभी मधुमास के ।
पाग आग की सिर पर बाँधे
कितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।
यह योगी का बाना पहने
बस्ती में आता कैसे ?
कितना दिल में राग रचा है
सबको बतलाता कैसे ?
जल गए अंकुर आस के ।
इसकी पीड़ा एकाकी थी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल
न बुझी प्यास मिली जो इसको
न बीते दिन बनवास के ।
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[फोटो:गूगल से साभार]
व्यथा का बहुत सुंदर वर्णन......
ReplyDeletenih shabd hu mai sir.badhaai.
ReplyDeleteगीत के रूप में एक बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ! बधाई !
ReplyDeleteपाग आग की सिर पर बाँधे
ReplyDeleteकितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।
bhavon ki unchai shbdon ke badal pr savar .
kya sunder geet hai lajavab .
palash pr likha ek uttam geet
saader
rachana
बहुत सुंदर कविता आपका बहुत शुक्रिया साझा करने के लिए
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .....
ReplyDeleteपलाश के फूल खिल गए थे जंगल में...योगी का बाना पहने.... मगर .. प्यास न बुझी...न संन्यास के दिन बीते..
कितना सुंदर वर्णन है पलाश के फूल का !
पलाश की पीढ़ा की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति पहली बार पढ़ी। बहुत अच्छा लिखते हैं आप। इसी तरह और भी रचनाएं देते रहें।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना पलाश के फूलों पर ..
ReplyDeleteनिर्गन्ध कहकरके ठुकराया
ReplyDeleteमन की पीर नही जानी
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी...........
itni khubsurati se palaash ki antaraatmaa ko laakar shabdon men savana hai ki tareef ke liye shabd hi nahi bache....bahut hi khubsurat andaaj kahne ka...aapki lekhni ko dheron badhai...
प्रणाम !
ReplyDeleteमन पुलकित हो गया गीत पढ़ कर ! बेहद सुंदर ! बधाई !
सादर !
पाग आग की सिर पर बाँधे
ReplyDeleteकितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।
इनकी व्यथा कवि मन ही जान सकता है। बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं व्यथा को भी। बधाई इस रचना के लिये।
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! बेहद पसंद आया!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
धोखा इसने जग से खाया
ReplyDeleteजल गए अंकुर आस के ।
इसकी पीड़ा एकाकी थी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल
न बुझी प्यास मिली जो इसको
न बीते दिन बनवास के ।
bahut hi achhi rachna..badhai..
mere bhi blog me aaye..
www.pradip13m.blogspot.com
पाग आग की सिर पर बाँधे
ReplyDeleteकितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है
hriday ko cheer, nikali hai peer... palaash ko kavi ne aasuon se seencha hai...
पीड़ा की अभि्व्यक्ति बहुत ही सुंदर ढंग से की गई है ।
ReplyDeleteसुधा भार्गव
निर्गन्ध कहकरके ठुकराया
ReplyDeleteमन की पीर नही जानी
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी...
इसकी पीड़ा एकाकी थी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल...
पलाश का फूल...क्या महसूस होता है जब कोई ठुकरा दिया जाता है और वह अपनी मनोव्यथा बता भी नहीं पाता...???
बहुत मार्मिक और सुन्दर अभिव्यक्ति...मेरी बधाई स्वीकारे और साथ ही इतनी सुन्दर रचना हमारे साथ सांझा करने के लिए धन्यवाद भी...|
निर्जल घाटी के सीने पर
ReplyDeleteआखर लिख दिये प्यास के ।
पाग आग की सिर पर बाँधे
भावपूर्ण अभिव्यक्ति...आखर प्यास के और पाग आग की बहुत ही सुन्दर प्रयोग है...
बहुत सुंदर गीत है पलाश के फूलों के माध्यम से पीढ़ा को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है सादर,
ReplyDeleteअमिता कौंडल
पलाश के फूलों के माध्यम से वर्णित व्यथा का अति सुंदर चित्रण ।
ReplyDeleteपलाश के फूलों के माध्यम से व्यथा का अति सुंदर चित्रण । आप से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ऐसी अभिलाषा है ।
ReplyDeleteपलाश के फूलों के माध्यम से व्यथा का अति सुंदर चित्रण । आप से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ऐसी अभिलाषा है ।
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