मुक्तक
बघनखे पहनए हुए, पुरोहित अपने गाँव के ।
शूल अब गड़ने लगे हैं अधिक अपने पाँव के ।
दूर तक है रेत और गर्म हवा के थपेड़े
यहाँ पहुँच झुलसे सभी साथी ठण्डी छाँव के ।-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बघनखे पहनए हुए, पुरोहित अपने गाँव के ।
शूल अब गड़ने लगे हैं अधिक अपने पाँव के ।
दूर तक है रेत और गर्म हवा के थपेड़े
यहाँ पहुँच झुलसे सभी साथी ठण्डी छाँव के ।-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बढ़िया मुक्तक है रामेश्वर जी!!
ReplyDeletenanhi si panktiyon men bahut gahari bat kahi hai aapne bahut2 badhai...
ReplyDeletemeri vapasi ho chuki hai blog par padhiyega nayi post dali hai...
मुक्तक तथा बाकी लघुकथायें भी पढी, सच में आपके लेखन में गंभीर बात को भी सहजता से कह जाने की क्षमता है , वह सराहनीय है ।
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