रुबाइयाँ-मुक्तक
चित्रांकन :डॉ अवधेश मिश्र
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
7
सारा हिज़ाब लाकर क़दमों पे तेरे धर दूँ ।
तेरी सादगी में रंग अपनी वफ़ा का भर दूँ ॥
मेरी मासूम मुहब्बत का ताज़महल तुम हो ।
मेरे संग चलो जो पलभर मशहूर तुमको कर दूँ ॥
8
मैं गिरकर फिर सँभल गया हूँ ।
या रब ! कितना बदल गया हूँ ॥
इक अर्सा हुए उनके दिल से ।
ख़ार की तरह निकल गया हूँ ॥
9 (मुक्तक)
ख़लवतों में भी किया है याद तुझको ,
दर्द की तरह कभी दिल में बसाया ।
पलकों में छुपे तुम कभी आँसू बनकर,
कभी-कभी मुझे सदियों तक रुलाया ॥
10
छाया ये आलम कैसा बेख़ुदी का ।
छुट गया अचानक हाथ ज़िन्दग़ी का ।
वफ़ा करने पर भी मिले दोस्त बेवफ़ा
ये कौन –सा तरीका निकाला बन्दग़ी का ॥
11
मेरी तमन्नाओं का तू आखीर बन जा ।
फूटी ही सही ,मेरी तक़दीर बन जा ॥
नाज़ करूँ तुझ पर मैं दिल में बसाके ।
दर्द को जगा दे तू वो पीर बन जा ॥
12
मग़रूर को सज़दा कभी करता नहीं हूँ ।
डगमगाता हूँ ज़रूर मगर गिरता नहीं हूँ ॥
चलो साथ तुम ये तुम्हारी खुशी है ।
इन्तज़ार किसीका कभी करता नहीं हूँ ॥
13
ज़िन्दग़ी इक टूटा हुआ साज़ है ।
मौत इसके नग़मों का आगाज़ है ॥
हँसना और रोना ,तरतीबे-अनासिर-
की राह में क़दमों की आवाज़ है ॥
14
छूटा जो तेरा हाथ इस दिल पे क्या गुज़री ।
देखा जो रुख़े-रौशन महफ़िल पे क्या गुज़री ॥
राह की धूल हम थे तुम दामन बचाके निकले।
किससे पता ये पूछूँ मेरे क़ातिल पे क्या गुज़री है ॥
15
जला ले चिराग़ रौशनी के लिए ।
लगा ले कोई दाग़ ज़िन्दग़ी के लिए ॥
हमसफ़र ग़र नहीं तो क्या हो गया ?
साया ही बहुत आदमी के लिए ॥
16
जिसने न तुझको देखा वो नज़र नज़र नहीं ।
तेरे सिवा इस दिल पे किसी का असर नही॥
मुझको न आई जिस दिन बेरहम याद तेरी।
वो शाम नहीं थी शाम वो सहर सहर नहीं ॥
बेहतरीन मुक्तक। बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन...।
ReplyDeleteमैं गिरकर फिर सँभल गया हूँ ।
ReplyDeleteया रब ! कितना बदल गया हूँ ॥
इक अर्सा हुए उनके दिल से ।
ख़ार की तरह निकल गया हूँ ॥
ati sunder, jeevan ke agni path par chalne ka moolmantr
Devi Nangrani