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|         Written by यशवंत        सिंह            | |
|         TUESDAY, 30 SEPTEMBER 2008        15:52  | |
|         आलोक तोमर        का साक्षात्कार हिन्दी की साक्षात्कार विधा का उत्कृष्ट उदाहरण है ।        स्पष्टवादिता ने इसमें और चार चाँद लागा दिए हैं ।साहित्यशास्त्र के        विद्यार्थियों को इसका गहराई से अध्ययन करना चाहिए। दु:ख की बात यह है कि        शिक्षा एवं सामान्य सुविधाओं से आज भी जनसाधारण बहुत दूर है ।उसके लिए सोचने        वाले कम हैं ;सोचने का दिखावा करन्ने वाले बहुत ज़्यादा । -रामेश्वर        काम्बोज 'हिमांशु' हमारा हीरो - आलोक        तोमर आलोक तोमर। नाम ही काफी है। हिंदी        हिंदी मीडिया के इस हीरो से विस्तार        से बातचीत की भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत        सिंह ने। बातचीत कई चक्र में        हुई और कई जगहों पर हुई। रेस्टोरेंट        में, कार में, चाय की दुकान पर। इतनी        कुछ बातें निकलीं कि उन्हें एक पेज में समेट पाना संभव नहीं        हो पा रहा। इंटरव्यू दो पार्ट में दिया जा रहा है।        पाठकों ने जो सवाल पूछे हैं, आलोक ने        उनके भी जवाब दिए हैं। पेश है        संपूर्ण साक्षात्कार-  -शुरुआत बचपन के दिन        और  पढ़ाई-लिखाई से कीजिए        । --27 दिसंबर सन 60 को चंबल घाटी के भिंड        में पैदा हुआ। मुरैना जिले के गाँव रछेड़ का रहने        वाला हूँ। इसी जिले में महिला डाकू पुतली बाई और        क्रांतिकारी राम प्रसाद        बिस्मिल भी पैदा हुए        थे। मातृसत्तात्मक परिवार है        मेरा। माताजी एम ए और बी एड करने वाली इलाके की पहली महिला हैं। पिता जी आठवीं पास        थे। माँ ने उन्हें एक तरह से मार-मार के पढ़ाया। माता जी जिस स्कूल में प्रिंसिपल        थीं, वहां पिताजी टीचर बने।        मेरे परिवार में भी बागी रहे हैं। हमारे यहां डाकुओं        को सगर्व बागी बोलते हैं। लाखन        सिंह तोमर खानदान के हिसाब से        दादाजी के मौसेरे भाई थे; जो जाने माने बागी थे। प्राइमरी से लेकर        ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भिंड में की। घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल होने और माँ-पिता के        टीचर होने का फायदा यह हुआ कि मुझे सीधे कक्षा चार में एडमिशन दिलाया गया और        17 साल की उम्र में ही भिंड        के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया महाविद्यालय से वर्ष        1978 में बीएससी कंप्लीट कर        लिया। माँ-पिता डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए जबरन बायोलाजी        पढ़वाया। बैच का सबसे जूनियर छात्र था। पढ़ाई के साथ खेती भी करता था।        21 किमी साइकिल        से चलकर खेत पहुँचता था।        रात में अक्सर खेत के पास वाले ट्यूबवेल की        छत पर ही सोते थे और सुबह उठकर        ट्यूबवेल की मोटी धार के पानी से नहाते थे। कलेवा बन के आता था तो पेट पूजा हो        जाती थी। कोर्स से हटकर किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मां-पिता के पोलिटिकल        साइंस में पढ़े होने से अरस्तू, कांट्स, सुकरात आदि को पढ़ गया था और        लोकतंत्र, साम्राज्यवाद व साम्यवाद        के बारे में जानने लगा था। घर        में वीर अर्जुन और हिंदुस्तान अखबार आते थे। इन दोनों का नियमित पाठक था। मेरी एक        दीदी एमए हिंदी से कर रहीं थीं तो उनसे शेखर        एक जीवनी पढ़ने को मिला तो मैं        अज्ञेय का मुरीद हो        गया। अज्ञेय की अन्य        किताबों के लिए भिंड शहर के गोल मार्केट        लाइब्रेरी पहुंचा।        वहां से अपने-अपने अजनबी को घर        लाकर पढ़ा। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा जीतता था। कह सकते हैं, बकवास करने की आदत बचपन        से है। मेरे        नानाजी ठाकुर पुत्तू        सिंह चौहान  अपने जमाने की मशहूर        पत्रिका सरस्वती के संपादक मंडल में थे। इसके चलते मां को बेहतर शिक्षा मिली और वे        खूब पढ़ीं। मां की भाषा बहुत अच्छी        है। हालांकि उनको अंग्रेजी        अच्छी नहीं आती थी ;लेकिन मुझे अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने के लिए जी-जान से जुटी रहती        थीं। शायद उन्हें यह अंदाजा हो गया था कि आगे आने वाले समय में अंग्रेजी की        उपयोगिता ज्यादा है।         मां-पिता की इच्छा के अनुरूप मुझे डाक्टर बनने के लिए पीएमटी की परीक्षा        देनी थी पर उम्र परीक्षा में शामिल होने की हुई नहीं। इसी दौरान धर्मयुग का एक अंक हाथ में पड़        गया। बाद में इस पत्रिका के कई        अंक पढ़े। उदयन        शर्मा और एसपी सिंह का लिखा बहुत पढ़ता था।        तभी समझ में आया कि लिखना भी कोई विधा है। उदयन शर्मा मेरे मानस        गुरु और एक तरह से प्रेरणा बनने लगे।रविवार में उदयन जी का लिखा        बहुत पढ़ा। उन्हें पत्र लिखने लगा। छपने के लिए कुछ        लिखकर भेजने लगा। उदयन जी का जवाब आया कि निबंध की शैली में नहीं, रिपोर्ट की शैली में        लिखो। भिंड की लाइब्रेरी में एक बार नवभारत टाइम्स देखा तो        उसमें टाइम्स आफ        इंडिया प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए        वैकेन्सी निकली थी। मैंने भर दिया। नभाटा वालों ने शायद भिंड को मुंबई के पास समझा और        मुझे टेस्ट के लिए मुंबई आफिस बुला लिया। घर वालों को बोला कि मैं ग्वालियर जा रहा हूं        और निकल पड़ा मुंबई के लिए। तब मुझे रेल में        रिजर्वेशन भी होता है, यह मुझे पता नहीं था। तब        मेरी उम्र 18 की नहीं हुई थी। पंजाब        मेल के जनरल डिब्बे में बैठकर मुंबई गया। बीच में मेरे जूते गायब हो चुके        थे। नंगे पांव स्टेशन पर उतरा। 12 रुपये में प्लास्टिक        के चप्पल खरीदे। शुक्र यह        रहा कि नभाटा आफिस बा्म्बे वीटी के सामने ही था। मेरा हुलिया देखकर पहले तो दरबान ने        मुझे घुसने नहीं दिया लेकिन जब उसे टेस्ट के लिए लेटर वगैरह दिखाया तो अविश्वास के        साथ और घूरते हुए मुझे बेमन से अंदर जाने दिया। तब मेरा नाम हुआ करता        था आलोक कुमार सिंह        तोमर 'पतझर'। इसी नाम से धर्मयुग        में गीत लिखने लगा था। नभाटा में रिटेन टेस्ट दिया और संयोग से टाप कर        गया। मेरा इंटरव्यू डा. धर्मवीर        भारती, राम तरनेजा और फिल्म        अभिनेता राजेंद्र कुमार        ने लिया।        डा. भारती बोले        कि तुम अभी        18 के नहीं हुए हो और नौकरी        देने का मतलब है कि बाल श्रम का आरोप लगना। तुम हम        लोगों को जेल में बंद करवाओगे! मैंने कहा        कि देर        से पैदा होने पर मेरा क्या        कसूर। आखिरकार उन लोगों ने        मुझे नहीं लिया क्योंकि कानूनन यह संभव नहीं था।        मुझे लौटने का किराया दिलवा दिया। ग्वालियर लौटा तो अखबार में काम करने का कीड़ा        अंदर पैदा हो चुका था। चंबल        वाणी, स्वदेश, भास्कर आदि अखबारों के दफ्तर के        चक्कर लगाने लगा।  संघ की आइडियोलाजी        वाले अखबार दैनिक स्वदेश के        संपादक राजेंद्र        शर्मा हुआ करते        थे। उन्होंने मुझे प्रूफ        रीडर पद पर 175 रुपये की तनख्वाह पर        भर्ती कर लिया। तीन माह बाद पीटीआई और यूएनआई की        खबरों के हिंदी अनुवाद की मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे फ्रंट पेज का प्रभारी        बना दिया गया और तनख्वाह कर दी गई 350 रुपये। मैंने कहा कि मुझे इस        अखबार में लेख भी लिखना है। पर मेरी उम्र का हवाला देते हुए और कम अध्ययन        होने की आशंका व्यक्त करते हुए मना कर दिया गया। उसी दौरान एक घटना हुई।        मुरैना के एक गाँव के स्कूल में विषाक्त दलिया खाकर 23 बच्चे मर गए। इस घटना को        दबा दिया गया था। उस समय अर्जुन सिंह  एमपी के सीएम        हुआ करते थे। तत्कालीन विधायक के मुंह से इस घटना के दबाए जाने के बारे में        एक जगह मैंने सुन लिया। मैं उस गांव गया और सबसे बातचीत की और फ्रंट पेज पर छाप        दिया। जनसंघ तब विपक्ष में था और यह अखबार भी उसी के विचारधारा का था। विधानसभा में        हंगामा मच गया। अर्जुन सिंह ने डीएम से फोन पर पूछा तो डीएम ने बता दिया कि जिस गांव        में घटना होने की बात बताई जा रही है, उस गांव का        तो अस्तित्व ही नहीं है। मतलब स्टोरी        को फर्जी करार दिया गया। मैं फिर गांव पहुंचा और उस गांव के सरकारी पशु        चिकित्सालय, खाद्य निगम आफिस आदि के        डिटेल और गांव के उन परिजनों की तस्वीरें जिनके बच्चे        नहीं रहे,  इकट्ठा कर फिर फ्रंट पेज        पर प्रकाशित किया। तब 72 प्वाइंट लीड की सबसे        बड़ी हेडिंग होती थी। उसके ऊपर के फ़ॉण्ट        के लिए बड़े पोस्टर वाले फ़ॉण्ट         का इस्तेमाल करना होता था। ये        स्टोरी बड़े पोस्टर वाले फ़ॉण्ट  में 108 प्वाइंट में प्रकाशित        हुई। मुख्यमंत्री झूठ        बोलते हैं हेडिंग और आलोक कुमार सिंह        तोमरकी बाइलाइन के        साथ स्टोरी प्रकाशित हुई।        फिर तो इतना हंगामा हुआ कि अर्जुन सिंह को गांव आना पड़ा। तब पहली बार किसी सीएम या        मंत्री को नजदीक से देखा था। अर्जुन सिंह से मुझे मिलवाया गया तो मैं डरता हुआ        पहुंचा था कि जाने अब क्या होगा। अर्जुन सिंह को जब बताया गया कि यही आलोक कुमार सिंह        तोमर हैं तो उन्होंने लगभग 18 साल के ''बच्चे'' को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले         कि यह जज्बा और हिम्मत काबिले-तारीफ है। वे मुझे अपने साथ हेलीकाप्टर में बिठाकर        उस गांव ले गए। तब पहली बार हेलीकाप्टर में बैठा था और सीएम के साथ वाले लोग मुझसे        उस गांव का रास्ता पूछ रहे थे पर ऊपर से गांव का रास्ता मुझे सूझ ही नहीं रहा        था। -आप बता रहे थे कि घरवाले        डाक्टर बनाना चाहते थे और आपने पत्रकारिता शुरू कर दी।        घरवालों ने आपको यूं ही पत्रकारिता करने दिया? --घर में मुझे डंडा पड़        चुका था पीएमटी छोड़ने के लिए। मेरे लेखन के        प्रशंसक बढ़ने लगे थे तो मुझे लगने लगा कि अब मुझे लिखने पढ़ने का काम ही करना है और हर        हाल में पत्रकार बनना है। एक बार तो दो सिपाही आए और डिप्टी एसपी साहब बुला        रहे हैं, कह कर साथ ले गए। पहुँचा        तो पता चला कि डिप्टी एसपी साहब को मेरी छपी        कविताएँ और रिपोर्ट अच्छी लगती थी सो उन्होंने शाबासी देने और        आगे इसी तरह लिखते रहने की        नसीहत देने के लिए बुलवाया है। डाक्टरी के सपने को तोड़ने के बाद मैंने एमए हिंदी        साहित्य में एडमिशन ले लिया था। -आपने पहली स्टोरी ब्रेक        की और सीएम तक हिल गए। दूसरी बड़ी स्टोरी क्या ब्रेक        की। --एक बार रछेड़ इलाके के        भिडोसा  गांव में शादी में गया        था। वहां देखा कि एक लंबे से        व्यक्ति को लोग बहुत ज्यादा सम्मान दे रहे हैं और उसका खास ध्यान रख रहे हैं। मुझे        भी उत्सुकता हुई। पता चला कि वे मशहूर बागी पान सिंह तोमर        हैं जो कभी बाधा दौड़ में        टोक्यो एशियाड में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके        हैं। मतलब, एक अंतर्राष्ट्रीय        खिलाड़ी बागी बन गया। हां, एक चीज बताना भूल गया। उन        दिनों मैं यूनीवार्ता का पार्ट टाइम स्टिंगर भी बन चुका था। मैंने पान सिंह तोमर से        बातचीत  करने के बाद उनके खिलाड़ी से बागी बनने की यात्रा पर यूनीवार्ता के लिए आठ        टेक में स्टोरी फाइल कर दी। देश के सभी बड़े हिंदी अंग्रेजी अखबारों ने इस        स्टोरी को फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया। स्टोरी छपने के बाद एमजे        अकबर और उदयन        शर्मा  सरीखे लोग पान        सिंह तोमर के इंटरव्यू के लिए        आए। माध्यम बना मैं। बाद में इन्होंने जो स्टोरी लिखी तो अपने नाम के साथ मेरा        नाम भी जोड़ा। संयुक्त बाइलाइन गई।        मतलब MJ Akbar with Alok। उदयन शर्मा / आलोक        तोमर। इससे दिल्ली        में मेरी पहचान        बढ़ी। -पान सिंह तोमर की स्टोरी        के जरिए दिल्ली की पत्रकारिता में एक तरह से आपके नाम का        प्रवेश हो चुका था। दिल्ली यात्रा कैसे हुई? --उन दिनों दिल्ली        में दैनिक        हिंदुस्तान की संपादक हुआ करती        थीं शीला        झुनझुनवाला। मैंने इस अखबार के        संपादकीय पेज के लिए एक लेख        भेजा- क्या भारत अणु बम         बनाए। तब पोखरण एक हो        चुका था। मेरा लेख संपादकीय        पेज पर मुख्य आर्टिकल के रूप में प्रकाशित हुआ। शीला जी की चिट्ठी भी        आई,  लिखते रहिए        के अनुरोध के साथ। मैं        विज्ञान आधारित लेखों के फटाफट छपने को देखते हुए अपनी        विज्ञान की पढ़ाई का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान लेखक बनने की ओर  बढ़ चला। दैनिक        हिंदुस्तान में लगातार छपने लगा। उन्हीं दिनों एमए का रिजल्ट आया। 70 फीसदी नंबर हिंदी में आए        जो एक रिकार्ड बना। और इससे रिकार्ड टूटा अटल बिहारी        वाजपेयी का जो ग्वालियर के        इसी महारानी लक्ष्मीबाई        महाविद्यालय के हिंदी के        छात्र  रहे थे और उन्होंने तब        59 प्रतिशत अंक हिंदी में        पाकर रिकार्ड बनाया था। तब इसका नाम विक्टोरिया कॉलेज था। मेरे बारे में तब        अखबारों में छपा,आलोक तोमर        का सुयश शीर्षक के साथ। इसमें        मेरी फोटो भी छपी। एमए टाप करने के बाद मेरी अस्थायी नौकरी महिलाओं        के कालेज में लग गई। इस कालेज में जिन्हें मैं पढ़ाता वो मुझसे बड़ी लड़कियां और        औरतें हुआ करती थीं। मैं जब उनके सामने विद्यापति, बिहारी, देव, जायसी के लिखे        शृंगार की व्याख्या करता तो वे        मुझे हूट कर देती थीं। यहां        तनख्वाह 1600 रुपये थे जो बहुत अच्छी        थी पर लड़कियों-औरतों के इस व्यवहार से मैंने नौकरी        छोड़ दी और फिर स्वदेश में आ गया।  इन्हीं दिनों में        मैंने एक आफ बीट        विषय, जो मुझे हमेशा से पसंद        रहे हैं पर स्टोरी की। अटल जी के बचपन व उनके कालेज        पर, बगैर अटल जी को पेश किए।        अटल जी तब भी महान नेता हुआ करते थे। स्वदेश के पहले संपादक        भी वही थे। यह स्टोरी अटल जी को दिखाई गई। जब वे आए तो मुझे नाम लेके बुलाया और पीठ        ठोंकी। तब मेरी तनख्वाह 450 रुपये हुआ करती थी जिसे        बढ़ाकर 500 रुपये कर दिया        गया। उन दिनों मैं        और प्रभात        झा स्वदेश अखबार के        रील वाले कमरे में ही सो        जाते थे। प्रभात झा अब सांसद हैं। इसी बात पर याद आ रहा है मेरे तीन रुम पार्टनर इन        दिनों सांसद हैं। प्रभात        झा, राजीव शुक्ला और संजय        निरुपम। स्वदेश में रहते हुए        टीओआई के लिए एक बार फिर टेस्ट        दिया था जिसमें पास हो गया पर अप्वायंटमेंट लेटर स्वदेश के पते पर आया तो मुझे मिला        ही नहीं। इस तरह टीओआई में कभी काम नहीं कर पाया। ग्वालियर में मुझे लगने लगा        था कि अब इस शहर में मेरा निबाह        नहीं होगा। सीमाएं छोटी महसूस होने लगीं। जितना        करना, बनना, पाना था वो हो चुका था।        स्वदेश में 1978 से 81 लास्ट तक रहा। सरकारी नौकरी        करनी नहीं थी, डाक्टर बनना नहीं था।        ऑफिस  से साइकिल खरीदने के लिए एडवांस मांगा और        1981 लास्ट में दिल्ली आ गया।        मेरे मित्र         हरीश पाठक दिल्ली प्रेस में नौकरी        करते थे। वे कालेज के मेरे सीनियर थे। दिल्ली में स्टेशन पर उतरा तो        आटो वाले ने निजामुद्दीन से आरके पुरम संगम सिनेमा के पीछे का 70 रुपये किराया उस जमाने        में ले लिया। दिल्ली में हिंदुस्तान की संपादक शीला जी, माया के ब्यूरो चीफ        भूपेंद्र कुमार स्नेही, दिल्ली प्रेस वालों        से, यूएनआई के शरद द्विवेदी जी से        मिला। नौकरी के लिए भटकता रहा। यूएनआई के शरद द्विवेदी        जी ने कुछ लिखकर दिखाने के        लिए कहा। बाहर निकला तो        प्यास लगी थी। पानी वाले से 5 पैसा प्रति गिलास के        हिसाब से पानी पीने लगा। उससे        बातचीत भी करने लगा। एक गिलास पानी पिलाने से मिले 5 पैसे में उसे कितना लाभ होता        है, पूछने लगा। बातचीत काफी        हो गई तो लगा कि ये तो स्टोरी है। आकाशवाणी के सामने        रिजर्व बैंक की सीढ़ियों पर बैठकर प्यास बुझाने वाला        खुद ही        प्यासा शीर्षक से पूरी स्टोरी        लिख दी। उस बंदे को पांच पैसे में से सिर्फ आधे पैसे ही लाभ        के रूप में मिलते थे। शरद जी ने देखा और स्टोरी को अपने पास रख लिया। वहां से        अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी चला गया जो मेरा फेवरिट अड्डा था। इस लाइब्रेरी से रिफरेंस        बुक मिल जाया करती थीं और उन्हें पढ़कर - टीपकर माया और हिंदुस्तान टाइम्स में        विज्ञान विषयों पर लिखा करता था। यहां से निकला तो देखा कि सांध्य टाइम्स में बाटम        स्टोरी छपी है- वार्ता से रिलीज। स्टोरी मेरी पानी वाली थी। मैं दौड़ते हुए शरद        द्विवेदी जी के पास पहुंचा। मैंने इस स्टोरी के मेहनताने की मांग की। उन्होंने कहा        कि अभी लोगे तो कम रुपये मिलेंगे, अगले दिन        लोगे, जब स्टोरी कहां कहां छपी        है, इसकी इम्पेक्ट         रिपोर्ट आ जाएगी, तो ज्यादा जगहों पर छपने        से हो सकता है ज्यादा रुपये        मिल जाएंगे। मैंने अपनी जेब की ओर देखा, 10 रुपये थे, आज का काम चल        जाएगा, सो उनसे मैंने कल लेने        को कह दिया। और अगले दिन 250 रुपये मिले।        इस तरह से खून मुंह लग गया।        मैं स्थायी लेखक रख लिया गया। जब मेरा महीने का भुगतान ज्यादा होने लगा तो मुझे        ट्रेनी जर्नलिस्ट रख लिया गया। यहां से नौकरी किस तरह गई, वो भी मजेदार घटना है।        खेल के मामले में मैं शून्य था और हूं। भले ही मैं प्रभाष        जोशी का शिष्य हूं तो क्या।        उन दिनों मैं नाइट शिफ्ट लेता था क्योंकि दिन में        दूसरे अखबारों मैग्जीनों के लिए लिखता था और लाइब्रेरी में पढ़ाई करता था। एक दिन        नींद के झोंके में खेल की एक खबर का अनुवाद करने में मर चुके एक खिलाड़ी से शतक बनवा        दिया। अगले दिन कई अखबारों से शिकायत आई और मैं नौकरी से निकाल दिया गया। एक बार        फिर सड़क पर आ गया। यूएनआई की नौकरी के दौरान ही हरिशंकर        व्यास से मुलाकात हुई थी        जिन्होंने जनसत्ता के जल्द प्रकाशन शुरू होने की        जानकारी दी थी। यह बात सन 83 की है। मैंने संपर्क        किया तो मेरा टेस्ट हुआ और इसमें        टॉप कर गया। इंटरव्यू में सेकेंड पोजीशन पर आया। जनसत्ता में ट्रेनी उप संपादक रख        लिया गया। पर मैं फैल गया कि मैं रिपोर्टर बनूंगा। व्यास जी ने मुझे रिपोर्टर        बनवाया। तब राम बहादुर        राय चीफ रिपोर्टर        थे। मुझे क्राइम रिपोर्टिंग        पसंद थी। प्रभाष जोशी जी को मेरा लिखा पसंद आता था, मेरी पीठ ठोंकते थे।        31 अक्टूबर सन 84 की बात है। रोजाना की        तरह पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर किसी नए वारदात        की सूचना के बारे में जानकारी के लिए फोन मिलाया। जानकारी मिली की पीएम हाउस में        गोली चली है, तुगलक रोड थाने से पता        कर लीजिए। थाने फोन किया तो वहां से सपाट तरीके        से बताया गया कि इंदिरा गांधी मर लीं कबकी, लाश लेने गए        हैं सब लोग। मैं उस        समय चौधरी        चरण और देवीलाल के पास गया हुआ था।        वहीं शरद        यादव भी थे। उस वक्त मेरे पास        पैसे नहीं थे। मैंने शरद यादव से        50 रुपये मांगे और भागा।        पहले प्रभाष जी को फोन किया। उनका कहना था कि गोली की बात तो        सही है पर मौत हुई या नहीं, यह कनफर्म नहीं है।        मैंने उन्हें मृत्यु की पुष्ट जानकारी        दी। प्रभाष जोशी जी ने जनसत्ता का स्पेशल इशू निकालने        की तैयारी कर ली। मैं एम्स        गया, सारी जानकारियां इकट्ठी        की और फोन पर ही खबरें बोलीं। मैं खबर लिखते समय कभी        फाइव डब्लू और वन एच से शुरुआत नहीं करता। मैंने इंट्रो        लिखा या बोला- आज दो हत्याएं हुईं। एक        इंदिरा गांधी की। एक मनुष्य पर मनुष्य के विश्वास        की। चूंकि बाडीगार्डों ने        गोली मारी थी इसलिए एक तरह से विश्वास की हत्या की गई थी।        जनसत्ता का यह स्पेशल इशू ब्लैक में बिका। बाद में दंगे शुरू        हुए तो रो-रो के खबरें लिखता        था क्योंकि जो कुछ सामने देखा था, वो बेहद भयावह था।        उन दिनों मेरी उम्र        22 की रही होगी। यह टर्निंग        प्वाइंट था मेरे लिए। सरदारों के बीच मैं बेहद लोकप्रिय हुआ        क्योंकि मैंने उनका पक्ष लिया था। बाद में उन लोगों ने सरोपा वगैरह भेंटकर मुझे        सम्मानित किया। जब एनबीटी में एसपी सिंह        और रविवार में उदयन शर्मा संपादक बने तो दोनों ने        नौकरी के लिए मुझे बुलाया पर प्रभाष जी ने जाने नहीं दिया। उनका वचन मेरे लिए पत्थर        की लकीर है क्योंकि वे पिता तुल्य हैं। हिंदी मीडिया के आज तक के इतिहास में        संपूर्ण संपादक अगर कोई हुआ है तो वे प्रभाष जोशी ही हैं। एसपी सिंह, उदयन शर्मा और राजेंद्र        माथुर के साथ कई अच्छाइयां हैं पर सबमें कोई न कोई एक ऐसी चीज रही जिसके चलते        उन्हें कंप्लीट एडीटर नहीं कहा जा सकता। एसपी सिंह के लिए, श्रद्धापूर्वक        कहूँगा कि खबरों की उन जैसी समझ        कहीं नही देखी, उन्होंने        पत्रकारिता को पूरी एक पीढी दी। जब        रविवार में जाने से मैंने मना किया तो राजीव शुक्ला के पास आफर आया और वे जनसत्ता        छोड़कर रविवार चले गए। बाद में मुझे चीफ रिपोर्टर बना दिया गया। 23 के उम्र में यह        जिम्मेदारी मेरे लिए बड़ी थी। टीम में सभी लोग उम्र में सीनियर थे, सब अंकल की उम्र के थे।        मैं अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर नहीं हूं। सारा काम मेरे सिर पर आ जाता था।        चीफ रिपोर्टरी बहुत दिन चली नहीं। प्रभाष जी ने मुझे 6 साल में 7 प्रमोशन दिए। सहायक        संपादक / स्पेशल करेस्पांडेंट के रूप में काम किया। उन्हीं दिनों (सन्        1993 में) एक घटना घटी जिसके        चलते प्रभाष जोशी जी ने मुझे जनसत्ता से बाहर कर दिया        और मैं फिर सड़क पर आ गया था। मेरे पासवर्ड का इस्तेमाल करके किसी ने मेरे        आफिस के कंप्यूटर से        साहित्यकार गिरिराज किशोर के एक आर्टिकल का संपादन        कर उसका अर्थ ही उल्टा कर दिया था। यह एक साजिश थी। बाद में इसकी        जांच कराई गई तो कारनामा मेरे कंप्यूटर से हुआ पाया गया और प्रभाष जी ने मुझे बाहर        कर दिया। हालांकि उन्होंने कृपा यह की कि समयावधि न होने के बावजूद ग्रेच्युटी        दिलवाई, केके बिड़ला फाउंडेशन        फेलोशिप दिलवाई। चंद्रा        स्वामी से डेढ़ लाख रुपये        लेकर मैंने शब्दार्थ फीचर एजेंसी शुरू की।        मैं इसे स्वीकार करता हूं कि मैंने चंद्रास्वामी से        फीचर एजेंसी खोलने के लिए पैसे मांगे थे और उन्होंने अपने दराज में हाथ डालकर पचास        पचास हजार की तीन गड्डियाँ सामने रख दी        थीं। फीचर एजेंसी का काम चल निकला था। तब        तक शादी हो चुकी थी। बेटी थी। बाद में सन 2000 में इंटरनेट न्यूज        एजेंसी डेटलाइन        इंडिया नाम से शुरू कर दी। टीवी        में भी काफी काम किया। जी न्यूज और        आज तक में रहा। टीवी पर चुनाव के विशेष प्रोग्राम करता रहा। -आपने जैन टीवी के मालिक        जेके जैन को एक बार पीटा था, क्या यह सही        है? --हां यह सही है। आज तक        छोड़कर जैन टीवी चला आया था। यहां स्थितियां ठीक नहीं थी तो छोड़        दिया। तनख्वाह के पैसे नहीं दे रहे थे तो एक बार अशोका होटल में जैन मिल गए। उन्हें        पीटा। वे बीजेपी से टिकट लेकर चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्हें टिकट नहीं मिलने        दिया। डा. जेके        जैन सर्जन तो अच्छा है पर        आदमी बुरा है। मैंने तय कर        लिया है कि जब तक मैं जीवित हूं उसे किसी बड़ी पार्टी की टिकट नहीं मिलने दूंगा चुनाव        लड़ने के लिए। -आप        एस1 चैनल और सीनियर इंडिया        मैग्जीन में रहे। वहां से भी आप निकाल गए        थे? --मैंने जहां भी नौकरी की        वहां से अमूमन निकाला ही गया। अलका सक्सेना  मेरी तबसे दोस्त हैं        जबसे वे दो चोटियां बांधती थीं। उनके कहने पर एस1 के विजय        दीक्षित ने राजनैतिक संपादक        बना दिया। यहीं पर मैंने        मैग्जीन निकालने का आइडिया दिया। हालांकि सीनियर इंडिया नाम मुझे पसंद नहीं था        पर दीक्षित जी इस नाम को पहले ही बुक कराकर बैठे थे। इसी मैग्जीन        में एक स्टोरी छपी जिसमें बताया गया था कि तत्कालीन दिल्ली पुलिस के         आयुक्त के के        पाल के बेटे अमित        पाल जो सुप्रीम कोर्ट में वकालत        करते हैं, वे कोर्ट में उन        अपराधियों का डिफेंस करते हैं जिन्हें केके पाल        के निर्देश पर दिल्ली पुलिस        पकड़ती है। केके पाल ने मिलने के लिए बुलवाया।        बाद में धमकाने लगे। मैं उनके धमकाने में आने के बजाय इसी विषय पर एक नई स्टोरी के        लिए कई सवाल फैक्स कर उनसे जवाब मांगा। वो फैक्स एक अपराधी अपने हाथ में लेकर मेरे        आफिस मुझे ही धमकाने आ गया। तो इसी पर एक स्टोरी छाप दी गई कि सरकारी करेस्पांडेंट        अपराधी ले के आया। केके पाल की नजर मेरे पर तिरछी थी। उसी समय डेनिश कार्टून को हम        लोगों ने मैग्जीन में प्रकाशित कर दिया और केके पाल को मुद्दा मिल गया।        उन्होंने मुझे उठवा लिया। मुझे तिहाड़ में हाई सिक्योरिटी जिसे        काल कोठरी भी कहते        हैं, में यह कहकर रख दिया गया        कि जेल में मुसलमान ज्यादा हैं इसलिए मेरी जान को खतरा हो        सकता है। मुझे जेल भेजे जाने के बाद साथियों और सीनियरों ने अदालत जा कर सरकार पर        दबाव बनाया। इंटरनेशनल प्रेसर भी क्रिएट होने लगा। बाद में जमानत पर बाहर आया। उसके        बाद की ही बात है कि मैं और मेरी पत्नी रायपुर से आ रहे थे। रायपुर में हम लोगों        ने राज्यपाल के साथ नाश्ता किया था, सीएम के साथ लंच        किया और मैंने डिनर अकेले        हवालात में किया। धारा 420 के साथ एक पुराना केस चल        रहा था, उसमें केके पाल की कृपा        से एक बयान के आधार पर पुलिस ने मुझे अरेस्ट कर लिया। हालांकि पहली पेशी के        साथ ही यह केस खत्म हो गया। सच कहूं तो प्रतिष्ठान की दंड मूलक विडंबनाएं अभी भी        भुगत रहा हूं। 
 --जब मैं ग्वालियर में        एम ए प्रीवियस में था तो कस        के प्रेम किया। प्रेम कविताएं लिखीं। वो        मेरे से जूनियर थीं। बंगाली लुक लगती थीं। उनकी जिद थी कि मैं सरकारी नौकरी करूं        तभी वो शादी करेंगी। वो नवगीत में पीएचडी लिख रही थीं। बाद में उन्होंने शादी किसी        और से की। आजकल वो प्रोफेसर हैं। इसके भी पहले, किशोरावस्था में मैंने        फिल्म गुड्डी देखी थी।        इसमें जया जी मुझे बेहद भा गईं। मासूम        चेहरा और ओस से भीगी आवाज़। मैं उनसे प्रेम करने लगा। उन्हें प्रेम        में डूबी एक लंबी चिट्ठी भी लिख भेजी। मैंने तय कर लिया था कि जया जी        से ही शादी करूंगा। जया जी        से शादी के लिए मैंने बंगाली सीखने का ठानी। बंगाली रैपिडेक्स ग्रामर        कोर्स खरीदकर सीखने की शुरुआत भी कर दी। बाद में पता चला कि जया जी से मेरी शादी        नहीं हो सकती। हालांकि तब भी मैंने तय कर लिया था कि मैं जया जी जैसी या उनसे        सुंदर लड़की से ही शादी करूंगा। और किया भी।        सुप्रिया, मेरी पत्नी, बंगाली हैं        और, यह मैं जया जी को भी बता        चुका हूँ की उनसे सौ गुना ज्यादा खूबसूरत हैं। उनसे मैंने        प्रेम किया और शादी की। दिल्ली आने पर जो पहली दोस्त बनी वो भी बंगाली।        नाम- शर्मिष्ठा जो विदेश        मंत्री प्रणव मुखर्जी की बेटी हैं। हम        दोनों साथ खूब घूमते थे।        बीअर, जिन, वोदका पीते रहते थे। हम दोनों ही        स्वभाव के यायावर रहे। बाद में हम लोगों ने विश्लेषण किया कि हम दोनों अगर एक साथ        रहने लगें तो पट नहीं सकती क्योंकि दोनों का मिजाज        एक जैसा था। शर्मिष्ठा आज भी मेरे        घनिष्ठ मित्रों में से एक हैं। वे कथक की बेहतरीन डांसर हैं। -आपने सुप्रिया से शादी        की। उनसे मुलाकात कैसे हुई। शादी कैसे संभव हो        पाई। --सुप्रिया दिल्ली प्रेस में काम        करती थीं। असाध्य रूप से सुंदर थीं और        हैं। दिल्ली प्रेस में उनके एक साथी उन पर मर मिटे थे। वे साथी सुप्रिया को लेकर मेरे        पास आए इंप्रेशन झाड़ने के लिए। इतवार का दिन था। दिल्ली में बम विस्फोट होने के चलते        आफिस में काम ज्यादा था इसलिए मैं उन लोगों से बातचीत कम कर पाया और काम में        ज्यादा उलझा रहा। नंगे पांव आफिस में इधर-उधर टहलता रहा। मैं आफिस में नंगे पांव ही        रहता था। मैं ठीक से सुप्रिया को तब देख  भी  नहीं पाया था। वे        बोलीं, सर आपके पास टाइम नहीं        है। मैं चल रही हूं। मैं उन्हें छोड़ने के        लिए बाहर आया और उनसे उनका नाम पूछा। उन्होंने बताया- सुप्रिया रॉय। मेरी तो        लाटरी खुल गयी। इतनी सुंदर कन्या, ऊपर से बंगाली। मैंने        उनसे अटकते हुए बांग्ला में        बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए उनसे बात न कर पाने के        लिए माफी मांगी। सुप्रिया का ताव और गुस्सा थोड़ा कम हुआ। सुप्रिया चली गईं पर        उनका सुंदर चेहरा मेरे चेहरे के सामने से हट नहीं रहा था। अगले दिन मैंने उन्हें उनके        आफिस फोन किया। उन्हें किसी बहाने बुलाना चाहता था, देखने के लिए। मैंने कहा कि        उस्ताद अमजद अली        खान का इंटरव्यू करने चलना        है, तुम भी साथ चलो। उस्ताद        अमजद अली खान मेरे मित्र थे। उनसे मैंने बता दिया था कि लड़की पटाने के लिए ला        रहा हूं, जरा मेरी झांकी जमा        देना। तीसरे, चौथे दिन फिर        फोन किया। मैंने उनसे कहा कि        हाफ डे लेकर आ जाओ। वो बोलीं कि नौकरी चली जाएगी। मैंने कहा कि नौकरी छोड़ के        चली आओ। वे आईं और उन्हें स्कूटर से प्रगति मैदान ले आया। मैंने उनसे एक वाक्य में        सवाल पूछा और कहा कि जवाब हां या ना में देना। मैंने पूछा कि क्या आप मुझसे शादी        करेंगी? वो जवाब हां या        ना में देने की बजाय आधे घंटे तक घुमाती रहीं।        बाद में बोलीं कि मां-पिता कहेंगे तो कर लूंगी। वहां से मैं सुप्रिया को लेकर गोल        मार्केट गया। वहां सुप्रिया की फोटो खिंचवाई और एक फोटो अम्मा के पास यह लिखकर भेजा कि        ये आपकी बहू बनेंगी। एक तस्वीर भूतपूर्व प्रेमिका को भेजा कि देखो, ये तुमसे ज्यादा सुंदर        हैं।  इसी बीच प्रभाष जी ने        मुझे जनसत्ता, मुंबई भेज दिया था। मैंने उनसे        सुप्रिया के दिल्ली में होने की बात कहते हुए मुंबई जाने से मना कर दिया तो        उन्होंने शादी करा देने की गारंटी देते हुए मुझे मुंबई जाने को कह दिया। बाद में प्रभाष        जी मेरे लिए सुप्रिया को मांगने की खातिर नारियल वगैरह लेकर सुप्रिया के        मां-पिता से मिले। उन्होंने मेरे बेहतर भविष्य की गारंटी दी और शादी के लाभ गिनाए।        उधर, मुंबई में मेरा मन नहीं        लग रहा था और मैं फिर दिल्ली भाग आया। शादी 1990 में हुई।          -गुड्डी में जया जी को        देखकर आप उनसे प्रेम करने लगे और प्रेम पत्र भी        लिखा, शादी तक का प्लान कर        डाला। क्या कभी ये बात जया बच्चन जी को बताई? --हां, बताई। केबीसी लिखने के लिए मुंबई में        था। कौन बनेगा करोड़पति उर्फ        केबीसी का नाम, इसके डायलाग...लाक कर        दिया जाए...आदि ये सब मेरा लिखा है।        हां, तो कह रहा था कि केबीसी        को लेकर अमित जी के घर पर मीटिंग में देर        रात तक  रहता था तो वहां जया        बच्च्न भी होती थीं। एक दिन उन्हें अकेले में बताया        कि आप से मैं कभी प्यार करता था और शादी करना चाहता था। साथ ही यह भी बताया कि जब यह        समझ में आया कि शादी नहीं हो सकती आपसे तो मैंने आपकी ही तरह किसी लड़की से शादी        करने की ठानी थी और ऐसा किया भी। इस पर जया जी ने सुप्रिया की तस्वीर मांगी। जब        उन्हें दी तो उनका कहना था कि सुप्रिया तो मुझसे ज्यादा सुंदर है। मुझे बेटी चाहिए थी        और बेटी मिली भी। बिटिया का नाम है मिष्टी।  | |
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-नूरा  जैसा  माफिया आपका दोस्त रहा है। आप दाऊद इब्राहिम,  छोटा  शकील,  छोटा  राजन जैसे  लोगों  से मिल चुके हैं। यह सब कैसे हुआ?
--जनसत्ता,  मुंबई  में था तो वहां सरकुलेशन वार शुरू हुआ। भइयों का  एक  गैंग  कृपाशंकर  सिंह  के  नेतृत्व में था। नभाटा वालों के कहने पर  गैंग  जनसत्ता मार्केट में जाने से पहले हाकरों से खरीदकर समुद्र में फेंक देता  था।  
इधर,  हम  लोगों के अखबार का सरकुलेशन लगातार बढ़ रहा था लेकिन  अखबार  समुद्र में मछलियां पढ़ रहीं थीं। इसी कोई वैधानिक हल नहीं दिखा तो  मैंने  नूरा  इब्राहिम  से  संपर्क निकाला। उससे मैंने नभाटा की कापियां  समुद्र  में फिंकवाना शुरू करा दिया। बात में नभाटा वालों से संधि हुई और यह  अखबार  फिंकवाने  का धंधा दोनों तरफ से बंद करने पर सहमति बनी। इसके बाद नूरा से दोस्ती  हो  गई।  कालीकट-शारजाह की जब   पहली  फ्लाइट शुरू हुई तो उसमें यात्रा करने के लिए मुझे  भी  न्योता मिला। शारजाह में सब कुछ नानवेज मिलता था और मैं ठहरा वेजीटीरियन।  वहां  शराब  पर पाबंदी थी और मैं उन दिनों था मदिरा प्रेमी। वहां मैंने अपने लिए अंडा  करी  मंगाया  तो उसमें भी हड्डी थी। मैंने नूरा को फोन किया। बगल में दुबई था। वहां से  एक  बड़ी  गाड़ी आई। उस जमाने में भारत में मारुति से बड़ी गाड़ी नहीं थी। वो जो  गाड़ी  आई  उसे  छोटा  राजन  ड्राइव  कर रहा था और उसमें  छोटा  शकील  बैठा  था। मैं उनके साथ गया। दुबई में  दाऊद  इब्राहिम  से  मुलाकात हुई। यहां यह साफ कर दूं कि ये बातें मुंबई ब्लास्ट के पहले की  हैं।  दाऊद  ने मुझे एंस्वरिंग मशीन भेंट की। मैं मोबाइल फोन और इंस्ट्रूमेंट का शौकीन  था।  मैंने  दाऊद से मुलाकात और उससे बातचीत के आधार पर जो रिपोर्ट दी वह जनसत्ता  और  इंडियन  एक्सप्रेस दोनों में फ्रंट पेज पर छपी। मैं बहुत सारे माफियाओं से मिल  चुका  हूं।  चंबल के डाकू,  मुंबई  के भाई,  दिल्ली  के दीवान देवराज...। ये सब बेहद विनम्रता  से  ''भाई  साहब-भाई साहब''  कहकर  बात करते हैं।  
-आपके  जीवन में कभी ऐसा भी क्षण आया  जब आपको अंदर से डर  लगा  हो?
--अपने  पर मुझे  अति-आत्मविश्वास  है। मेरे शुभचिंतक हमेशा मेरे काम आए। एक बार मेरा एक्सीडेंट हुआ  और  पूरी रात बेहोश पड़ा रहा। मेरे मित्र ही मेरे काम आए। एक बार थोड़ा डर तब लगा  था  जब   वीपी  सिंह  पीएम  थे और मेरे घर आ धमके थे। उनके खिलाफ मैंने  बहुत  लिखा था। प्रभाष जी ने जो संपादकीय लोकतंत्र दे रखा था उसके चलते हम लोग  ऐसा  कर  पाते थे। एक पीएम जिसके खिलाफ आप लिखते रहते हों,  अपने  लाव लश्कर के साथ घर आ  धमके  तो पहली नजर में मामला कुछ गड़बड़ नजर आता है। मेरी चिंता यह थी कि घरवालों  को  कोई  दिक्कत न हो जाए। यह भय एक पीएम के आने का था। मेरा भय गलत था। वे सिर्फ  मिलने  आए  थे।  
-अपने  करियर की सबसे बेहतरीन रिपोर्टिंग आप किसे मानते  हैं?
--कालाहांडी  पर  अकाल को लेकर जो  लिखा  उसे मैं मानता हूं। उसी के बाद से कालाहांडी के सच को देश जान पाया। यह  इसलिए  कह  रहा हूं क्योंकि इसका इंपैक्ट हुआ और इसके बाद कालाहांडी के लोगों की जिंदगी  में  बदलाव  आने के लिए सरकारी और गैर सरकारी प्रयास शुरू हुए।  हरा  भरा  अकाल  शीर्षक  से कालाहांडी पर मेरी किताब है। कालाहांडी के बारे में मुझे  जानकारी  विदेश से मिली थी। मेरी एक दोस्त हैं जो हालीवुड में हैं। उनका लास  एंजिल्स  से  फोन आया और उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में पूछा था कि क्या भारत के उड़ीसा  में  'क्लेहांडी'  नामक  कोई जगह है जहां लोग भूख से  मरते हैं। वो देवी जी चंद्रास्वामी के  चक्कर  में मुझसे मिली थीं। उनका नाम है  जूलिया  राइट।  वे हालीवुड  की  ठीकठाक अभिनेत्री हैं। उनके इस सवाल का जवाब तलाशना शुरू किया तो कालाहांडी  का  सच  सामने आया।  
-आप  एक ऐसे पत्रकार हैं जो लेखन में बहुमुखी प्रतिभा के  धनी  हैं। विज्ञान से लेकर नृत्य-संगीत,  फिल्म  तक पर आपने काम किया है। जरा इस बारे  में  बताएं?
--मेरी  जितनी भी महिला मित्र हैं वे सब या रही हैं,  ज्यादातर-  नृत्य,  संगीत  और साहित्य के क्षेत्र की रहीं हैं। एक मित्र हैं  जयन्ती।  उस समय धर्मयुग में थीं। कोयल की तरह मीठी आवाज़ और बहुत  प्रतिभाशाली।  अब दिल्ली में हैं,  वनिता  की संपादक रह चुकीं हैं। मैं खजुराहो नृत्य  समारोह  का आफिसियल क्रिटिक रहा हूं। विज्ञान कथा की तरह फाइनेंसियल एक्सप्रेस  में  रेगुलर  क्रिटिक रहा हूं। कविताओं का प्रेमी हूं।  अग्निपथ,  खिलाड़ी,  जी  मंत्री  जी,  केबीसी  जैसे  सीरियल लिखे। ये सब रुटीन में चलता रहता है। जहां  से  जो मांग आती है उसके लिए काम करता हूं।  
-आगे  की क्या योजना है?
--टीवी  की जो भाषा है वो आजकल पत्रकारिता की भाषा हो गई है। उसको  सुधारने  का मौका मिलेगा तो काम करूंगा। मौका न मिला तो भी काम करूंगा। जैसा हम  बोलते  हैं वैसा ही लिखना चाहिए। टीवी की भाषा बहुत फूहड़ हो गई है। हालांकि भाषा  को  लेकर  लोग अब सजग होते भी दिख रहे हैं।  पुण्य  प्रसून  भाषा  और  सरोकार  से समझौता नहीं करते। वे इस वक्त आदर्श टीवी पत्रकार का प्रतिनिधित्व  करते  हैं।  प्रिंट में प्रभाष जी के बाद बहुत लोग हैं जो अच्छा लिखते हैं।  आशुतोष  बहुत  अच्छा लिखते हैं पर वे टीवी में चले गए।  मधुसूदन  आनंद  सटीक  और सीधा लिखते हैं।  मृणाल  जी  बहुत  अपाच्य  लिखती  हैं।  अभिषेक  श्रीवास्तव  और  कुमार  आनंद  अच्छा  लिख रहे हैं।  राजकिशोर  के  पास भाषा और कंटेंट  दोनों  हैं। कई अच्छी प्रतिभाएं टीवी में चली गईं। रह गए वे लोग जो इस चक्कर  में  अच्छा  नहीं लिख पाए की उन्हें टीवी में जाना है। वे  एसपी सिंह की भाषा याद नहीं  करते।
मेरी  निजी रुचि  राजनीतिक  खबरों में कतई नहीं है। मैं लोक हित के मुद्दों पर काम करना चाहता हूं।  राइट  टू एजुकेशन भारत के संविधान में नहीं है। डाक्टर ने दवा लिख दिया लेकिन  दवा  खरीदने  के लिए पैसा नहीं है। ये सब विषय हैं जिस पर काम करने का मन है। पर टीवी  से  ये  विषय खदेड़ दिए गए हैं।  इंडिया  टीवी  में  जब मैं था तो  रजत  शर्मा  से  मैंने एक स्टोरी पर काम करने के लिए जिक्र किया।  मामला  झाबुआ में एक परिवार के सभी सदस्यों का गरीबी के चलते आत्महत्या कर लेने  का  था।  तो रजत शर्मा ने कहा- ''झाबुआ  इज नाट ए टीआरपी टाउन।''  
मैं  यहां बता दूं कि टीवी में मेरा प्रवेश रजत शर्मा के चलते ही  हुआ  था। मुझे लगता है कि ये जो टीआरपी का तंत्र है उसे बदलना चाहिए। एक  पैरलल  टीआरपी  तंत्र विकसित करने की इच्छा है। इसकी टेक्नालाजी क्या हो,  मेथोडोलाजी  क्या  हो,  ये  सारे विषय अभी तय किए जाने हैं पर पैरलल टीआरपी सिस्टम को लेकर काम करना  है,  यह  तय है। जिस तरह सेंसर बोर्ड वाहियात फिल्मों पर नजर रखने के लिए हैं उसी तरह  अगर  मित्रों  की मंडली सार्थक खबरें बना सके,  पठनीय  बना सके तो ज्यादा उचित काम हो सकता  है।  यह करने की सोच है। एक खंडकाव्य लिखना चाहता हूं। दुष्यंत कुमार को लोग  उनकी  गजलों  के लिए जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने एक कंठ  विषपायी  नामक  एक खंड काव्य भी लिखा है। इस खंड काव्य की चार लाइनें शंकर जी पर हैं,  वे  इस  तरह  हैं-  विष  पीकर क्या पाया मैंने,  आत्म  निर्वासन और  प्रेयसी  वियोग।  हर  परंपरा के मरने का विष मुझे मिला,  हर  सूत्रपात का श्रेय ले गए और लोग।।  मुझे  तो ये लाइनें  उनकी  सारी गजलों पर भारी पड़ती दिखती हैं।  
-आप  जीवन में किनकी तरह बनना चाहते थे?
--मैं  उदयन शर्मा की तरह बनना चाहता था पर आज तक नहीं बन पाया।  
-राजनीति  में आपको कौन से लोग अच्छे लगते हैं और  क्यों?
--अटल  जी  को  मानवीय गुणों की वजह से सर्वश्रेष्ठ  राजनेता  मानता हूं।  अर्जुन  सिंह जी  से  परिचय उनके खिलाफ ख़बर  लिखने  से हुआ था,  मगर  पिता की तरह आज भी स्नेह देते हैं।  कमलनाथ  को  अच्छा नेता इसलिए मानता हूं कि वे दुनियादार और मेहनती हैं,  मेरे  दोस्त हैं।  रमन  सिंह  को  इसलिए मानता हूं क्योंकि उनके अंदर मानवीय सरोकार गजब  के  हैं। उन्हें आज तक ये भरोसा नहीं है कि वे सीएम बन गए हैं।  
-आपको  आगे किसी मीडिया हाउस की  तरफ से नौकरी करने के लिए  प्रस्ताव  आता है तो ज्वाइन करेंगे?
--नौकरी  नहीं करूंगा,  काम  करूंगा। ये काम भाषा के स्तर पर है,  ये  काम सरोकार के स्तर पर है। प्रभाष जी के बाद किसी ने भाषा को अपनी  संवेदनशीलता  से  छुआ नहीं।  
-दिल्ली  से लांच हो रहे नई दुनिया के बारे में आपकी क्या  धारणा  है?   इसका  भविष्य कैसा दिख रहा है?
--नई  दुनिया  नखदंत  विहीन शेर है। एक जमाने में  यह  पत्रकारिता का मानक था। अपोलो सर्कस अगर किसी शंकराचार्य से विज्ञापन करवा ले  तो  वह  तीर्थ नहीं बन जाएगा। संवाद,  विवाद,  अपवाद,  सरोकार...इन  सबसे कोई बचेगा तो वो  किस  बात का अखबार होगा।  आलोक  मेहता  हैं  इसलिए थोड़ी-बहुत उम्मीद  है।
-अब  कोई दूसरा आलोक तोमर नहीं दिखता,  ऐसा  क्यों?
--आलोक  तोमर इसलिए  मिले  क्योंकि प्रभाष जोशी थे। अच्छा गहना बनाने के लिए शिल्पी  चाहिए। दिल्ली  प्रेस  में  भर्ती हो जाता तो वहीं रह जाता। अगर प्रभाष जी नहीं मिले होते तो ये आलोक  तोमर  नहीं  होता। नाम मेरा जनसत्ता से हुआ। टीवी में संप्रेषण और अभिव्यक्ति की सीमा  है।  आपके  और आपके दर्शक के बीच में तकनीक है। फुटेज,  इनजस्ट,  साउंड  क्वालिटी,  विजुअल  क्वालिटी  ये सब ज्यादा प्रभावी हो जा रहे हैं। पुण्य प्रसून में जिस तरह का  रचनात्मक  अहंकार और दर्प है,  वो  अब बाकी लोगों में गायब होता दिख रहा है। लोग जहां  जाते  हैं,  वहां  वैसा लिखने लगते हैं। टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है। आज के  जमाने  में अगर  गणेश  शंकर विद्यार्थी,  पराड़कर  होते  और उनका  नवभारत व  हिंदुस्तान के लिए टेस्ट करा दिया जाता तो वे फेल कर दिए जाते। आज की  जो  हिंदी  पत्रकारिता है,  उसे  सुधारना है तो दूसरा प्रभाष जोशी चाहिए।  महात्मा  गांधी  से  बड़ा पत्रकार कौन है। उनके एक संपादकीय पर आंदोलन रुक जाया करते  थे।  मैं  हरिवंश  का  प्रभात  खबर  सब्सक्राइव  कर  मंगाता  हूं। वर्तमान में यह एक ऐसा अखबार है जिसमें सरोकार बाकी है। आजकल  पत्रकारों  से  ज्यादा समाज के बारे में निरक्षर कोई दूसरा नहीं है। अगर भारत में भूख के  बारे  में  लिखना है और नेट पर सर्च करेंगे तो विदेश के पेज खुलेंगे। कालाहांडी में भूख  से  मौत  के बारे में मेरे पास सूचना विदेश से आती है।  
-आप  अपनी कुछ कमियों के बारे में बताएं?
--सबसे  बड़ी कमी यह है कि मैं बहुत आलसी आदमी हूं। हिंदी टाइपिंग  बहुत  कोशिश के बाद भी आज तक नहीं सीख पाया,  ये  भी मेरी बहुत बड़ी कमी है। अपने  मां-पिता  को बहुत समय नहीं दे पाता,  यह  मेरी कमी है। मां नहीं होती तों मैं पत्रकार  नहीं  बन पाया होता। मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ और बोल पाता। मैं कभी पीआर नहीं कर  पाया,  ये  मेरी कमी है। अचानक दो साल बाद किसी काम से कोई याद आएगा तो फोन करता हूं  वरना  फोन  नहीं करता। ये मेरी कमी है। मैं नेटवर्किंग नहीं कर पाता। शराब की  कुख्याति  जुड़ी  हुई है मेरे साथ,  इसने  मेरा बड़ा नुकसान किया है।  
-आप  अपने को कितना सफल और असफल मानते हैं?
--मैं  अपने को सफल नहीं मानता।  पत्रकारिता  के बदलाव में मेरी भूमिका नहीं बन सकी। मैं एक नई शैली और सरोकार की  पत्रकारिता  को जन्म दे सकूं,  ये  मेरा इरादा था और है। पर अभी तक यह नहीं हो पाया।  नकवी,  रजत  शर्मा,  सबने  मुझे बुला कर मौका दिया। पर टीवी में मैं कुछ खास नहीं कर  पाया।  मेरी ग्रोथ बहुत पहले सन् 85-86  में  बंद हो चुकी थी। सन् 2000  तक  किसी तरह  सस्टेन  किया।  पायनियर,  बीबीसी,  वायस  आफ अमेरिका,  शाइनिंग  मिरर  (कैलीफोर्निया  का अखबार) जैसे अखबारों के साथ काम करने के बावजूद मैं इसे सफल  पारी नहीं  कह सकता। सफलता तो सापेक्ष होती है। इतना  कह सकते हैं कि मैंने  ट्वेंटी-ट्वेंटी अच्छे  से खेला,  टेस्ट  मैंच नहीं खेल पाया।  मेरे  कई मित्र बहुत  अच्छा  काम कर रहे हैं। अजीत अंजुम कबसे इतना मेहनत किए जा रहा है। उनकी मेहनत  करने  की  क्षमता देखकर मुझे ईर्ष्या होती है।  
-आप  दोस्ती कितना निभा पाते हैं?
--मुंहफट  होने की वजह से रिश्ते बिगाड़ता बहुत जल्दी हूं।  रविशंकर  जो  आजकल वीओआई में है,  एक्सप्रेस  के जमाने से मेरा दोस्त  है।  किसी बात पर झगड़ा हो गया।  जी  मंत्री जी  की  उसने समीक्षा लिखी  तो  मैंने फोन किया तो उसने कहा कि मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता,  तुम्हारा  काम  अच्छा  है इसकी तारीफ करता हूं पर तुमसे बात करना जरूरी नहीं है। इसी तरह  राजकिशोर  से  नहीं पटती। उनका लिखा मुझे अच्छा लगता है। अगर  राजकिशोर  और मुझको एक कमरे में बंद कर दो तो दोनों में से कोई एक ही बाहर  निकलेगा  और  जो बाहर निकलेगा वो मैं ही हूंगा।  
-आपको  किस चीज से घृणा होती है?
--हिंदी  पत्रकारिता में जो छदम आक्रामकता है,  उससे  मुझे घृणा है।  प्रो  एक्टिव जर्नलिज्म करनी है तो फिर सड़क पर आइए। हम लोगों ने भी आक्रामक  पत्रकारिता  की   है  और उसे सड़क पर आकर आखिर तक निभाया है। एक उदाहरण देना चाहूंगा।  न्यू  बैंक आफ इंडिया का आफिस जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में ही  था।  इस  बैंक के घपले और घोटाले के बारे में पता चला तो अखबार मालिकों के बिजनेस  के  इंट्रेस्ट  के होते हुए भी हम लोगों ने इनके खिलाफ खुलकर लिखा और साथ ही,  खुराना  और  वीपी  सिंह के जरिए लोकसभा में सवाल उठवाए। आखिरकार यह बैंक बंद कर दिया गया।  
-आपने  शराब  के  बारे में बताया कि इसने आपको कुख्याति दी है। कैसी कुख्याति?   शराब  को लेकर अब  क्या  दर्शन है?
--बहुत  दिनों से मैं शराब छोड़ चुका हूं। एम्स के डी-एडिक्शन  सेंटर  गया था। उन लोगों ने काफी सारी दवाइयां दीं लेकिन विल पावर हो तो दवाओं  की  कोई  जरूरत नहीं होती। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इस जन्म का कोटा मैं पूरा कर  चुका  हूं।  पर मैं अखबार में विज्ञापन देकर तो दुनियावालों को नहीं बता सकता न कि अब  मैं  शराब  छोड़कर शरीफ बन गया हूं,  आप  सब लोग मुझ पर विश्वास करो (हंसते  हुए)।  
शराब  को मैं बुराई नहीं मानता। शराब पीकर आदमी पारदर्शी हो जाता  है।  भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता है। शराबी से ज्यादा  ईमानदार  व्यक्ति कोई  दूसरा  नहीं होता। पर जिंदगी का जो कैलेंडर लेकर हम लोग आए हैं उसमें हमें तय   करना  होगा  कि हम शराब पीने और हैंगओवर उतारने में कितना समय दें। शराब से मेरे कई  बड़े  निजी  नुकसान हुए। राजीव शुक्ला की मैरिज एनीवरसरी उदयन शर्मा के घर पर थी। वहां  कई  दोस्त  मिल गए और जमकर पी गया। टुन्न होकर घर लौट रहा था। रास्ते में एक्सीडेंट  हो  गया।  पत्नी के माथे  पर 32  टांके  आए। इस घटना के लिए मैं अपने को कभी माफ नहीं कर  पाऊंगा।  
-कौन  सा ब्रांड आपका फेवरिट था?  
--मैं  व्हिस्की पीता नहीं। रम और वोदका पीता था। वोदका में फ्यूल  जो  लैटेस्ट ब्रांड था,  मेरा  फेवरिट था। स्थिति यह थी कि जिस होटल में मेरे लिए कमरा  बुक  होता था उसमें फ्यूल की बोतलें पहले से रख दी जाती थीं।  
-शराब  ने कुछ फायदे भी दिए होंगे?
--शराब  ने काफी कुछ दिया। शराब न पीता तो शर्मिष्ठा जैसी दोस्त न  मिली  होती। हम दोनों पार्टी में ही पहली बार मिले थे। शराब पीने के बाद ही एक  बार  पार्टी  खत्म होने पर  पदमा  सचदेव  और  सुरेंद्र  सिंह  जी  मिले,  इन  लोगों ने मुझे घर छोड़ा तो नशे की भावुकता में मैंने इनके पैर  छू  लिए। ये 20  साल  पुरानी घटना है। वो रिश्ता आज तक कायम है। ज्यादातर ब्रेक मुझे  दारू  की पार्टी में ही मिले। जनसत्ता से निकाले जाने के बाद दारू की पार्टी में  ही  कई  आफर मिले। सभी बड़े चैनलों के मालिकों ने वहीं आफर किए। दारू संपर्कशीलता  को  बढ़ाता  है बशर्ते आप संयम में रहें और दूसरे को पीने दें।   अटल  जी के  मैं बेहद  नजदीक  रहा,  अब  भी हूँ। यह रिश्ता कैसे घनिष्ठ हुआ,  यह  तो नहीं बताऊंगा पर उन्होंने  एक  दिन अपना प्रेस सलाहकार बनने  के लिए कहा तो मैंने साफ मना कर दिया कि मैं सरकारी  नौकरी  नहीं करूंगा। कई लोग जानते भी हैं कि अटल जी के लाल किले के पहले भाषण  को  मैंने  लिखा था। उसका एक डायलाग काफी हिट हुआ था जो पाकिस्तान के लिए कहा गया  था,   जंग  करना चाहते हैं तो आइए जंग ही कर लें,  लेकिन  ये जंग दोनों मुल्कों में  फैली बीमारियों  से होगी,  दोनों  मुल्कों में जड़ जमा चुकी दुश्वारियों से  होगी....।  गोवा  में एक बार बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक थी। वहां की एक  तस्वीर  पड़ी होगी हम लोगों के पास जिसमें अटल जी टीशर्ट और जींस पहने नारियल  पानी  पी  रहे हैं। यह भी पूरी एक कथा है जिसे बताना ठीक नहीं है।  
-आपके  उपर क्या क्या आरोप रहे हैं?  आप  खुद बता दें  तो  ज्यादा अच्छा।
--कई  आरोप रहे हैं। एक तो यही कि शराबी हूं। झूठ बोलने के आरोप  लगे।  परिचित की गर्लफ्रेंड छीनने का आरोप लगा।  
-आपको  कौन सी कविता या शेर या गजल या गीत सबसे ज्यादा  पसंद  है?
--दिनकर  जी की कुछ लाइनें मुझे बेहद पसंद हैं। वे इस तरह हैं-  अंधतम  के भाल पर पावक जलाता हूं। बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूं।  मर्त्य  मानव की विजय का तूर्य हूं मैं। उर्वशी,  अपने  समय का सूर्य हूं  मैं।
-आपको  सबसे ज्यादा संतुष्टि किस चीज में मिलती  है?
--अपनी  बेटी की मुस्कान देखकर संतोष होता है। डीपीएस से आकर जब वो  कहती  है कि मेरे यहां लालू यादव की भतीजी भी पढ़ती है और जब उनके पापा को पता  चला  कि  मैं आपकी बेटी हूं तो उन्होंने खुद को आपका मित्र बताते हुए मुझे  बेस्ट विशेज  दीं।  यह कहते हुए बेटी के चेहरे पर जो दर्प  और गर्व देखता हूं,  उससे  संतोष मिलता  है। इससे  बड़ी खुशी मेरे लिए कोई नहीं हो सकती।  
-आपको  दुख किस बात पर होता है?
--मेरे  घर में मेरा  कोई  अपना कमरा नहीं है। कमरे चार हैं। पर मेरा कमरा इन चारों में से कोई नहीं  है।  मुझे  हमेशा से एकांत अच्छा लगता रहा है। यहां घर में एकांत नहीं मिलता। बचपन  में  सीढ़ियों  के किनारे कोने में भंडरिया के कोने को ही अपना कोना मानकर उसी में  रहता  था।  बड़ा अच्छा लगता था। कम से कम यह एहसास तो होता था कि इतना कोना मेरा है।  मैं  कई  बार तब दुखी होता हूं जब मैं जो कहना चाहता हूं वह कह नहीं पाता और सामने  वाले  कुछ  और अर्थ निकाल लेते हैं। अंतर्मुखी स्वभाव है। देहाती आदमी हूं। कोशिश करता  हूं  कि  मैं जो सोच रहा हूं वही कहूं लेकिन कह नहीं पाता।  
-आलोक  तोमर को उनके न रहने पर किस लिए याद करें? आपकी  निजी  इच्छा क्या है?
--मुझे  अपने मां के बेटे के तौर पर और अपनी बेटी के पिता के तौर  पर  याद करें,  इससे  ज्यादा खुशी मुझे और किसी चीज में नहीं होगी। वैसे  जल्दी निपटने  वाला  नहीं...मेरी गुरबत पे  तरस खाने वालों मुझे माफ करो,  मैं  अभी जिंदा हूँ,  और  तुम  से  ज्यादा जिंदा। इन दिनों तो खैर गर्दिश में हूँ,  आसमान  का तारा हूँ।
-दिल्ली  के  पूर्व  पुलिस आयुक्त केके पाल से अदावत और उनके इशारे पर गढ़े गए डेनिश  कार्टून  मामले  ने आपके जीवन के सहज रूटीन को काफी दिनों से बाधित कर रखा है। इस मामले  में  आपकी  हिंदी पत्रकार जगत से क्या अपेक्षा है  और आगे की क्या रणनीति है?
--पहली  बात तो हिंदी मीडिया के साथियों से मदद नहीं मिल पा रही  है,  यह  सच है लेकिन यह भी सच है कि मुझे मदद की अपेक्षा भी नहीं। दरअसल कई  साथियों  को  तो मजे लेने का बहाना मिल गया है। मीडिया जगत के साथियों के ये विवेक पर  निर्भर  करता  है कि वे मदद करें या न करें। मैंने उनके कहने पर तो ये मामला शुरू नहीं  किया।  अकेले  लड़ लूंगा। दुष्यंत की लाइनें हैं-  हिम्मत  से सच कहो तो बुरा मानते  हैं  लोग,  रो-रो  के बात कहने की आदत नहीं रही /हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया,  हम  पर  किसी  खुदा की इनायत नहीं रही।  
डेनिश  कार्टून छापना या केके पाल से अदावत अगर कोई गलती थी तो ये  मेरी  गलती थी और इससे मैं खुद ही निपटूंगा। मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है।  जो  वकील  मेरा मामला देख रहे हैं,  दोस्त  बन गए हैं,  संजीव  झा  नाम  है  उनका।  मुझसे कभी फीस नहीं मांगी। हां,  इस  प्रकरण के चलते मुझे भी दिक्कतें आ रही  हैं।  आईआईएमसी के डायरेक्टर के तौर पर मेरा सब कुछ हो गया था लेकिन पुलिस  वेरीफिकेशन  में इस मामले के चलते रुकावट आ गई। नार्वे में एक प्रोग्राम के सिलसिले  में  निमंत्रण मिला था लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला। तो ये सब दिक्कतें आईं। सबसे  बड़ी  दिक्कत  मेरे परिजनों को तब हुई जब मैं तिहाड़ में था। मैं 12  दिन  जेल में रहा और  पत्नी  व बिटिया यह सोचकर परेशान थीं कि जेल में मेरे साथ जाने क्या क्या हो  रहा  होगा।  ये अलग बात है कि जेल में  पप्पू  यादव  मुझे  अंडे के पराठे  खिलाते  थे और बैडमिंटन खेलता था। पर उन लोगों ने तो फिल्मों की जेल देख रखी  है।  सोचते  होंगे कि मैं चक्की पीस रहा हूं। तो ये सोचकर जो मानसिक यातना मेरी बेटी  और  पत्नी  को हुई है,  उसके  लिए मैं केके पाल को कभी माफ नहीं कर सकता। केके पाल इन  दिनों  यूपीएससी का सदस्य है तो मैं यूजीसी की गवर्निंग बाडी का सदस्य हूं।  
सच्चे  क्षत्रिय और राजपूत की तरह कहता हूं-जो इसे जातिगत दर्प  मानें,  वे  ठेंगे से,  कि  केके  पाल के चलते मेरे परिजनों ने जो मानसिक यातना  झेली  है उसका बदला मैं न्याय की सीमा में लूंगा। मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा  जब  तक  वे अपने कर्मों के लिए दंडित नहीं होते।  
-आलोक  जी,  आपको  बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने इतना वक्त दिया।  
--धन्यवाद।    
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