पथ के साथी

Saturday, June 28, 2025

1471

 धरती: स्मृति में धड़कता जीवन/ डॉ . पूनम चौधरी

 


 

धरती —

ना किसी रेखा से बँधी,

ना किसी शब्द में बसी —

वह करुणा है,

जो हर वज्राघात के बाद भी

शरण देने को तत्पर रहती है।

 

धरती —

कोई ज्यामितीय गोला नहीं,

बल्कि स्मृति का एक जीवंत आवास है,

एक नम वक्ष —

जिस पर जीवन बार-बार

सिर रखकर विश्रांति खोजता है।

 

धरती —

गणनाओं से परे

एक अधूरी प्रार्थना है,

जो हर बीज में

अपने उत्तर की प्रतीक्षा करती है।

 

वह शून्य में नहीं,

मनुष्यता की धड़कनों में बसती है —

जैसे कोई माँ,

जो हर साँझ दीप जलाकर

दरवाज़ा खुला छोड़ देती है।

 

उसकी चुप्पी,

अवज्ञा नहीं —

संयम का दीर्घ संकल्प है।

वह इसीलिए नहीं बोलती,

क्योंकि वह निभा रही है

बोलने से बड़ा धर्म —

धारण का, और बचाव का।

 

धरती —

जननी है,

और मृत्यु के बाद भी

विसर्जन करती है —

जैसे कोई निर्बंध गोद,

जो जीवन के अंतिम कंपन तक

थामे रहती है।

 

उसकी हरीतिमा

कोरी सजावट नहीं —

वह सहनशीलता से उपजा सौंदर्य है,

जो ताप और तुषार को

एक ही संवेदना से ओढ़ लेता है।

 

जब वृक्ष कटते हैं,

वह विरोध नहीं करती —

बल्कि मौन चुनती है,

 

जैसे किसी साध्वी की

दीर्घ मौन तपस्या,

जो हर आघात को

आत्मा में विलीन कर

शब्दों से परे चली गई हो।

 

धरती पर चलना —

एक मौन उत्तरदायित्व है,

जो हर बार पूछता है:

क्या तुम केवल लेने आए हो

या कुछ लौटाओगे भी?

 

धरती को छूना

जैसे किसी स्मृति-शिला को छूना है —

आभार...

अथवा अतिक्रमण।

मध्य कुछ नहीं।

 

धरती की छाती में

अब भी स्पंदन है,

पर वह आनंद का नहीं —

एक बोझिल उत्तरदायित्व का,

जो हर बार

उसे चुप रहकर निभाना पड़ता है।

 

हमने उसे मापा,

बाँटा,

काटा,

बेच दिया —

पर कभी

समझा नहीं।

 

धरती केवल भोग्या नहीं —

वह शताब्दियों की

मौन स्तुति है,

जो आँखों से नहीं,

अंतःकरण से पढ़ी जाती है।

 

जब भी निराशा घेर ले मन को,

तो चल पड़िए नंगे पाँव

हरी दूब पर —

या बैठ जाइए

किसी पुरातन वटवृक्ष की छाया में।

 

आप सुन पाएँगे —

धरती आज भी बोलती है,

शब्दों में नहीं,

संवेदना में।

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Friday, June 27, 2025

1470

 

गाँव  में क्या रखा है 

सुरभि डागर 

 


 

 गाँव  में रखा ही क्या है 

छुपा रखा है एक माना 

लोग कहते हैं गाँव  में क्या रखा है 

गाँव  में मेरे बचपन की सुनहरी यादें 

गर्मी में तारों की छाँव में लगी मच्छरदानी।

बिस्तर पर दादी विजना डुलाती

साथ में सुनाती  कहानी ।

सुनते-सुनते  कहानी न जाने 

मैं कब सो जाती।

रूठने पर माँ ,दादी मुझे मनाती

अपने हाथों से निवाला खिलाती

उस वक्त को तलाशता मेरा मन

लोग कहते हैं पुराने वक्त में क्या रखा है

गाँव  की मिट्टी में बसा है मेरा बचपन

लोग कहते हैं गाँव  में क्या रखा है 

घर से राह में  झाँकते  झरोखे ,

कहीं नीम की ठंडी हवा के थे झोंके

चौपाल में होते थे दादा,ताऊ,चाचा

घर के मुखिया और काका।

कुओं से वहता ,वरहो में पानी

पेड़ों पर आम से भरी होती डाली,

खेतों की छटा होती थी निराली

पगडंडियों पर घूमती थी घसियारी

पुराने बक्सों को तलाशती मेरीआँखे,

उन पुराने बक्सों में बन्द है एक माना।

लोग कहते हैं गाँव  में क्या रखा है 

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Friday, June 13, 2025

1469

 

तन्हाई -  कृष्णा वर्मा 

 

तन्हाई से घिरा पूछता हूँ स्वयं से

क्यों हैं इतनी तन्हाई

जिसे आए दिन पीता हूँ 

प्रतिदिन जीता हूँ 

टूटन समेटकर  

सपनों की परेशानियाँ धोकर 

अपने हिस्से का रोकर 

उजले कपड़े पहनकर 

चेहरे पर मुस्कान ओढ़कर

वजूद के दाएँ-बाएँ देखकर 

पूछता हूँ आइने से

बता तो क्या आज कोई ऐसी नज़र पड़ेगी 

जो बन जाएगी मेरे अधूरेपन का तोड़

खिलाएगी जीवन में फूल

कोई ऐसी राह कोई जीने की उम्मीद

कोई लुहारिन जो काट देगी 

तन्हायों की साँकल

आईना बोला- शायद पक्का नहीं कह सकता 

पर कोशिश करके देख लो 

अपने सपनों और स्वप्नफल को 

आशाओं के बस्ते में रखकर 

चाहतों के जुगनू आँखों में सजाकर 

टाँगकर काँधे पर बस्ता 

लगाता हूँ घर की तन्हाइयों पर ताला 

बाहर निकलकर 

मेरी सुनसान दुनिया से अंजान 

मेरे मिलने वाले जानकारों से मिलता हूँ

अपनी सूनी आँखें चमकार 

अकेलेपन की पीड़ा दबाकर 

सन्नाटों को छुपाकर  

होठों पर मुस्कान सजाकर 

दोहराता हूँ प्रतिदिन यही क्रिया

लाख ना चाहूँ फिर भी हो जाता हूँ रोज़ 

इस दुनिया की भीड़ का एक हिस्सा।   

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