रश्मि विभा त्रिपाठी
1
मुट्ठी से सरक रहे
रेत सरीखे अब
रिश्ते यों दरक रहे।
2
आँसू की धार बही
हमको रिश्तों की
जब भी दरकार रही।
3
फिर नींद नहीं आई
हमने जब जानी
रिश्तों की सच्चाई।
4
बनकर तेरे अपने
लोग दिखाएँगे
केवल झूठे सपने।
5
किसका मन पिघल रहा?
इंसाँ ही अब तो
इंसाँ को निगल रहा!
6
जग से कुछ ना कहना
जग है सौदाई
चुपके हर गम सहना।
7
देखा तुमने मुड़के
जाते वक्त हमें
हम जाने क्यों हुड़के।
8
दो दिन का मेला है
जीवन बेशक पर
हर वक्त झमेला है।
9
घबराता अब दिल है
रिश्ते- नातों से
हमको यह हासिल है।
-0-
बहुत सुंदर और सार्थक बात. हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसहज साहित्य में मेरे माहिया को स्थान देने हेतु आदरणीय गुरुवर का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteआदरणीय विजय जोशी जी की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
सार्थक माहिया
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक लिखा है आपने।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको।
बहुत सुंदर माहिया।हार्दिक बधाई रश्मि जी।
ReplyDeleteसंबंधों पर आधारित बहुत सुंदर माहिया । हार्दिक बधाई रश्मि जी ।
ReplyDeleteविभा
बहुत ही सुंदर एवं सार्थक माहिया। एक से बढ़कर एक । हार्दिक बधाई रश्मि जी ।सुदर्शन रत्नाकर
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ReplyDeleteदो दिन का मेला है
जीवन बेशक पर
हर वक्त झमेला है।.... सभी माहिया वेदना और करुणा जागृत करने वाले....भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति... बधाई रश्मि जी
रश्मि जी सभी माहिया बहुत सुंदर भावों से प्रेरित हैं । हार्दिक बधाई स्वीकारें। सविता अग्रवाल “ सवि”
ReplyDeleteआप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...हार्दिक बधाई रश्मि जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर माहिया रचे हैं रश्मि जी, हार्दिक बधाई!
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