प्रियंका गुप्ता
मैं
लिखना
चाहती हूँ
चन्द
पंक्तियाँ
उन
स्त्रियों के बारे में
जो
खोई हुई हैं-
गुँथे हुए आटे में,
कपड़ों
में,
बन्द
संदूकची के तालों में,
मकड़ी
के जालों में...
स्त्रियाँ-
जो
कभी कभी
ढूँढ
लेती हैं
अपने
बच्चों के बस्ते में
छुपे-
दबे अपने बचपन को-
जो
तभी
कुकर
से आती
सीटी की आवाज़ से चौंककर
फिर
लुका जाता है
सिंक
के जूठे बर्तनों में...
मैं
लिखना चाहती हूँ
कुछ
पंक्तियाँ
खोए
हुए वजूद वाली
औरतों
के लिए
पर
सच तो ये है
कि
वजूद
मिल भी जाए तो क्या?
उन्हें
ओढ़ने के लिए
औरतें
कहाँ मिलेंगी...?
बहुत ही सुन्दर बहुत मार्मिक कविता लिखी है अपने प्रियंका मैम।💐
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट रचना के लिए ह्रृदय से बधाई प्रियंका गुप्ता जी
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना...हार्दिक बधाई प्रियंका जी।
ReplyDeleteसंवेदनाओं से पूर्ण सुंदर रचना। बधाई प्रियंका जी।
ReplyDeleteसादर
भावना
सबसे पहले आदरणीय काम्बोज जी का आभार जिन्होंने मेरी इस रचना को यहाँ स्थान दिया...|
ReplyDeleteआप सभी का दिल से शुक्रिया इतनी प्यारी प्यारी टिप्पणियों द्वारा मेरा उत्साहवर्द्धन करने के लिए...|
वाह वज़ूद भी तलाशना ही होगा
ReplyDeleteबेहतरीन रचना ,प्रियंका जी
ReplyDeleteदुखती रग पर कलम रख दी आपने.
ReplyDeleteवास्तव में सहज कविता. सरल अभिव्यक्ति.
वाह्ह्ह्ह बेहद भावपूर्ण सराहनीय रचनाएँ।
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही खूबसूरत रचना ! सच है उन औरतों ने खुद ही अपने वजूद को नकार दिया है! सार्थक सृजन !
ReplyDeleteसंवेदनशील पंक्तियां
ReplyDeleteबहुत खूब प्रियंका
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ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रियंका जी !