पथ के साथी

Friday, July 10, 2015

हमारे गाँव में



रमेश गौतम के तीन नवगीत
1
हमारे गाँव में
कब से
ठगों के काफिले ठहरे

नमन कर सूर्य को
जब भी
शुरू यात्राएँ  करते हैं
अजब दुर्भाग्य है
अपना
अँधेरे साथ चलते हैं

विसंगति सुन
नहीं सकते
यहाँ सब कान हैं बहरे

चिराग़ों से
खुली रिश्वत
हवाएँ  रोज लेती हैं
सभाएँ  रात की
दिन को
सजा-ए-मौत देती हैं

यहाँ दफ़ना
दिए जाते
उजाले अब बहुत गहरे

हथेली देखकर
कहना
बहुत टेढ़ी लकीरे हैं
सुना तकदीर
के किस्से
कलेजे रोज चीरे हैं

निकल सकते
नहीं बाहर
बड़े संगीन हैं पहरे ।

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2
देवदूत
कैसे उपलब्ध हो
छाँव तनिक
राजा के छत्र की

जप-तप-व्रत
मंत्र-तंत्र
पूजागृह- प्रार्थना
माथे न टाँक सके
उज्ज्वल संभावना
अधरों न धर पाईं
सीपियाँ
एक बूँद स्वाति नक्षत्र की

भूल गए कच्चे घर
गाँव, गली-गलियारे
बूढ़ी परछाईं के
साँझ ढले
तन हारे
एक-एक साँस
तके आहटें
परदेसी बेटे के पत्र की ।

फूल नहीं
खिलते हैं परजीवी बेल में
टूटी मर्यादाएँ
चौसर के खेल में
कौरव कुल समझेगा
क्या, भला
परिभाषा नारी के वस्त्र की ।

चुन-चुनकर भेजा था
खोटे दिन जाएँगे
मरुथल की
गोदी में
बादल कुछ आएँगे
देख-देख टूटीं
सब भ्रांतियाँ
दृश्यकथा
संसद के सत्र की

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3

मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन

बादलों को कब
भला पी पाएगा
एक चातक
आग में जल जाएगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी तन

मानते
उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है
तोड़ दे
प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन

मर्मभेदी यातना में
रोज मरना
स्वर्णमृग का
मत कभी आखेट करना
मौन क्रंदन
साथ होंगे
बस विरह के क्षण ।

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Wednesday, July 8, 2015

कब आओगे घन !



1-नवगीत
कब आओगे घन !
डॉज्योत्स्ना शर्मा

बढ़ते-बढ़ते आज हो गई 
उसकी पीर सघन
बाट जोहती रही धरा तुम 
कब आओगे घन !

सोचा था महकेगें जल्दी
गुञ्चे आशा के
समझाया फिर लाख तू मत गा
गीत निराशा के
बस में नहीं मनाना इसको
बिखरा जाए मन ।

उजड़े बाग़-बग़ीचे सूने
मौसम बदला -सा
तड़की छाती ,खेत ,घूमता
किसना पगला सा
जोड़-तोड़ कर चले ज़िंदगी 
करता रहा जतन ।

उमड़ी ममता कब तक रहती
धरती माँ बहरी
जला हृदय सागर का ,उसकी
पीर हुई गहरी
टप-टप बरसे नयन मेघ के
रोया खूब गगन ।

बाट जोहती रही धरा फिर 
लो घिर आए घन ।
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2-कविता
मेघा रे मेघा

गुंजन अग्रवाल

उमड़ते -घुमड़ते झूमते चले आओ रे मेघा
उष्णता धरा की आकर बुझा जाओ रे मेघा

प्यासी है धरा, बूँद -बूँद जल को तरस रही
कोख हो हरी धरा की, जम के बरसो रे मेघा

कारे कारे बदरा दे रहे है बूँदों का प्रलोभन
कण कण धरा का शीतल कर जाओ रे मेघा

बरसो गगन से ऐसे कि भीगे हर तन मन
सजल अँखियों के संग मिल जाओ रे मेघा

हवा भी है व्याकुल उड़ाने को फुहार संग
खुशबू बरसा कृषक - मुख पर मुस्कान लाओ रे मेघा

"गुंजन" का भी मन मचल रहा भीगूँ सावन में
 लगा दो झड़ी सावन की सजन संग आ जाओ रे मेघा ।
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Monday, July 6, 2015

अफसोस है इतना



1-भावना सक्सेना

खर्च हो जाता है दिन
झोले में भर यादें कई
अफसोस है इतना- सा बस
कि दिन ऐसे कितने खर्चे
जिनका झोले में 
कुछ हिसाब नहीं।
बेहिसाबी के
इस सफ़र का ही
तो नाम है जिंदगी।
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2-कमल कपूर

1-  मेरी पहचान

मैं शब्दों की पाखी हूँ
मुझे चाहिए अक्षरों का चुग्गा जीने के लिए
स्याही का पानी पीने के लिए
और उड़ने के लिए कागजी आसमान
जो देखना चाहते हो मेरी उड़ान
तो गगन के स्तर को
ऊँचा, ऊँचा और ऊँचा कर दो
या कि फिर
धरा के स्तर को ही
नीचा ,नीचा और नीचा कर दो।
        2
जीत का जश्न तो मनाते हैं जमाने में सभी
हार पर  हार  चढ़ाओ  तो  कोई  बात बने।
दर्द  रोने  से  कभी   दूर    होगा   यारो!
तुम  दवा  इसको  बनाओ   तो कोई बात बने।
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3-रेखा रोहतगी

सौ बार हारी
पर हारते रहने से
न हारी
करती रही
खेलते रहने की तैयारी ,
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