रमेश गौतम के तीन नवगीत
1
हमारे गाँव में
कब से
ठगों के काफिले ठहरे
नमन कर सूर्य को
जब भी
शुरू यात्राएँ करते हैं
अजब दुर्भाग्य है
अपना
अँधेरे साथ चलते हैं
विसंगति सुन
नहीं सकते
यहाँ सब कान हैं बहरे
चिराग़ों से
खुली रिश्वत
हवाएँ रोज लेती हैं
सभाएँ रात की
दिन को
सजा-ए-मौत देती हैं
यहाँ दफ़ना
दिए जाते
उजाले अब बहुत गहरे
हथेली देखकर
कहना
बहुत टेढ़ी लकीरे हैं
सुना तकदीर
के किस्से
कलेजे रोज चीरे हैं
निकल सकते
नहीं बाहर
बड़े संगीन हैं पहरे ।
-0-
2
देवदूत
कैसे उपलब्ध हो
छाँव तनिक
राजा के छत्र की
जप-तप-व्रत
मंत्र-तंत्र
पूजागृह- प्रार्थना
माथे न टाँक सके
उज्ज्वल संभावना
अधरों न धर पाईं
सीपियाँ
एक बूँद स्वाति नक्षत्र की
भूल गए कच्चे घर
गाँव, गली-गलियारे
बूढ़ी परछाईं के
साँझ ढले
तन हारे
एक-एक साँस
तके आहटें
परदेसी बेटे के पत्र की ।
फूल नहीं
खिलते हैं परजीवी बेल में
टूटी मर्यादाएँ
चौसर के खेल में
कौरव कुल समझेगा
क्या, भला
परिभाषा नारी के वस्त्र की ।
चुन-चुनकर भेजा था
खोटे दिन जाएँगे
मरुथल की
गोदी में
बादल कुछ आएँगे
देख-देख टूटीं
सब भ्रांतियाँ
दृश्यकथा
संसद के सत्र की
-0-
3
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
बादलों को कब
भला पी पाएगा
एक चातक
आग में जल जाएगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी तन
मानते
उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है
तोड़ दे
प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन
मर्मभेदी यातना में
रोज मरना
स्वर्णमृग का
मत कभी आखेट करना
मौन क्रंदन
साथ होंगे
बस विरह के क्षण ।
-0-
बहुत सुंदर नवगीत ! एक-एक शब्द यथार्थ से परिपूर्ण !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीय रमेश गौतम जी !
~सादर
अनिता ललित
बहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteवाह सभी नवगीत बहुत सुन्दर प्रथम नवगीत की व्यंजना बहुत सशक्त
ReplyDeleteचिराग़ों से
खुली रिश्वत
हवाएँ रोज लेती हैं
सभाएँ रात की
दिन को
सजा-ए-मौत देती हैं
यहाँ दफ़ना
दिए जाते
उजाले अब बहुत गहरे .....बहुत प्रभावी
बहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteरमेश गौतम जी आपके द्वारा रचित सभी नव गीत बहुत सुन्दर शब्दों और भावों सहित रचे हुए हैं हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteगहन भावों की सरल ,सुन्दर अभिव्यक्ति देते बेहद प्रभावी नवगीत हैं ...हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteसादर नमन के साथ
ज्योत्स्ना शर्मा
बहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteबहुत प्राणवान नवगीत, रमेश गौतम जी....हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteबहुत सशक्त वर्णन यथार्थ वयाँ करते नव गीत । यह पंक्तियां क्या कहने बडी मार्मिक हैं , सांझ ढले
ReplyDeleteतन हार
एक एक सांस
तकें आहटें
परदेशी बेटे के पत्र की ।
वधाई
यहाँ दफ़ना
ReplyDeleteदिए जाते
उजाले अब बहुत गहरे
हथेली देखकर
कहना
बहुत टेढ़ी लकीरे हैं
सुना तकदीर
के किस्से
कलेजे रोज चीरे हैं
निकल सकते
नहीं बाहर
बड़े संगीन हैं पहरे ।
-0-कटु सत्य।
फूल नहीं
खिलते हैं परजीवी बेल में
टूटी मर्यादाएँ
चौसर के खेल में
कौरव कुल समझेगा
क्या, भला
परिभाषा नारी के वस्त्र की ।
बहुत प्रभावी
उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है
बहुत मार्मिक,प्रभावी गीत। हार्दिक बधाई।
hamare ganv mein.........bade sangeen hain pahare aur kaise mile chhanv tanik raja ke chhatr ki...........,aj ke samaj va shasan tantr par prahar karati panktiyan . sachhai ko samane rakhati hain. teenon hi navgeet bahut hi gudharth bhare hain. badhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
बहुत सुंदर नवगीत
ReplyDeleteपंक्तिया बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ ,आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए ,हार्दिक धन्यवाद
Deleteसहज साहित्य का बहुत आभारी हूँ ,एक सार्थक मंच हिंदी कविता को मिला इस मंच के द्वारा श्रेष्ठता के रचनात्मक मानक तय होते हैं भाई काम्बोज जी को धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना |
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना |
ReplyDeleteachi lagi sabhi rachnayen hardik badhai...
ReplyDeletebehad prabhaavi navgeet !...badhai gautam ji ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, भावपूर्ण नवगीत हैं...| रमेश गौतम जी को हार्दिक बधाई...|
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