21 नवम्बर- 2021
आज पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का शहीदी दिवस है। मैंने अपनी एक
कविता पुस्तक 'जहाँ
कोई सरहद न हो' उन्हें समर्पित की है। आज इसी पुस्तक की पहली
कविता 'मैं कवि हूँ' प्रस्तुत कर रहा
हूँ। इस कविता की पृष्ठभूमि बताना ज़रूरी है। छत्रपति जी की शहादत 2002 में हुई। मेरे शहर के कवियों ने उन पर काफ़ी कविताएँ लिखीं। कुछ ऐसे भी
थे, जो उनके हर शहादत दिवस पर आँसुओं में डूबी कविताएँ लिखते
और उन्हें महान क्रांतिकारी बताते। शायद 2010 का साल था।
हमें पता चला कि जिस धर्मगुरु पर छत्रपति की हत्या का आरोप है और मुकद्दमा चल रहा
है (बाद में इसी केस में उसे सज़ा सुनाई गई), उसी के आश्रम
में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है और उसमें मेरे शहर के कई कवि शामिल हो
रहे हैं। इनमें वे कवि भी शामिल थे, जो छत्रपति पर हर साल
कविता लिखा करते थे। ये न केवल शामिल थे, बल्कि उनकी ओर से
कवियों को आमन्त्रित भी कर रहे थे। ज़ाहिर है कि गुस्सा आता। आया। इन लोगों से
सीधी मुठभेड़ हुई। स्वर्गीय पूरन मुद्गल जी हम लोगों का नेतृत्व कर रहे थे। इन
कवियों के तर्क बड़े बचकाना थे। उनके अनुसार साहित्य को सब चीज़ों से निर्लिप्त
होना चाहिए। क़िस्सा कोताह यह कि उनके लिए यह आयोजन गुनाह बेलज़्ज़त साबित हुआ,
क्योंकि ठीक उसी दिन कोई और कांड हो गया और कवि सम्मेलन हुआ ही
नहीं। जिस दिन मुझे इस संभावित आयोजन की जानकारी मिली थी, स्वाभाविक
रूप से ग़ुस्सा आया था। उसी ग़ुस्से की उपज है यह कविता :
मैं कवि हूँ
मैं कवि हूँ
और जैसी कि कहावत है
मैं वहाँ भी पहुँच जाता हूं
जहाँ रवि नहीं पहुँचता
मैं पहुँच जाता हूँ उस गहन गुफ़ा में भी
जहाँ पहुँच सकने का सपना
धूप भी नहीं देखती
मैं कवि हूँ
मुझमें कुलबुलाती हैं मानवीय संवेदनाएँ
इन्सानियत के लिए लड़ते हुए
जब मारा जाता है कोई सच्चा इन्सान
तो मैं ज़ार-ज़ार रोता हूँ
लिखता हूँ उसके लिए शोक-गीत
अगले ही दिन हत्यारे के दरबार में
हत्यारे को ईश्वर बताकर
ऊँची आवाज़ में गाता हूं प्रशस्ति-गान
और तरसता हूँ कि हत्यारे के मुख से
मेरे लिए निकले आह! वाह!
मेरे भीतर
किनारे तोड़कर बहती है
संवेदना की नदी
हर समय इस्तेमाल के लिए
तत्पर है इस नदी का जल
फिर इस्तेमाल करने वाला
कोई हत्यारा भी हो तो क्या
मैं कवि हूँ
बढ़कर हूँ रवि से
रवि अँधेरे का सिर्फ़ हरण करता है
मैं तो अँधेरा उगलता भी हूँ
पर कभी-कभी उस अँधेरे में
अचानक दुस्वप्न सा कौंध जाता है सूरज
मुझे तब कुछ दिखाई नहीं देता
सिर्फ़ सुनाई देती है एक आवाज़-
'धिक्कार है कि तुम कवि हो।'
-0-
2-क्षणिकाएँ
हरभगवान चावला
1-चुप
चुप
निश्चल और निरंतर चुप
पथराई हुई चुप पर
तुम्हारा ख़याल
पानी की बूँद की मानिंद आता है
और टप से टपककर
पथराई चुप को
उदास कर जाता है।
2
तुम बिन
मैं चाक़ू से पहाड़ काटता रहा
अँजुरियों से समुद्र नापता रहा
हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान
कंधों पर ढोता रहा आसमान
यूँ बीते
ये दिन
तुम बिन।
-0-
'मैं कवि हूँ'कविता गहरे आक्रोश से उपजी, सच के पक्ष में खड़ी कविता है,ये आक्रोश कविता में स्पष्ट प्रतिबिंबित है साथ ही कविता,दोहरे आचरण वाले मुखौटे लगाए तथाकवित कवियों को आइना भी दिखाती है।दोनो क्षणिकाएँ अलग भाव बोध की सशक्त रचनाएँ हैं।हरभगवान चावला जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteकवि की जद्दोजहद से उपजी कविता ,बेहतरीन, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDelete'मैं कवि हूँ'- साहित्य जगत के एक स्याह पक्ष को पूरी शिद्दत से उजागर करती रचना है | इस सच का सामना करना भी एक साहस का काम है | दोनों क्षणिकाएँ भी ह्रदय में भीतर तक उतर गईं |
ReplyDeleteइतनी सशक्त रचनाओं के लिए हरभगवान जी को बहुत बधाई |
कवि के आक्रोश को दर्शाती बढ़िया कविता! दोनों क्षणिकाएँ भी बहुत सुंदर! हार्दिक बधाई आ. हरभगवान चावला जी!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
कवि हृदय के उद्गारों से सजी कविता बहुत सुंदर है । क्षणिकाएँ भी बढ़िया हैं हार्दिक बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteबहुत सशक्त बेहतरीन कविता और क्षणिकाएँ...हार्दिक बधाई चावला जी।
ReplyDeleteकवि के आक्रोश को प्रकट करती सशक्त रचना, हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त रचना।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीय।
सादर 🙏🏻
बेहद सशक्त एवं प्रभावपूर्ण कविता ।क्षणिकाएँ भी उत्कृष्ट। बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteसुंदर कवितायें
ReplyDeleteआक्रोश, विद्रोह, हताशा, ग्लानि और गहन संवेदना लिए हृदय से पीड़ा को उगलती बहुत ही हॄदयस्पर्शी रचना 'मैं हूँ कवि'
ReplyDeleteतुम्हारा ख़याल
पानी की बूँद की मानिंद आता है
और पथराई चुप
दिल को चीरते शब्द
और 'तुम बिन' सराहना के भी ऊपर।
आदरणीय चावला जी के लिए मन श्रद्धा से भर उठा।
नमन
ह्रदयस्पर्शी कविता और क्षणिकाएँ!
ReplyDelete