व्यंग्य दोहे- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु
नंगों की इस भीड़ में ,नहीं शर्म का काम ।
इतने नंगे हो गए , नंगा हुआ हमाम ॥ 1॥
मन में कपट कटार है , मुख पर है मुस्कान ।
गली-गली में डोलते , ऐसे ही इंसान ॥ 2॥
नफ़रत सींची रात -दिन ,खेला नंगा खेल ।
आग लगाकर डालते ,खुद ही उस पर तेल ॥3॥
जनता का जीना हुआ ,दो पल भी दुश्वार ।
गर्दन उनके हाथ में जिनके हाथ कटार ॥4॥
ऊँची-ऊँची कुर्सियां , लिपटे काले नाग ।
डँसने पर बचना नहीं , भाग सके तो भाग ॥5॥
रात अंधेरी घिर गई , मुश्किल इसकी भोर ।
भाग्य विधाता बन गए , डाकू ,लम्पट ,चोर ॥6॥
गुण्डों के बल पर चला , राजनीति का खेल ।
भले आदमी रो रहे ,ऐसी पड़ी नकेल ॥7॥
बनी द्रौपदी चीखती ,अपनी जनता आज ।
दौर दुश्शासन का चला ,कौन बचाए लाज ॥8॥
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 11 - 08 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDeleteनयी पुरानी हल चल में आज- समंदर इतना खारा क्यों है -
वाह सर।
ReplyDeleteसादर
ek ek lajawaab...
ReplyDeleteऊँची-ऊँची कुर्सियां , लिपटे काले नाग ।
डँसने पर बचना नहीं , भाग सके तो भाग ॥5॥
रात अंधेरी घिर गई , मुश्किल इसकी भोर ।
भाग्य विधाता बन गए , डाकू ,लम्पट ,चोर ॥6॥
sateek kataksh...
बेहतरीन,लाजबाब प्रस्तुति है.
ReplyDeleteबहुत कटीले व्यंग्य सरल भाषा में
पढकर आनंद आगया.
बहुत बहुत आभार.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा.
मन में कपट कटार है , मुख पर है मुस्कान ।
ReplyDeleteगली-गली में डोलते , ऐसे ही इंसान ॥ 2॥
बहुत बढ़िया।