पथ के साथी

Friday, January 7, 2022

1177-समय !

 सुशीला शील राणा

 

लिखो अग्रसंधानी में


सबके कर्म

पाप-पुण्य

धर्म-अधर्म

 

समय !

पूरे धैर्य-विवेक से

करना विवेचन

 

जो रहे जीवन का हिस्सा

क्या रहा उनका किस्सा

क्या रही उनकी फ़ितरत

क्या रहा उनका क़िरदार

कौन कितना रहा वफ़ादार

अपनों के मुखौटे लगा

कौन कितना रहा गद्दार

 

 

समय !


लिखो अपनी बही में

सारे के सारे षड़यंत्र

धोखे-छल-कपट-प्रपंच

सब की सब जालसाजियाँ

पीठ में घोंपी गईं छुरियाँ

 

 

समय !

रखना पूरा का पूरा हिसाब

किसने कितने दिए घाव

किसने लगाया मरहम

किसने कितने दिए आँसू

किस-किस ने दी मुस्कुराने की वज़ह

किस-किस ने छीना

जीने का आधार

किस-किस के साथ ने

भरोसे ने लिया थाम

 

 

समय !

यहीं करो न्याय

इसी जीवन में

इसी धरती पर

बहा दो वैतरणी

तड़पे यहीं हर पापी

लागू हों शास्त्र वर्णित

पुराणों के दंड विधान

कि देख सकें लोग

जीवितों को भोगते

अपने पापों का दंड

ताकि डरे हर इंसान

करने से पहले पाप

 

समय !

खोलो स्वर्ग के द्वार

इसी धरती पर

कि जीते जी

भोग सकें पुण्यात्माएँ

अपने पुण्यों का फल

स्वर्ग सा सुख

ताकि कायम रहे

अटूट आस्था

धर्म में, कर्मों के फल में

 

समय !

कर रहे हैं आह्वान

सभी सरल जन, भोले मन

कि बची रहे यह धरा

पापों के बोझ से

महा प्रलय से

बना रहे अस्तित्व

धर्म का

कर्म का

ईश्वर का

न्याय का

-0-

Thursday, January 6, 2022

1176-हिंदी साहित्य की विशिष्ट विभूति;कमलेश्वर

 

जन्मदिन पर विशेष

                     -डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

कमलेश्वर हिंदी साहित्य की विशिष्ट विभूति हैं। पद्मभूषण से सम्मानित कमलेश्वर की प्रतिभा बहुआयामी थी। वे एक श्रेष्ठ कहानीकार के साथ ही श्रेष्ठ उपन्यासकार,लोचक,सम्पादक, फिल्मकार, संवाद लेखक एवं पटकथा लेखक थे। उनकी कथा-प्रतिभा का मूल्यांकन करते हुए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री गोपीचंद सारंग ने कहा था-"कमलेश्वर जैसा लेखक दोबारा पैदा नहीं होगा,वे अपने अंदाज के अकेले लेखक थे। प्रेमचंद युग के बाद कोई लेखक इतना नहीं पढ़ा गया जितने कि कमलेश्वर।"...निःसन्देह वे अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुए अपनी सहज सम्प्रेषणीय शैली के कारण वे पाठकों से सीधा संवाद करते प्रतीत होते हैं,उनके विषय भी जीवन के इतने निकट होते हैं कि हर पाठक को वह कहानी अपनी- सी प्रतीत होने लगती है। कमलेश्वर के लेखन के मूल में उनके जीवन अनुभव थे। उन्होंने दुःखों,अभावों और आम आदमी की पीड़ाओं को अत्यंत निकट से देखा था,वही अनुभव उनके कथा साहित्य में आकार लेते रहे।

6 जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बानुमा शहर मैनपुरी के एक कायस्थ परिवार में जन्मे कमलेश्वर का बचपन अभावों में व्यतीत हुआबचपन मे ही पिता को खो चुके कमलेश्वर ने सारे संस्कार माँ से ही ग्रहण किए। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में ग्रहण करने के बाद वे उच्च शिक्षा हेतु इलाहाबाद गए,वहाँ पढ़ाई के साथ ही उन्होंने 'जनक्रांति' अखबार में कार्य भी किया,यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई। उनकी पहली प्रकाशित कहानी 'कामरेड' थी;  पर उन्हें जिस कहानी ने उन्हें चर्चित किया वह थी 'राजा निरबंसिया' 1957 में प्रकाशित दोहरे कथानक वाली इस लम्बी कहानी में उन्होंने दो युगों के नैतिक मूल्यों के द्वंद्व को बड़े ही कौशल के साथ चित्रित किया। मैनपुरी के परिवेश पर लिखी लिखी इस कहानी ने उन्हें स्थापित कथाकारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। उसके बाद कस्बे के परिवेश पर ही उन्होंने 'गर्मियों के दिन',नीली झील,'देवा की माँ,'मुर्दों की दुनिया' जैसी कई कहानियाँ लिखीं।आलोचकों ने इन्हें कस्बे की कहानियाँ कहा और कमलेश्ववर कस्बे के कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। कमलेश्वर एक ही पड़ाव पर नहीं रुके आगे चलकर उन्होंने शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की जटिल संवेदनाओं पर भी कहानियाँ लिखीं। 'खोई हुई दिशाएँ','बयान','दिल्ली में एक मौत',चार महानगरों का तापमान'जैसी कई  इसी मानसिकता की कहानियाँ हैं।
  हिंदी कहानी के दो आंदोलनों के प्रवर्तकों में भी कमलेश्वर का योगदान अविस्मरणीय है। सन्1950 क़े बाद हिंदी कहानी का परम्परागत ढाँचा टूटना शुरू हो गया था और नए प्रकार की प्रवृत्तियाँ कहानी में आने लगी थीं इन्हीं प्रवृत्तियों को 'नई कहानी' नाम दिया गया। राजेन्द्र यादव,मोहन राकेश और कमलेश्वर इस आंदोलन के सूत्रधार माने गए। कमलेश्वर द्वारा एक और आंदोलन 'समांतर कहानी आंदोलन'का प्रवर्तन भी किया गया। सन 1971 के आसपास कमलेश्वर सारिका के सम्पादक थे,उसी के माध्यम से उन्होंने समांतर कहानी आंदोलन की शुरुआत की इसे आम आदमी के आसपास की कहानी का आंदोलन भी कहा गया। इस आंदोलन ने हाशिए पर पड़े आदमी की जिंदगी को कहानी के केंद्र में स्थापित किया।
  कमलेश्ववर एक प्रतिबद्ध कथाकार थे,उनकी प्रतिबद्धता आम आदमी की बेहतरी के लिए थी,वे प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर थे। उनकी यह प्रतिबद्धता उनके उपन्यासों में भी परिलक्षित होती है। उनका प्रथम उपन्यास 'एक सड़क, सत्तावन गलियाँ' मैनपुरी की पृष्ठभूमि पर हैबाद के उपन्यास मध्यवर्ग की समस्याओं पर केंद्रित हैं। उन्होंने बारह उपन्यास लिखे। उनका अंतिम उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। परम्परागत शिल्प को तोड़ता हुआ व्यापक कैनवास वाला यह उपन्यास कथ्य में भी अद्भुत है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हुए 2003 में इसे 'साहित्य अकादमी' से सम्मानित किया गया।
एक फिल्मकार और पटकथाकार के रूप में भी वे सफल रहे। दूरदर्शन को भी उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। सन 1980 से 1982 तक वे भारतीय दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक रहे। यह वह कालखण्ड था जब दूरदर्शन को श्वेत श्याम से रंगीन किया जा रहा था, ये सारी परियोजना कमलेश्ववर जी के समय की ही थी।
  कमलेश्वर एक सफल पत्रकार भी रहे।'नई कहानियाँ' 'सारिका' ,'कथायात्रा','श्रीवर्षा' 'गंगा' इत्यादि अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ ही दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर  से भी वे जुड़े रहे।
उनकी साहित्यिक यात्रा को देखते हुए सन2005 में उन्हें भारत सरकार के पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। 27 जनवरी 2007 को कमलेश्वर ने इस संसार से विदा अवश्य ले ली ; पर अपनी कालजयी कृतियों के माध्यम से वे सदा हमारे साथ रहेंगे।


Friday, December 31, 2021

1173-पाठ

 

पाठ

(साल के अंतिम पड़ाव पर पढ़िए 'नवतेज भारती' की अद्भुत प्रेम कविता । पंजाबी से अनुवाद: हरभगवान चावला)

पाठ करते-करते

मैं तुम्हारे साथ बात करने लगती हूँ

पता ही नहीं चलता

पाठ कब सम्पन्न हो जाता है

तुम ख़ुदा से पूछना-

वह मेरा पाठ मंज़ूर कर लेता है?

ख़ुदा कहता है-

सब लोग मेरा पाठ ही करते हैं

काश! पाठ करते-करते

कोई मेरे साथ भी बात करने लगे

'बेचारा'...कहती-कहती ख़ामोश हो गई

रात को फिर सपने में

ख़ुदा ने कहा-

माँग, जो माँगना है

 

तू अंतर्यामी है

तुझे पता है मैं क्या माँगती हूँ

फिर क्यों बार-बार पूछता है?

'शायद भूले-भटके ही

तू उसकी जगह मुझे माँग ले'- ख़ुदा ने कहा ।

-0-

Saturday, December 25, 2021

1172-जनम-जनम की प्रीत

 दोहे-रश्मि विभा त्रिपाठी

1


शेष कामना कुछ नहीं
, क्या माँगूँ अब दान।

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, ईश्वर का वरदान॥

2

बाट प्रिये की जोहती, बैठी बारह मास।

उनके बिन दूभर हुआ, अब लेना यहसाँस॥

3

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, जीवन का आधार।

तुमें ही तो है बसा, मेरा निज संसार॥

4

कैसे तुम बिन हो प्रिये, अब जीना आसान।

एक तुम्हीं में है बसी, मुझ बिरहन की जान॥

5

प्रेम- कोकिला गा रही, मन- बगिया में गीत।

प्रियवर तुमसे बँध गई, जनम-जनम की प्रीत॥

6

प्रेम सुनहरा जब कभी, चढ़े किसी के अंग।

जीवन भर उतरे नहीं, फिर यह गाढ़ा रंग॥

7

झंझा का अभिमान प्रिय, होगा नष्ट समूल।

अंक छिपा लूँ मैं तुम्हें, हाथ मलेगी धूल॥

8

प्रिय श्रद्धा से चूम लें, मेरा बेसुध माथ।

संजीवनि मानो धरी, प्रभु ने आकर हाथ॥

9

तुम्हें समर्पित हैं प्रिये, मेरे तन-मन-प्राण।

पग-पग पर तुमसे मिला, मुझे पूर्ण परित्राण॥

10

तुम्हें देख जीती रहूँ, तुम मेरी अकसीर।

कण्ठ लगाकरके प्रिये, पिघला देते पीर॥

11

जकड़ नहीं पाए कभी, पीड़ाओं का पाश।

प्रियवर ने सौंपा मुझे, सुन्दर सुख-आकाश॥

12

दिन सौरभ-सौरभ हुआ, महक उठी हर रात।

जबसे हिय-सर में खिला, एक प्रेम-जलजात॥

13

बाधा आन विकल करे, वे उसके ही पूर्व।

भर देते मुझमें प्रिये, साहस एक अपूर्व

14

जब देखूँ, देता जिला, प्रिये तुम्हारा रूप।

मुझको लगती ही नहीं, इस दुनिया की धूप॥

15

वंदन नितप्रति मैं करूँ, जपूँ उन्हीं का नाम।

प्रिय ने सौंप दिए मुझे, अपने सुख-आराम॥

16

ठेल दिया तुमने परे, प्रियवर! पीर-पहाड़।

डूब गया मन मोद में, आई सुख की बाढ़॥

17

मैं बड़भागी हूँ प्रिये, मिला तुम्हारा साथ।

धरती पर पग ना धरूँ, दुख के लगूँ न हाथ॥

18

पाया जबसे है प्रिये, तेरा प्रेम अनूप।

पीर-हिमानी गल गई, तन सहलाती धूप॥

19

जिजीविषा मुझमें भरे, उनका शुभ आशीष।

जहाँ चरण प्रिय के पड़ें, अपना धर दूँ शीश॥

20

और मुझे क्या चाहिए, पाके तुमको मीत।

अधरों से आठों पहर, झरता सुख-संगीत॥

21

प्रेम- बाँसुरी पर प्रिये, जब तुम गाते गान।

मेरा तन-मन झूमता, ऐसी मादक तान॥

22

एक अलौकिक सुरभि से, महका मेरा गेह।

मेरे आँगन झर रहा, प्रिय का निर्मल नेह॥

23

निर्मल नेह-सुधा मिली, मिटी युगों की प्यास।

तुम तृप्ति का स्रोत प्रिये, पूरन मेरी आस॥

-0-

Thursday, December 23, 2021

1171-तीन कविताएँ

 1-कहानी कभी ख़त्म नहीं होती

प्रियंका गुप्ता

 

दादी माँ


अक्सर सुनाया करती थी

बस वही एक कहानी-

एक था राजा, एक थी रानी

दोनों मर गए, ख़त्म कहानी;

पर मैं अक्सर सोचती हूँ

राजा-रानी के मरने से

कहानी ख़त्म कैसे हुई?

उसके बाद भी

चली तो होगी

किसी और राजा और

उसकी रानी की कहानी;

कहानियाँ कभी ख़त्म होती हैं क्या?

हम न चाहें तो भी

उनका चलना

बदस्तूर ज़ारी रहता है

सुनो,

जिस दिन ख़त्म हो गई कहानियाँ

उस दिन ख़त्म हो जाएगी

ये सृष्टि भी;

इसलिए बस चलने देना

रोज़ नई कहानी को

क्योंकि हर कहानी

सृष्टि को बचाए रखने के लिए

उतनी ही ज़रूरी है

जितनी ज़रूरी हैं

तुम्हारी साँसें

ज़िन्दगी के लिए...।

-0-

2-भीकम सिंह 

 

1-कविता का अधिकारी 

 

 सरकारी विभागों में 


हिन्दी भाषा के अधिकारी
 

या कोई आयुक्त जैसे 

उच्च अधिकारी 

अपनी कविता छपवाते हैं 

साहित्यिक समारोहों में 

उसे 

पहनकर आते हैं 

कुछ 

शब्द-चित्र 

टाँककर आते हैं 

क्योंकि 

वे बोल नहीं पाते 

इसलिए 

अवकाश प्राप्ति पर

कविता -

फाड़कर फेंक देते हैं 

या

लिखना छोड़ देते हैं 

फिर उनकी पुस्तकें 

अलमारियों से निकाल 

बारों के साथ 

तोल दी जाती हैं 

खाली अलमारियों में 

उनकी पढ़ी -लिखी बहुएँ 

व्रत-त्योहार 

विधि-विधान की पुस्तकें 

ज़ा देती हैं 

फिर वो अधिकारी 

अपना सिर

दोनों हाथों में पकड़े 

गैराज में 

ढूँढते हैं कविता 

 

 

-0-

 

2-धूप 

 

 

ताज़ा - सी दिखी

अहाते के पास 

सुबह की कोख से 

ज्यों गिरा हो

हर्षोल्लास 

फिर से आज 

 

आलस की 

चादर उतारी 

अँगड़ाई की मुद्रा में 

बाहें पसारी 

और लपेट ली सारी

माघ की धूप 

Tuesday, December 21, 2021

1170-बंधन

कृष्णा वर्मा 


बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें         

लेकिन भींच लेता हूँ मुठ्ठी में 

कसकर सोच की लगाम 

चाहे कितना भी दबा लूँ 

अंतस् की आग को,   

फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से 

थक गए हैं मेरे हवास 

लगा-लगाकर होंठों पर ताला 

अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से 

जिसे कब का बेमायने कर दिया है

तुम्हारी हठधर्मियों ने  

चाहकर भी मन कस नहीं पाता  

ढीली हुई रिश्तों की दावन को 

सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता

ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द 

तुम्हारे ग़ुरूर को बेंधने को 

मेरी चुप्पियाँ 

तुम्हारी अना की जीत नहीं 

अपितु गृह कुंड में शांति की आहुति है 

अच्छा होगा जो अब भी

थाम लो तुम 

अपनी कुंद सोच के क़दम

ऐसा न हो रह जाए कल

तुम्हारी ज़िद की मुठ्ठी में

केवल पछतावा। 

 

 

Monday, December 20, 2021

1169- अहम् मृत्यु

 अहम् मृत्यु

मूल ओड़िआ रचना - श्री अमरेश विश्वाल(कवि एवं उपन्यासकार)

अनुवाद -अनिमा दास

 

मैं एवं मृत्यु


हैं समीपस्थ...

मानो वह हो आरक्षी

एवं मैं होऊँ अपराधी।

 

एक यात्री वाहन में

हम बैठें हु हैं

अति निकटस्थ।

 

मैं खोज रहा हूँ

गतिशीलता

जीवन के गवाक्ष में।

वह पढ़ रही है

समाचार- पत्र का

अंतिम पृष्ठ...।

 

 

मैं नहीं जानता


क्यूँ ठहर गया

यह शकटाकृति वाहन

एक पर्णकुटी के समक्ष

जहाँ थी केवल निराट शून्यता।

 

जहाँ था स्वच्छ प्रांगण में

अर्धमृत तुलसी का एक पौधा

एवं एक जोड़ी

जीर्ण-शीर्ण खड़ाऊँ।

 

जैसे किसी ने प्राचीन धर्मग्रन्थ को

घृणाजल से किया था सिक्त

जिसने किया था आबद्ध

उस कुटी को

काष्ठ सा हो रहा था प्रतीत

एवं उस पर हुआ था उत्कीर्ण

प्राक-कालीन युगल पदचिह्न ।

 

मैं था अत्यंत तृषित

किंतु निश्चिन्त मृत्यु थी

असीम निद्रा में

उसने दिये मुझे

दो चषक पेय।

 

 

मैंने कहा-

यदि देना है तो दो

पाप से पूर्ण अँजुरी,

दो सजल किंतु हर्षित

चक्षु युगल

एवं आलिंगनबद्ध द्वय देह 

 

मेरे लिए थी मृत्यु की

एक संक्षिप्त युक्ति–

तपस्विनी_ सी मृत्यु के अधर पर

थी अल्प स्मित

उसने कहा....

तुम , असहाय मानव!

जिस मदमत्त उन्मुक्त जीवन

से करते हो अटूट प्रेम

उससे तो मृत्यु ही है श्रेयस्कर–

उससे तो मृत्यु ही है श्रेयस्कर–