पथ के साथी

Monday, January 16, 2023

1271-कविताएँ

 दीपाली ठाकुर

1-चाँद   

 

कितना कुछ लिखा सबने

कवियों ने शाइरों ने

चमचमाते चाँद पर

और खिली चाँदनी पर

पर ...मैं नही लिखना चाहती

मैं  महसूस करना चाहती हूँ

उस चाँदनी को 

जो जगाती है प्रेम 

और कभी हवा देती है 

विरह की आग को

देखती हूँ कभी

चाँद के गोल मुखड़े पर

किसी माँ के 

जिगर के टुकड़े  का चेहरा

कभी देखती हूँ

अपनी यादों को

शुभ्र धवल चाँदनी में

नहलाती,

चंदा से अकेले में बतियाती

कोई प्रेमिका

और कभी चाँद में

किसीको तलाशता

कोई पागल प्रेमी

और अवनि से

अंबर तक फैली

इस ज्योत्स्ना को

अपनी आँखों

से उतार लेना चाहती हूँ

अपने दिल में।

-0-

2-प्यार में

 

लड़कियाँ जब होती हैं प्यार में

ढूँढा करती हैं बहाने,

छत पर या

घर से बाहर जाने के

करती हैं सैकड़ों जतन

लगाती है जुगत कई

एक झलक भर पाने को

नहीं करती 

फिर वो परवाह

किसी भी चीज़ की

किसी के बोलने 

या ज़माने की

तकती हैं चाँद , 

गिनती हैं तारे ,

पलकों के पीछे सजाती

अरमान ढेर सारे

छिप-छिपके आईने में

निहारती हैं अपने आपको 

बार-बार

हो जाना चाहती हैं आश्वस्त

कि सुंदर ही लग रही

सीख लेना चाहती हैं

हर वो हुनर और कलाकारी

जिससे बिखेर पाएँ अपनी जादूगरी

जीत लें किसीका दिल

बदल लेती हैं अपनी कुछ आदतें

अपनी पसंद नापसंद

केवल कुछ बातें जानकर

मानने लगती हैं 

जनम जनम का बंधन

और कर देती है न्योछावर सब कुछ

-0-

3-टुकड़े टुकड़े जन्म

 

जब जनमती है कोई स्त्री  देह

पहना दिया जाता है

झिंगोला, उसे बेटी नाम का

हो जाती है वो बेटी ;

धीरे से जैसे वो बढ़ती जाती है

बता दी जाती हैं,उसे उसकी 

सारी मर्यादाएँ,

उससे  बार -बार यह

कहा जाता है-

"तुम बेटी हो"

"तुम बेटी हो"

वो भूल जाती है,

जन्म किस रूप में लिया था ;

उसे केवल याद रहती हैं

वर्जनाएँ , मर्यादाएँ

और ये कि

वह बेटी है ;

फिर जन्म लेती है पत्नी

और भूलती जाती है अपना

पिछला जन्म,

उसे भूलना ही होता है

क्योंकि, नहीं जी सकती

वह दोनों जनम एक साथ 

अब वो पत्नी है ;

सब कुछ बदल गया,

नहीं बदली मर्यादाएँ

अलबत्ता ,कुछ नई

और जुड़ गई 

वो अपूर्ण है

पूर्णता पाने के लिए

लेना होगा उसे

एक और जन्म ;

पुनर्जन्म हुआ

और जनमते ही

चटाई जाती है घुट्टी

तुम माँ हो,

तुम पूर्ण हो,

तुम महान हो ,

पूर्णता , महानता के लबादे तले

दब जाती है

फिर उसके पिछले

जनम की इच्छाएँ

आकांक्षाएँ

बड़ी बड़ी उपाधियों की

ताजपोशी से

तुपे कानों के साथ

बैठा दिया जाता है

उसे देवताओं 

के समकक्ष

किया जाता है जयकारा

जयघोष उद्घोष

के बीच 

दब जाती है

उसकी आत्मा की

धीमी आवाज़

जो पिछले जन्म

की याद दिलाए उसे

अब रह जाती है वो

केवल माँ

-0-

 

4-कहाँ हो तुम?वसन्त

 

पत्रिकाओं, अखबारों में

देखती हूँ

 कविताएँ, लेख,

बसन्त पर कुछ दिनों से

शायद, तुम आ गए

 

अखबारों ,पत्रिकाओं

में देख रही हूं

खबर तुम्हारे आने की

मैं भी तुम्हे देखने को 

आतुर, जाती हूँ गैलरी पर

ढूँढती हूँ ,

मगर नही मिलता

पाम की कतारों के बीच

बौराया हुआ कोई पेड़,

दिखाई देते है 

फूलों से लदे पेड़, 

मैं फिर इन बेगाने फूलों में

तलाशने लगती हूँ

टेसू ,पलाश,अमलतास

मेरी तलाश अब बाहर से

मेरी गैलरी में रखे 

पॉट्स पर आ टिकी

एक नज़र फिर

पैलारगोनियम, जिरियम

पिटूनिया, बेगुनिया

पर डालते हुए 

कान पर हथेली धरती हूँ ,

इस आस में 

कोयल की कूक ही

सुन लूँ

फिर गाड़ी पर सवार

निकल जाती हूँ 

शहर से बाहर

तुम्हारी तलाश में

-0-

5-मोड़

वो सिर्फ एक मोड़ था

जहां ठिठक गई थी मैं

बदल दिए जिसने

सारे दृष्टिकोण

टूट गई लय

अकस्मात्

यूँ सामने आजाने पर

ऊबड़ -खाबड़ पथरीली राह

पर चल रही

एक आस लिए कि

होगी सुंदर छाँव भरी

सीधी राह

जिसके आगे

आएगा कोई तो

ऐसा मोड़.......

-0-

दीपाली ठाकुर, रायपुर छत्तीसगढ़

Saturday, January 14, 2023

1270-दोहे

 

शशि पाधा

सूरज-रथ मुड़ने लगा, नभ में उत्तर ओर 

सोना-सोना हो गई, धूप नहाई भोर

उषा-किरण ने ओढ़ ली, चुनरी सोनल रंग 

पर्वत-पर्वत पाँव धरे, चलते संग अनंग ।

चौराहे पे चौकड़ी, जलता बीच अलाव 

अंगीठी कोने पड़ी, मोल मिला ना भाव ।

4  

सूरज-दर्शन की घड़ी, जन-जन करता ध्यान 

दादी ने भी कर लिया, हर-हर गंगे स्नान ।

5

 छत चौबारे धूम-सी, उडती देख पतंग 

दोपहरी की नींद अब, शोर-शोर में भंग । 

6

दिन-दिन खिंचते जा रहे, लम्बे ताड़- समान 

रातों की होने लगी, नाटी- सी पहचान ।

नैनन को अब रुच गए, गुड़ तिल खिचड़ी थाल 

जिह्वा हँस-हँस पूछती, अखरोटों का हाल ।

8

पनघट पर सजने लगे, त्योहारों के छंद 

 मेले-ठेले, हाट में, बिकते बाजूबंद 

9

खेतों में फसलें खड़ीं, कृषकों में उन्माद 

 मेंड़- मेंड़ का चल रहा, हर पल वाद-विवाद ।

10

बदले-बदले- से लगे, शीत ऋतु के ढंग  

ओढ़ दुशाला चल पड़ी, पोष मास के संग ।

 

-0-

Thursday, January 12, 2023

1269

 

1-शब्द ?

 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 


शब्द हमेशा शब्द नहीं होते

ये कभी शीतल नीर होते हैं

किसी बदज़ुबान के हत्थे पड़ जाएँ,

तो ज़हरीले तीर होते हैं

शब्द बहुत कम बन पाते मरहम

अधिकतर छीलते हैं मन की परतें

शब्द क्रूर होते हैं

पीड़ित करके खलनायक- से हँसते हैं

करैत साँप से डँसते हैं।

हम भी किस चमड़ी के बने हैं

कि रोज़ शब्दों की चोट खाते हैं

न जीते हैं, न मरते हैं

ये शब्द जब रिश्तों में बँधकर आते हैं

तब प्राणों के ग्राहक बन जाते हैं

जीभर रुलाते हैं

इनकी चोट के घाव

आत्मा तक को घायल कर जाते हैं।

शब्द केवल शब्द नहीं होते,

जिसके हाथ में होते हैं

उसी का रूप धारण कर लेते हैं

कभी शीतल नीर

कभी नुकीले तीर

कभी रिश्तों की चादर में  छुपी शमशीर।

-0-18 दिसम्बर-17


Tuesday, January 10, 2023

1268-दो कविताएँ

 1-गाँव की लड़कियाँ

 -सुरभि डागर 


 

हरी हरी कोमल दूब- सी

निखरी- निखरी सी लगती हैं 

गाँव की लड़कियाँ

चेहरा सूर्य सा चमचमाता हुआ

वहीं  संस्कार माँ ने

 कूट-कूटकर भर देती हैं

मान सम्मान की ओढ़नी ओढ़े हुए

सरसों के खेत- सी लहराती हुई 

लगती हैं गाँव की लड़कियाँ

खेत की पगडंडी पर अपने

सपनों  को लेकर बढ़ती रहती हैं 

गाँव की लड़कियाँ

पर सुनो ........

 

पढ़ना भी चाहती हैं  गाँव की लड़कियाँ

चिड़ियों की भाँति उड़ना चाहती हैं

नदी के  जैसा उछल- कूदकर

अपना लक्ष्य पाना चाहती हैं

संगीत- सा वायु में रमना चाहती हैं

बादलों से बूँद बनकर धरती को

सोंधी - सोंधी महक से महकाना 

चाहती हैं 

स्वयं का  अस्तित्व बनाना चाहती हैं

 गाँव की लड़कियाँ

पर सुनो…....

भूखे भेड़ियों के डर से अपने 

सपनों को दबा देती हैं

पिता की पगड़ी को बेदाग

रखने के खातिर

अपने सपनों को छोड़

हर रंग में रँग जाती हैं 

गाँव की लड़कियाँ;

क्योंकि भावनाओं की 

डोर से  बँधी होती हैं

गाँव की लड़कियाँ। 

-0-


2-कुंदन हो जाऊँ

 अमृता अग्रवाल ( नेपाल)

 


छू लो मेरी रूह को मैं चंदन हो जाऊँ...,

पाकर तेरा एहसास मैं पावन हो जाऊँ।

सुलग जाए रोम- रोम मेरा इश्क़ की भट्ठी में

खाक होकर तन मेरा, मैं कुंदन हो जाऊँ..।

 

बनकर कहानी जीवन के गीत की,

इतिहास के शिलालेख पर मैं स्वर्णिम अक्षर हो जाऊँ।

 

किसे पाना और अब क्या खोना तुझे,

घुलकर तुझमें मैं तुझसी ही हो जाऊँ।

 

संचित कर लिया है मैंने तेरी महक को खुद में,

गुल में खिलकर मैं अभिनंदन हो जाऊँ..।

यूँ तो लाज़मी है इश्क़ में बर्बाद होना,मगर!

इस हसरत में खोकर भी मैं मुक्त हो जाऊँ..।

-0-

 

 

 

Saturday, January 7, 2023

1267-वर्ष का हर दिन नवल है!

 

डॉ.सुरंगमा यादव

 


वर्ष का हर दिन नवल है!

आओ बैठें कुछ पल साथ

 करें प्रेम से मन की बात

         वर्ष यह जाने को हैं!

 रहे न मन में कोई शिकन

अब भूलें  हम सभी चुभन

        वर्ष यह जाने को हैं!

 लाया था ये कुछ सौगातें

 संग में उनके कुछ घातें

      वर्ष यह जाने को हैं!

जाने वाले से गिला क्या ?

जाके कोई फिर मिला क्या?

   वर्ष यह जाने को है!

 विगत की भर धुंध मन में

 शिथिल पग क्यों खड़े पथ में ?

          वर्ष नव आने को हैं!

 हर्ष की उजली किरण से

 करें स्वागत  पूरे मन से

        वर्ष नव आने को हैं!

 वर्ष का हर दिन नवल है

कर्म बिन हर दिन विफल है

       वर्ष नव आने को हैं!