पथ के साथी

Tuesday, October 6, 2015

वह क्षण



कविताएँ डॉ सुधा गुप्ता
1
जंगली लतर थी
भूलवश
घर में उग आई
फूली फली
पानी की कमी
धूप की
पर पनपी नहीं-
मुरझा गई फिर भी:
शहर रास आया!
2
'प्यार में झुकना सीखो'
जग ने शिक्षा दी
मैंने
सिर्फ़ सुना
बल्कि गुना भी.
जीवन में उतारा.
झुकती गई   झुकती रही
झुकती  ही रही
'वह' तनता गया
लगातार तनता रहा
फिर एक दिन
वह बन गया 'तीर'
मैं बनी रह गई
'कमान'
-0-
3- रोशनी में नहाए गीत

तुम्हारी आँखों की
रोशनी में
नहाए गीत
लिख लेती हूँ
अँधेरों की खन्दक
से बाहर
गहरी साँस  भर
कुछ पल जी लेती हूँ.
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4-
 निर्धूम, निष्कम्प, निर्व्याज
नेह भरा
नन्हा यह दीया
तेरी देहरी पर
जलता रहा
घर-बाहर रौशन
करता रहा
कभी भूले से भी
उठाकर
घर में 'दीवट' पर धर  दे
तुझसे
इतना भर हुआ!
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5
फागुन का बंजारा
महुआ की मस्ती पी
लदान कर रहा
पलाश / कचनार  का
जंगलों की ओर
अल्हड़ चैत की हँसी
रोके रुकी
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6
 कार्तिक ने दीये सजाए
'वनदेवी' की अभ्यर्थना में
शाम लेती झुरझुरी
उदास रात ढूँढती फिरती
ऊनी चादर!
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7
 सूरज का गुस्सा देख
सड़कों को चढ़ा बुख़ार
फट गए
ह्रदय
बिलखे सरोवर / ताल
शूकर-दल मस्त:
थोड़ी-सी कीचड़ बाक़ी है!
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8
हाथों में
आरी-कुल्हाड़ी
ले कर आए हैं-
पूछते हैं-
कैसे हो दोस्त?
 9
 शुरू चैत के
मीठी तपन भरे, अलसाए दिन
काम-धाम कुछ नहीं
गिन-गिन के कटते हैं पल-छिन
याद ना करो
हिचकियाँ आती हैं
काँजी का तीता पानी, जैसे
गले में फँस जाए
खाँस-खाँस कर बुरा हो हाल
नाक पकड़ कोई आँख-मुँह  पर मल दे,
भर दे गुलाल
साँसे रुक जाती हैं
हिचकियाँ आती हैं, बड़ा तड़पाती  हैं
याद करो
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-0-

Monday, October 5, 2015

दीवारें हैं यहाँ



 अमित अग्रवाल
1-शहर---

सब दीवारें हैं यहाँ
चलती फिरती
या बस परछाइयाँ,
कोई इंसान नहीं.
        ये शहर पत्थरों का है
        या तिलिस्मात
        छलावों का,
        यहाँ भगवान नहीं.
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2-उषा बधवार
1-पानी

जीवन का मसद पानी
धरातल में पानी, रसातल में पानी
पानी बिना त्राहिमाम्  त्राहिमाम् प्राणी.
 पानी ही कुदरत की नियामत सुहानी
जीवन इस बिन लगता बेमानी.

न उसका रंग न उसका रूप.
मिल जाता जिस में बन जाता उसका स्वरूप.
कितने ही रूपों में मिलता है पानी
कभी नके भाप उड़ जाता गगन में,
 या कभी नके बूँद वापिस आता धरा प
बर्फीले पहाड़ो पर चाँदी की चमक जैसे
जन्नत का तोफा ,रवानी
जीवन इस बिन लगता बेमानी

लाखों पदार्थ बिन इसके फीके
गंगा और जमुना का अमृत -सा पानी
जीवो की मुक्ति का साधन बना यह
हीं  निर्मल कही गँदला
हीं नीले आकाश जैसा सुन्दर
हर प्यासे की मंज़िल है पानी
जीवन इस बिन लगता बेमानी

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2-ज़िन्दगी से मुलाकात

वक़्त की दौड़ में भागी ज़िन्दगी को पहचाना नहीं
कटती गई इसी कशमकश में
हम खुद में ज़िन्दगी को तलाशते रहे .
इसलिए इसको पहचाना नहीं.
        यूँ तो ख्वाहिशों और ख्वाबो का दरिया है.    
तमन्नाओं में डूब हर कोई गोते लगाता हैं
क्या इसकी परिभाषा हैं बस जीने की अभिलाषा हैं
सँवर जाती तो दुल्हन- सी लगती हैं
बिखर जाती तो बनती तमाशा हैं.
बन्ध जाती हैं जब मोह पाश में
फिर होड़ लगे सब कुछ पाने की
दुःख दर्द न हो पीड़ाःन हो उल्लास ख़ुशी से पूर्ण हो
थोड़े  से मन भरता ही नहीं
यह चाहत है सारे ज़माने की.
ज़िन्दगी जीने का जनून न बन जा
जियोसी शान से  कि सदियाँ बीत जाएँ भुलाने में
मिसाल बन जाये ज़माने में
मिलती नहीं बार -बार हमारे चाहने से
खुश रहो खुश रहने दो न तोड़ो दिल किसी का
प्यार से सब मिलके गुन ग़ुनाओ
एक नगमा बन जाये ज़माने में
यूँ तो इक किताब हैं ज़िन्दगी
जिसके पन्नें पलट कर पीछे की और जाते रहे.
वक़्त के पहियों पर पल पल नया रास्ता बनाती ज़िन्दगी
तुम बिन अर्थहीन अस्तित्व है हमारा अये ज़िन्दगी !

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