सत्तर पार की नारियाँ/ शशि
पाधा
मन
दर्पण में खुद को ही
तलाशती हैं नारियाँ
क्यों इतनी बदल जाती हैं
ये सत्तर पार की नारियाँ
रोज़-रोज़ लिखती हैं
अपने
नए अनुबंध, नए
अधिकार
बदला- बदला-
सा लगता है
उनको नित्य अपना संसार
वक्त की दहलीज पर भी
दूर तक निहारती हैं नारियाँ
उस पार क्या अब ढूँढती हैं
ये सत्तर पार की नारियाँ
चुपचाप कहीं धर देती हैं
अपने अनुभवों की गठरी
फेंक ही देते हैं लोग अक्सर
यों बरसों पुरानी कथरी
दीवार पर टँगी
तस्वीर में
खुद को पहचानती हैं नारियाँ
फिर मन ही मन मुस्कुरातीं हैं
ये सत्तर पार की नारियाँ
बदल लेती हैं सोच अपनी
देख जमाने के रंग-ढंग
धरोहर- सा रहता है उनका
अतीत,सदा अंग- संग
फिर
बचपन की गलियों में
लौट जाती हैं नारियाँ
फिर से वही बच्ची हो जाती हैं
ये सत्तर पार की नारियाँ|
सह ही लेती हैं चुपचाप
कोई दंश हो या चुभन
जानती हैं क्या है आज की
दुनिया का बदला चलन
फिर चुप्पी का महामंतर
साध लेती हैं नारियाँ
कितनी समझदार हैं ये
सत्तर पार की नारियाँ
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बहुत भावपूर्ण कविता।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आदरणीया शशि दीदी
सादर
बहुत भावपूर्ण कविता।
ReplyDeleteबधाई आदरणीया शशि दीदी
सादर
उनके सुख और दुःख, उनकी आकांक्षाऍं और ऑंसू सब दबे रहते हैं सत्तर पार तक , अच्छी रचना है, हार्दिक शुभकामनाऍं।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखा है आपने हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुरभि डागर
बहुत सुंदर, सत्तर पार की नारियों का यथार्थ चित्रण करती भावपूर्ण कविता। हार्दिक बधाई शशि जी। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसत्तर पार की नारियों की मनःस्थिति को बहुत सुंदरता से अभिव्यक्त करने के लिए शशि जी को बधाई 💐
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव, आदरणीया शशि दीदी!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
कितने सुंदर भाव कविता के
ReplyDeleteमेरी रचना को स्नेह देने के लिए आप सब का आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना. यूँ सत्तर पार की नारियाँ हों या कोई भी नारी सभी की यही व्यथा. भावपूर्ण रचना के लिए बधाई शशि पाधा जी.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता... हार्दिक बधाई शशि जी।
ReplyDeleteअत्यंत अनुभवों से पूर्ण कविता है शशि जी। यह केवल ७० पार की नारियाँ ही समझ सकती हैं । बहुत खूब रचना है हार्दिक बधाई स्वीकारें। सविता अग्रवाल “सवि”
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