1-सीमाओं की आँखें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आगे ही ये बढ़े कदम
पर्वत पर भी चढ़े कदम
नाप दिया है सागर को
चट्टानों पर चढ़े कदम ।
हर कदम की अमिट निशानी
बन जाती इतिहास है ।
करती तोंपें घन-गर्जन
थर्रा उठता नील गगन
रणभेरी की लय सुनकर
खिल उठता है अपना मन।
झड़ी गोलियों की लगती
हमे प्यारा मधुमास है ।
अँधड़ शीश झुकाते हैं
कुचल उन्हें बढ़ जाते हैं
मिट्टी में मिल जाते वे
जो हमसे टकराते हैं ।
सीमाओं की आँखें हम
यही अपना विश्वास है ।
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2-स्वप्न-
डॉ शिवजी श्रीवास्तव
एक अजीब स्वप्न देखा
मैंने कल रात
मैं आमंत्रित था एक भोज में ,
बेशुमार भीड़ थी वहाँ
आदमी बस आदमी बस आदमी
धक्कामुक्की के बाद आखिर मैंने
प्लेट उठाई और
पहुँच गया पंडाल के अन्दर
अगणित मेजों पर सजे थे तमाम डोंगे
मैंने एक डोंगे को खोला
मैं चौंक गया
डोंगे में किताबे थीं
ढेरो किताबें
छोटी किताबें
बड़ी किताबें
पतली किताबें
मोटी किताबें
मैंने झट दूसरे डोंगे में झाँका
वहां भी किताबें थीं
बदहवास होकर मैंने तमाम डोंगे खोल डाले
हर डोंगे में किताबें थीं
सिर्फ किताबें
मैंने परेशानी से अपने चारों और नज़रें दौड़ाईं
मैं हैरान रह गया
लोग बड़ी तसल्ली से डोंगे खोल रहे थे
किताबें परोस रहे थे,
किताबें सूंघ रहे थे,
किताबे चख रहे थे
किताबें खा रहे थे
और शनैः शनैः खुद भी किताबों में तब्दील होते जा रहे थे
ऐसी किताबो में
जिन्हें मैं देख सकता था
छू सकता था
पढ़ सकता था
चूम सकता था,
और गले लगाकर प्यार भी कर सकता था।
स्वप्न टूट गया।
सोच रहा हूँ ,
काश!
यह सपना सच हो सकता।
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3 - सुशीला
शील राणा
1.
साँस-साँस थी देश की, कंठ-कंठ यह राग
ठंडी कैसे हो गई, देश प्रेम की आग
नेता जी को याद अब नोट-वोट का खेल
भूल गए कुर्बानियाँ, जलियाँवाला बाग
2.
अब ना ज़िक़्र
शहीद का, बस गिनती में वोट
शर्मिंदा आज़ाद हम, सह लेना यह चोट
दिन-दिन ढहते जा रहे, नैतिकता के स्तंभ
खरे नकारे जब गए, सर चढ़ बोला खोट
3.
परख रही है ज़िंदगी, क्या किसका क़िरदार
देख रही है तेल भी और तेल की धार
बेग़ैरत मक्कारियो! सबक रहे ये
याद
धूल चटाए शाह को बुरी वक़्त की मार
4
रिश्ते-नातों को सदा, जीभर सींचो शील
रखना मन मज़बूत जब, चुभे पाँव में कील
हिल-मिल रहना प्यार से, ज्यों सरवर में हंस
खिलें कँवल विश्वास के, मन की शीतल झील
5.
तारे चूनर टाँकके, रजनी हुई विभोर
करे ठिठोली चंद्रमा, बदरा भी मुँहजोर
चंचल चपला दामिनी, करती है भयभीत
चल चलते हैं चाँदनी, धरती के उस छोर
-0-
4- हस्ताक्षर
हैं पिता
डॉ. लता अग्रवाल
चली आती थीं
सायकिल पर
होकर सवार
खुशियाँ,
शाम ढले
नन्हे-नन्हे उपहारों में
संग पिता के
घर का उत्सव थे पिता ।
संघर्षों के
आसमान में
बरसती बिजलियों से
लेते लोहा
ऐसी अभेद्य दीवार थे पिता ।
चिंताओं के कुहरे से
पार ले जाते
अनिश्चय के भँवर में
हिचकोले लेती
नाव के कुशल पतवार थे पिता ।
चहकते रहते थे रिश्ते
महकती थी
उनसे प्रेम की खुशबू
सम्बन्धों के लिए
ऐसी कुनकुनी धूप थे पिता ।
जिन्दगी की
कड़ी धूप में
नहला देते
अपने स्नेह की
शीतल छाँह से
ऐसे विशाल बरगद थे पिता ।
घर -भर को
नया अर्थ देते
जिन्दगी के
रंगमंच के
अहम किरदार थे पिता ।
हर परीक्षा में
हमारी
सफलता -असफलता की
रिपोर्ट कार्ड के
महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे पिता ।
आज
उत्सव के अभाव में
गहरा सन्नाटा है घर में
चहुँ ओर
कड़कती हैं बिजलियाँ ।
जीवन नैया
फँसी है भँवर में
कुनकुनी धूप के अभाव में
दीमक खा गई
रिश्तों को
एक अहम किरदार के बिना
सूना है
जीवन का रंगमंच
सफलता – असफलता के
प्रमाणपत्र
बेमानी है
एक अदद हस्ताक्षर के
बिना ।
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डॉ. लता अग्रवाल , 73 यश विला, भवानी धाम-फेस-1 ,
नरेला शंकरी , भोपाल-262041
रणभेरी की लय सुनकर
ReplyDeleteखिल उठता है अपना मन।
रणभेरी की लय.....कमाल रचा भैया।
और शनैः शनैः खुद भी किताबों में तब्दील होते जा रहे थे -कितना सुंदर स्वप्न !! वाह वाह डॉ शिवजी श्रीवास्तव को अति सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई
घर का उत्सव थे पिता ।
कुनकुनी धूप के अभाव में
दीमक खा गई
रिश्तों को
बहुत ही सुंदर और मर्मस्पर्शी कविता के लिए डॉ लता अग्रवाल को बधाई !!