1- पिता-अनिता ललित
माँ के माथे का हैं सूरज, बच्चों की मुस्कान पिता ,
घर भर की खुशियों की ख़ातिर, हो जाते क़ुर्बान पिता।
घर भर की खुशियों की ख़ातिर, हो जाते क़ुर्बान पिता।
सर्दी-गर्मी-बारिश सहते, करते ना आराम कभी ,
सब की ख़्वाहिश पूरी करते, खटते सुबहो-शाम पिता।
सब की ख़्वाहिश पूरी करते, खटते सुबहो-शाम पिता।
रौबीली आवाज़ सुनाती, कठिन तपस्या के क़िस्से ,
भीतर से निर्मल, कोमल-मन, दिखने में चट्टान पिता।
भीतर से निर्मल, कोमल-मन, दिखने में चट्टान पिता।
सुर्ख़-उनींदी आँखें खोलें, राज़ अधजगी रातों का ,
बच्चों को परवान चढ़ाते, खो देते पहचान पिता।
बच्चों को परवान चढ़ाते, खो देते पहचान पिता।
शाम ढले जब वापस आते, घर में रौनक छा जाती ,
दीवारें भी हँस पड़ती हैं, घर की ऐसी शान पिता।
दीवारें भी हँस पड़ती हैं, घर की ऐसी शान पिता।
अनुशासन का पाठ पढ़ाते, मुस्काना भी भूल गए ,
पथरीली राहों पर चलते, हर सुख से अंजान पिता।
घर पर आँच न आने देते, दुनिया से लड़ जाते हैं ,पथरीली राहों पर चलते, हर सुख से अंजान पिता।
माँ के मन-मंदिर में बसते, हैं ऐसे भगवान पिता।
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2-गीत-अनिता मंडा
आधार= सार छंद 16+12=28(अन्त में 2 गुरु)
तुम ही सूरज तुम ही चंदा, तुम ही जीवन मेरा।
पाकर तुम को पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।
बनकर ख़ुशबू तुम्हीं समाए, उपवन के फूलों में।
तुम्हीं प्रेम की पींगें बनते, सावन के झूलों में।
प्रेम सुधा का सावन बरसे, भीगे तन-मन मेरा
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।
नभ पर चाँद सितारे लिखते नित ही प्रेम कथाएँ
पाया उर ने परस प्रेम का, सारी मिटीं व्यथाएँ।
आशाओं ने पथ दिखलाया, निर्भय अब मन मेरा।
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।
उड़े भोर में जो थे पंछी, साँझ ढले घर आए।
मन का बंधन मन ही जाने, कब खुले बंध जाए।
प्रेम तुम्हारा बना साधना, लूटे कौन लुटेरा।
पाकर तुमको पाया मैंने, फिर से नया सवेरा।
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3-परंपरा-कृष्णा वर्मा
सच में बड़े हो रहे हो तुम
मन मुताबिक चुनने जो लगे हो अब
अपने कपड़े और जूते
हाँ फ़ीते भी तो बाँधना सीख गए
हो
बातों को साधना ही नहीं अब
घुमा-फिरा कर इच्छाओं को
व्यक्त करना भी सीख गए हो
अच्छी कोशिश कर लेते हो
बिना रोए रूठे अब तो
मनुहार कर
अपनी बात मनवाने की
मेरी बात-बात पर
प्रश्न-चिह्न और
मेरे सवालों पर
तुरन्त सूझने लगे हैं अब
तुम्हें उत्तर
तुम्हारी बढ़ती ऊर्जा ने
फिर इक बार बदल दी है
मेरे विचारों की सतह
धैर्य पर और भी मजबूत
होती जा रही है
तुम्हारी आजी की पकड़
पहले से कहीं अधिक
चटक हो चले हैं
मेरे सपनों के रंग
और प्रेम घट में भी
कुछ ज़्यादा ही
भरने लगी है मिठास
तुम क्या जानो
तुम्हारी आँखों में टँकी
जिज्ञासा ने
कैसे बढ़ा दी है मेरी
कहानियाँ कविताएँ गढ़ने की
क्षमता
सच कहूँ तो
पल-पल तुम याद दिलाते हो
मुझे
अपने पिता का बाल्यकाल।
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4-डॉ सिम्मी भाटिया
1-संवेदनाओ से परे
राख के ढेर में
ढूँढ़ती
सूनी आँखें
कुछ अवशेष
पैरो तले पगड़ी
कर्ज़ में डूबा
विचलित मन
माँगे रह गयी अधूरी
मुट्ठी भर दाने
न निगले गए
निगल गया
दहेज़ दानव
कहाँ पहुँच गया मानव
चाह भौतिक सुख की
संवेदनाओ से परे
टूटते
सपने -आशाएँ
तिरस्कृत भावनाएँ
रह जाते अवशेष....
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2-प्रतिबिंब- डॉ सिम्मी भाटिया
ऐसा हो प्रतिबिंब
सृदृढ़ निराला
न हो काली छाया
राग द्वेष से परे
झलके प्यार
और उद्गार विचार
हो ऐसी सौगात
निर्मल सहज
मर्यादित भावनाएँ
उज्ज्ववल पारदर्शी
किरदार
असत्य से ओझल
रेशमी रिश्ते
कुसंगत से परे
मृदु शीतल अभिव्यक्ति
मनमोहक व्यवहार
महकता व्यक्तित्व
धूल छँटे आईना
ऐसा हो प्रतिबिम्ब
-0-
अनिता ललित जी पिता की भूमिका को सम्पादित करता बहुत भावपूर्ण व लयबद्ध गीत,बहुत अच्छा लगा। बधाई।
ReplyDeleteकृष्णा जी बाल्यवस्था से कैशोर्य की और बढ़ते कदमों के साथ माँ की फ़िक्र और ख़ुशी दोनों को आपने अपनी रचना में समेट लिया है बड़ी ही सुंदरता से वाह, बधाई।
सिम्मी जी सामाजिक कुरीति दहेज की विभीषिका को बताती आपकी वैचारिकी को सलाम। बहुत अच्छा लिखा है। प्रतिबिम्ब भी अच्छी लगी। आपको बहुत बधाई।
आदरणीय संपादक जी मेरी रचना को इतनी उत्कृष्ट रचनाओं के बीच स्थान देने हेतु हृदय से आभार।
अनमोल रत्नों का अनुपम ख़ज़ाना ! सभी कविताएँ बहुत सुंदर हैं !!
ReplyDeleteपिता पर बहुत सुंदर ,संवेदनाओं से परिपूर्ण रचना अनिता ललित जी ,सखी हार्दिक बधाई !
बहुत प्यार भरा प्यारा गीत प्रिय अनिता ..दिल से बधाई ! किशोर मनोविज्ञान पर सुंदर प्रस्तुति कृष्णा दी ..! दहेज का दानव ज्वलंत समस्या डॉ सिम्मी जी ,बेहद सुंदर अंक ...बधाई ..शुभकामनाएँ संपादक जी 💐🙏💐
सभी एक से बढ़ कर एक रचनाएं . भावों गागर मवन सागर भर दिया .
ReplyDeleteबधाई
भावों के गागर में सागर भर दिया
ReplyDeleteसारी कविताएँ अति सुंदर,भावपूर्ण। सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसभी रचनाकारों ने बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति की है हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteसभी कविताएँ बहुत सुंदर ,रचनाकारों को बधाई | पुष्पा मेहरा
ReplyDeleteबढ़िया रचनाएँ, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....अनीता ललित जी,अनीता मंडा जी तथा सिम्मी भाटिया जी आप सभी को मेरी हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteek se ek sunder kavitayen man bharaaya badhi aap sabhi ko
ReplyDeleterachana
sabhi rachnaye ek se badhkar eak sabhi ko hardik badhai...
ReplyDeleteअनीता ललित जी,अनीता मंडा ,कृष्णा जी जी तथा सिम्मी भाटिया जी सभी कविताएँ बहुत सुंदर हैं !! इतनी सुंदर, भावपूर्ण ,उत्कृष्ट रचनाओं हेतु आप सभी को मेरी हार्दिक बधाई....शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteइन सभी रचनाओं में ज़िंदगी के अलग अलग रंग कितनी खूबसूरती से समेटे गए हैं...| कहीं पिता की छत्रछाया का अहसास है तो कहीं बड़े हो गए बच्चे से कहे गए माँ के उदगार...| दहेज़ का दानव आज भी कितनी जिंदगियां निगल रहा, इससे हम अनजान नहीं...| वहीँ ऐसा हो प्रतिबिम्ब हमें एक सकारात्मकता की ओर भी ले जाती है...|
ReplyDeleteइन सभी सार्थक रचनाओं के लिए मेरी हार्दिक बधाई...|