[दुनिया की भीड़ में ठगी खड़ी सी,अपने अंत को पुकारती एक वृद्ध कातर आवाज ने मन को बहुत विचलित कर दिया, अन्दर ही अन्दर आज इतना टूटी हूँ कि मन में एक संकल्प बोया है. ]
मंजु मिश्रा
मैं अब कभी,
किसी को, सौ बरस
जीने का आशीष
नहीं दूँगी !
यह आशीष नहीं
एक अभिशाप है,
एक सजा, जो
काटे नहीं कटती.
हर दिन
अपनी मौत की
कामना करते
कैसे रेशा-रेशा
हो कर उधड़ते हैं
एक एक कर
सारे रिश्ते !
ना तन में शक्ति,
ना मन में,
सब कुछ
बिखरा, बिखरा,
छूटता -सा,
टूटता- सा ..
तब लगता है -
नाहक ही
जीवन भर इन
रिश्तों को ढोया
बीज -बीज बोया .
हे ईश्वर !!
जोड़ती हूँ हाथ
बस इतनी रखना
मेरी बात,
जब तक
शरीर समर्थ है
जियूँ ,
फ़िर विदा देना
सम्पूर्ण गरिमा के साथ
-0-
rishto ko dhone ka dard.....bahut khub...aabhar
ReplyDeleteबहुत सही कामना ! एक महत्वपूर्ण और अच्छी कविता के लिए मंजु जी को बधाई !
ReplyDeletesach main her insaan ki ye hi kamanaa hoti hai ki jab tak jiye samman se jiye aur mare to bhi samman ke saath kisi per bhojh ban kar nahi.bhagwaan itani hi umra de ki hath perr chalte hi is sansaar se vida ho jayen.bahut hi saarthak aur sunder rachanaa.badhaai aapko.
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना!
ReplyDeleteकैसे रेशा-रेशा
ReplyDeleteहो कर उधड़ते हैं
एक एक कर
सारे रिश्ते !
ना तन में शक्ति,
ना मन में,
सब कुछ
बिखरा, बिखरा,
छूटता -सा,
टूटता- सा ..
These realistic lines are really touching
सुभाष नीरव जी, प्रेरणा जी, डॉ. शास्त्री जी एवं रवि रंजन जी आपकी भावपूर्ण टिप्पणियों के लिए हार्दिक धन्यवाद !
ReplyDeleteसादर
मंजु
वृद्धावस्था की गरिमा हम सबको बनाकर रखनी है। उनके अनुभव की आवश्यकता हम सबको है।
ReplyDeletebhaut hi sunder aur khubsurat rachna...
ReplyDeletevery touching....
ReplyDeleteनाहक ही
ReplyDeleteजीवन भर इन
रिश्तों को ढोया
बीज -बीज बोया .
उम्र के अंतिम पड़ाव पर यही विचार आते हैं मन में ..सशक्त रचना
दिल की गहराईयों को छूने वाली बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बहुत खूब ... हकीकत बयान की है आपने ... कौन जीना चाहता है १०० वर्ष ... हर कोई बस अच्छा जीना चाहता है ..
ReplyDeleteमंजु जी, आप अपनी रचनाऔ में इतने दर्द भर देती हैं कि आँखैं बरबस ही गीली हो जाती हैं और मन बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर हो जाता है|अंत समय की सच्चाई ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है|शरीर सक्षम हो तो सब कुछ ठीक है वरना...
ReplyDeleteशुभ कामनाओं सहित,
सादर
ऋता
बिल्कुल सही बात कही है ……………पूरी तरह से सहमत हूँ।
ReplyDeleteएक अत्यंत भावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteसादर...
Manju ji, jeevan ke antim parhao ki sachchai ko aapne bayaan kiya hai jise parhte parhte hi dil bhar aaya aur Bhagwan se yeh hi kaamna karne lage ki jab tak shareer samarth hai,jiyoon,phir vida dena.
ReplyDeletewith regards.
sunder kvita
ReplyDeleteएक अवसाद सा दीखता है ...पर नाहक नहीं...मन कि कठोरता अगर शरीर से ज्यादा होती है तो ये बहुत सहज भी होत है...कभी कभी शारीरिक चोटें तन को तोडती हैं तो मन जीत दिलवा देता है...मन अक्सर रिश्तों की चोट से टूटता है पर शरीर इसमे कुछ नहीं कर सकता...और रही सौ साल जीने कि बात...जिंदगी शायद लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव को सहेजे हुए एक सार्थक कविता...बधाई
dil ko sparsh karti is rachnaa ke liye bahut saari badhai....
ReplyDeleteशरीर समर्थ है
ReplyDeleteजियूँ ,
फ़िर विदा देना
सम्पूर्ण गरिमा के साथ
sahi kaha hai
pr ek baat kahun kabhi itna dur tak socha nahi tha pr aapki kavita ne jhakjhor diya .
bahut hi bhav purn kavita
rachana
सभी माननीय पाठकों की सार्थक टिप्पणियों के लिए आभार. यह मेरे लिए सिर्फ कविता नहीं है, वरन आपबीती है, ज़िंदगी ने सच्चाई को बहुत कटुता के साथ सामने रखा है. वैसे जानते तो हम सब हैं यह सत्य... ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु अटल सत्य है सब जानते हैं लेकिन फ़िर भी भूले रहते हैं जब तक अपने पर या अपनों पर नहीं बीतती.
ReplyDeleteसादर
मंजु
एक अत्यन्त भावपूर्ण और मार्मिक रचना...मन को अंदर तक झिंझोड़ कर रख दिया...।
ReplyDeleteप्रियंका