नवगीत
रमेश गौतम
फिर सुनहरी
पाँखुरी नोंची गई
फिर हमारी शर्म से गर्दन झुकी ।
फिर हताहत
देवियों की देह है
फिर व्यवस्था पर
बहुत सन्देह है
फिर खड़ी
संवदेना चौराहे पर
फिर बड़े दरबार की साँसे रुकी ।
फिर घिनौने क्षण
हमें घेरे हुए
एक गौरैया गगन
कैसे छुए
लौटती जब तक नहीं
फिर नीड़ में
बन्द रहती है हृदय की धुकधुकी ।
फिर सिसकती
एक उजली सभ्यता
फिर सभा में
मूक बैठे देवता
मर गई है
फिर किसी की आत्मा
एक शवयात्रा गली से जा चुकी ।
फिर हुई है
बेअसर कड़वी दवा
फिर बहे कैसे
यहाँ कुँआरी हवा
कुछ करो तो
सार्थक पंचायतों में
छोड़कर बातें पुरानी बेतुकी ।
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रमेश गौतम
रंगभूमि, 78–बी, संजय नगर,
बरेली-243001
-0-
2-कृष्णा वर्मा
कितना दुस्साध्य है
स्वयं को परिणत करना
लाख चेष्टाओं के बाद
कई बार विफल रही
तंग आ चुकी थी
अन्यों की बातें सुन-सुन
मेरी चुप्पी
उन्हें अपनी जीत का
अहसास दिलाती थी
जब-तब ज़ुबाँ की कमान पर
शब्दों के बाण कसती
तोड़ने लगी मैं अपनी चुप्पी
आए दिन बंद होने लगे
एक-एक कर हृदय की
कोमलता के छिद्र
और दिनो-दिन लुहार- सा
कड़ा होने लगा मेरा मन
खिसकने लगे मुट्ठी में बँधे
आचार व्यवहार संस्कार
धीरे-धीरे चेहरे ने भी सीख लिया
प्रसन्नता ,आक्रोश
स्वीकृति, अस्वीकृति का
प्रदर्शन करना
फूटने लगे थे बोल भी
अब तो फटे ढोल से
कर्कश शब्दों की संख्या
बढ़ने लगी थी दैनिक बोली में
समय और परिस्थितियों की
माँग पूरी करते-करते
चेहरा जैसे चेहरा न रह
मुखौटा हो गया था
धीरे-धीरे बदलती जा रही थीं
सोच की दिशाएँ
जीवन के रंगमंच पर
प्रतिपल का जीना
नाटक -सा लगने लगा
ईर्ष्या का घुन
सयंम की लाठी को
लगातार खोखला
किए जा रहा था
यूँ लगने लगा-
ज्यों हारने लगी हूँ
दुनियावी कसीनो में
संस्कारों की संचित पूंजी को
एक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना।
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फिर सुनहरी
ReplyDeleteपाँखुरी नोंची गई
फिर हमारी शर्म से गर्दन झुकी ।
behad sundar geet...
एक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना
bahut khub! bahut bahut badhi dono rachnakaron ko...
हार्दिक धन्यवाद ,बहुत आभारी हूँ
Deleteकृष्णा जी बहुत भावपूर्ण,शिक्षपरक व संस्कारों के
ReplyDeleteमहत्व से अवगत कराती कविता।ऐसे लगा मन में
मेरे थी लिख दी आपने।बधाई।
रमेश जी सुंदर गीत के लिए बधाई।
ReplyDeleteRamesh ji aur krushna ji aap dono ko maarmik navgeet aur bhaavpoorn rachna karne ke liye haardik badhaai.
ReplyDeletekrishna ji ki kavita ki antim do panktiyan bahut hi arthpurn hain ramesh ji ka sukumar kali si balikaon va samast nari jeevan ki vidambana par likha navgeet marmgrahi hai.dono ko badhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
लड़कियों की वास्तविक स्थिति को प्रस्तुत करता मार्मिक गीत....रमेश जी बधाई।
ReplyDeleteफिर घिनौने क्षण
ReplyDeleteहमें घेरे हुए
एक गौरैया गगन
कैसे छुए
लौटती जब तक नहीं
फिर नीड़ में .................bht sunde naari jaati bhut maarmik rchnaa , एक गौरैया गगन ye pnktiyaan ldki aur एक गौरैया ko donon ko drishyaa rhi hae .
बन्द रहती है हृदय की धुकधुकी ।
naari shoshan ki vythaa ko darshti sundr rachnaa , kvi ne khaa -- naari jivn haay teri yhi khaa ni
aap dono ko badhaai
जब-तब ज़ुबाँ की कमान पर
शब्दों के बाण कसती
तोड़ने लगी मैं अपनी चुप्पी
आए दिन बंद होने लगे
एक-एक कर हृदय की
कोमलता के छिद्र
फिर सुनहरी पांखुरी ....और ...
ReplyDeleteएक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना।
दोनों रचनाएँ बहुत गहरे अहसास लिए दिल तक जाती हैं ,बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं !
बहुत बधाई दोनों रचनाकारों को ..सादर नमन !
फिर सुनहरी पांखुरी ....और ...
ReplyDeleteएक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना।
दोनों रचनाएँ बहुत गहरे अहसास लिए दिल तक जाती हैं ,बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं !
बहुत बधाई दोनों रचनाकारों को ..सादर नमन !
रमेश जी आप का आये दिन की घटना को वर्णित करता गीत बहुत सुंदर बना है ।हार्दिक वधाई ।एक दिन सहसा अहसास हुआ ... अपितु कठिन है प्राप्य को बचाना ।यह कविता कृष्ना जी मन की उथल पुथल को दर्शाती भी बहुत अच्छा लगी। नारी मन को ही एहसास होता है राह से भटकने से बचने का ।आप दोनों को इतनी सुन्दर रचना के लिये वधाई ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ,बहुत आभारी हूँ
Deleteजीवन के रंगमंच पर व्याकुल आत्मा कैसे अपने प्राप्य को बचाए, कहाँ जाए गौरैया आसमान जो पड़ गया छोटा … बहुत सशक्त रचना. रमेश जी और कृष्णा जी को बधाई.
ReplyDeletebahut sundar sandesh pradhaan geet hai pankhru lonchi gai hai
ReplyDeletedhanyabad
हार्दिक धन्यवाद ,बहुत आभारी हूँ
Deleteरमेश गौतम जी के गीत का एक एक शब्द आज के हालत के कटु सत्य को उजागर करता है।
ReplyDeleteफिर व्यवस्था पर
बहुत सन्देह है.…सच में व्यवस्था के होने पर भी संदेह है, क्यूंकि सब अस्त-व्यस्त और निरंकुश ही है।
फिर सिसकती
एक उजली सभ्यता
फिर सभा में
मूक बैठे देवता………देवताओं के मूक रहने का ही तो यह नतीजा है , कि गली गली राक्षसों का बोलबाला है और समाज की अस्मिता खतरे में है
स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना
कृष्णा जी की इन दो पंक्तियों में सम्पूर्ण जीवन का दर्शन अभिव्यक्त हो गया है
रमेश जी की कविता दिल पर गहरे तक असर करती है | बधाई...|
ReplyDeleteकृष्णा जी...प्राप्य को बचाना सच में मुश्किल ही है | बहुत सार्थक रचना | बधाई...|