पथ के साथी

Friday, February 28, 2025

1451

 रुत वासन्ती आती है...

             प्रणति ठाकुर

 


आम्र मंजरी की मखमल सी राहों पर पग धर- धरकर 

शुभ्र, सुवासित अनिल श्वास में,पोर - पोर में भर -भरकर

ये अवनी सुखदा सज-धज  जब राग प्रेम के गाती है 

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

 

जब मदन बाण से दग्ध हृदय ले कली- कली खिल जाती है

जब पीत रंग का वसन पहन ये धरा मुदित मुस्काती है 

जब अंतर का अनुताप सहन कर कोकिल गीत सुनाती है

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

 


जब पथिक हृदय का प्रेम प्रगल्भित हो  पलाश का फूल बने 

जब अलि कुल का मादक गुंजन गोरी के मन का शूल बने

जब पनघट पर परछाई को लखकर मुग्धा शरमाती है

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

 

जब साँझ-भोर के मिलन डोर को थामे रात सुहानी- सी

जब टीस हृदय में उठती हो उस निश्छल प्रेम पुराने की 

जब चारु अलक  की मदिर याद नागन बनकर डस जाती है

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

 

गोरी के मन की पीड़ बढ़ाती विरह - व्यथा जब मुस्काए

निज श्वासों के ही मधुर गंध विरहन मन को जब बहलाए

अपने पायल की छुन -छुन जब पलकों की नींद उड़ाती है 

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

 

साँसों में मलय बयार लिए, अधरों पर मधुर पुकार लिये

अनुरक्त नयन के पुष्पों से सज्जित पावन उपहार लिये 

परदेसी की द्विविधा चलकर जब विरहन  द्वारे आती है

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

तब शिशिर शिविर में हलचल करती रुत वासन्ती आती है।

-0-

Saturday, February 22, 2025

1450-दो कविताएँ

 

अनुपमा त्रिपाठी 'सुकृति'

1


भोर का बस इतना

पता ठिकाना है
कि भोर होते ही
चिड़ियों को दाना चुगने
पंखों में भर आसमान
अपनी अपनी उड़ान
उड़ते जाना है...!!!
-0-

2

आकंठ आमोद संग

प्रमुदित प्रभास का

सुगन्धित स्पर्श...

मृदुमय शांत वातावरण में अमृत घोलता...

चहचहाते पक्षियों का कलरव...

स्वयं से स्वयं तक की यात्रा का

प्रथम पड़ाव...

प्रात इस तरह हो

तो जीवन की गाथा लिखना

हृदयानंदित करता है...!!!

-0-

 

Thursday, February 13, 2025

1449-तीन कविताएँ

 

1-मखमली अहसास— रश्मि विभा त्रिपाठी

तुम्हारे होंठ
गुलाब की पंखुड़ी हैं
ये पंखुड़ियाँ
हिलती हैं जब
साफगोई की हवा के तिरने से
जज़्बात की शबनम के गिरने से
तब
ख़ुशबू में लिपटे
तुम्हारे लफ़्ज़
महका देते हैं
हर बार मुझे

रेशम- सी हैं
तुम्हारी हथेलियाँ
जो सोखती हैं
मेरी आँखों की नमी
तुमने जब मेरा सर सहलाया था
तो तुम्हारी उँगलियों के
पोरों के निशान
पड़ गए
मेरे भीतर
उनसे मुझे पता चला
कि दुनिया की सबसे कोमल शय
तुम्हारी रूह है

तुम्हारे सीने से लगके
मुझे महसूस हुआ
कि तुमने रख दिए
मेरे गालों पे नर्म फाहे
आज जी चाहे
बता दूँ तुम्हें
मैंने तभी जाना—
कपास
प्रेमी के हृदय में सबसे पहले उगा होगा
इसलिए तो तुम्हारी तरह दिव्य है,
पवित्र है,
निष्कलंक है
और रूह को सुकून देने वाला है
तभी तो ईश्वर ने भी उसे ढाला है
मंदिर की जोत में,
तुम‐ सा वह
फरिश्ता है
हर घाव जो रिसता है
उसपे मरहम मले
दे दर्द से मुक्ति
बिछ जाता है
थकान के तले
जब तुमने बाहें फैलाई थीं
मेरे लिए
और मैं आकर
तुमसे लिपटी थी
तो लगा था
तुमने बिछा दिया है
मेरे लिए
एक घास का गलीचा हरा
मैं हिरनी- सी कुलाचें मारने लगी थी

दुनिया ने छील दिया है मुझे
मेरी खुरदरी ज़िन्दगी
इस हाल में
चाहती है पनाह
तुम्हारी बाहों के बुग्याल में
ताकि उतर आए मुझमें
तुम्हारा मखमली अहसास
जो हर टीस भुला दे
चैन की नींद सुला दे,
वक्त के बिस्तर पर
मैं जब लेटूँ
अतीत की चादर ओढ़कर।
—0— 



2-गौर से देखा होता कभी— रश्मि विभा त्रिपाठी

 

गौर से देखा होता कभी 

मेरी आँखें— 

सर्द स्याह रात के बाद 

निकली

भोर की पहली किरण 

पलकें उठतीं 

तो मिलती गुनगुनी- सी धूप 

ठिठुरता तन गरमाता

 

आँखों में सपनों के बादल

घुमड़ते

अवसाद का ताप 

मिट्टी में समाता

 

आँखों में 

नेह का सावन 

बरसता तेरी हथेली पर

हरियाली की 

फसल उगाता

 

तेरे होठों पर भी था 

पतझड़ के बाद का

बसंत 

मदमाता

लफ़्ज़ों के खिलते फूल 

तो रिश्ते का ठूँठ 

लहलहाता

 

तूने लगाया होता

सोच का रंग प्यारा

मेरा मन तो 

कबसे था हुरियारा

 

अहसास की पुरवाई 

तुझे छू पाती

खोली होती अगर 

तूने अपनी आत्मा की खिड़की कभी 

तूने बंद रखे खिड़की- दरवाज़े 

महसूस ही नहीं किया कभी

जो कर पाता

तो जानता 

कि

ज़िन्दगी खुद एक ख़ुशनुमा मौसम है 

तू खोया रहा 

वक्त के मौसम में

सोचा कि लौटेगा एक दिन तू 

उसके रंग में रँगकर

मगर

सीखा भी तूने तो क्या सीखा 

वक्त के मौसम से—

मौसम की तरह बदल जाना

जबकि वह बदलना था ही नहीं, नहीं दीखा?

वह था—

एक के आने पर दूसरे का उसे 

पूरी कायनात सौंप देना 

और खुद को 

उसके लिए गुमनाम कर देना 

यही दोहराता आया है क्रम

एक दूसरे के लिए हर बार हर मौसम।

मौसमों का बदलना प्यार है—

सच्चा प्यार!

अफ़सोस 

मौसम जानता है

प्यार क्या है

इंसान को नहीं पता 

इतना जहीन होकर भी।

—0—

3-खिलता गुलाब हो तुम— रश्मि विभा त्रिपाठी

 

तुम्हारे नेह की नाज़ुक पंखुरियाँ
झर रही हैं
मन की तपती धरती पर
ज़िन्दगी के मौसम में बहार आ गई है

इन दिनों
मेरे ज़ख्मी पाँव पड़ते हैं
जहाँ- जहाँ
चूम लेता है हौले से
मेरे दर्द को
तुम्हारा मखमली अहसास—
मेरी आत्मा में घोल दिया है तुमने
अपना जो यह इत्र

क्या बताऊँ कि है कितना पवित्र!!
माथे पर तुमने जो रखा था
वह बोसा गवाह है
कि हर शिकन को मिटाता
तुम्हारा स्पर्श
पूजा का फूल है
हर मुराद फलने लगी है
नई उमंग नजर में पलने लगी है
आँखों में है तुम्हारा अर्क
महक रही हूँ मैं
वक्त का झोंका
जब भी आता है
और महक जाती हूँ मैं
नींद के झोंके में भी
अब मुझे यही महसूस होता है—
ख़ुशबू का ख़्वाब हो तुम
दुनिया के जंगल में
काँटों के बीच
खिलता गुलाब हो तुम।

—0—

Wednesday, February 5, 2025

1448-बिन माँ का बच्चा

 

- रश्मि विभा त्रिपाठी



बिन माँ का बच्चा
अपनी माँ समान मौसी से
अब बात नहीं कर पाता
उस पर लग गया है
सख़्त पहरा
रोता है, कराहता है
जानना चाहता है
बाप, चाचा, दादी की बेरहमी का
राज गहरा

जब सुनता है
कि बाप को चाहिए हिस्सा
माँ की जायदाद में से
खुश होता है
अपने मन के मरुथल में
इच्छाओं के बीज बोता है
इच्छाएँ जो कभी फली- फूली नहीं

सोचता है-
पापा इतने भी बुरे नहीं
मौसी से बात करानी बंद की है
मेरे ही भले के लिए

फिर गिनने लगता है बच्चा
अपनी नन्ही उँगलियों पर कुछ
मुस्कराते हुए

बच्चा खरीदेगा
खिलौने
जिसके लिए बाप ने कभी
पैसे नहीं दिए

वो खरीदेगा अपने सपनों का कद
सपने— जो रह गए बौने
जिन्हें पालने- पोसने के लिए
बाप ने
उसे कभी नहीं दी
भरपूर नींद

वो खरीदेगा
घर का एक कोना
जो नई माँ के आने पर
उसे कभी नहीं मिला 

स्थायी तौर पर

वो खरीदेगा सुराग
माँ की उन चीजों का
जो बाप ने बेकार समझकर फेंक दी थीं
जो माँ ने कभी
अपने हाथों से छुई थीं
जिनमें माँ का स्पर्श था
वो तलाशेगा उन चीजों में
अपनी माँ के होने का अहसास

वो खरीद सकेगा थपकियाँ
जो माँ की याद में हुड़कते हुए
बाप ने नहीं दीं कभी
उसे चुप कराने के लिए

वो खरीद सकेगा हर करवट पर
तखत के दूसरी ओर के
खाली पड़े रहे हिस्से में
पिता की जगह,
जहाँ बाप कभी नहीं लेटा
उसे उसकी माँ से
हमेशा से बिछड़ने के गम से
उबारने के लिए

वो खरीद सकेगा
रात होते ही
उसे बाहर अकेला पड़ा छोड़ गए
कमरे में जाते
बाप के बिस्तर पर
दूसरी माँ के और बाप के बीच बिछा वही बिछौना
जैसे उसकी माँ बिछाती रही
मरते दम तक
उसके लिए

वो खरीद सकेगा
अपना हर काम
अपने हाथों से करते हुए
हाथों में पड़े छालों के फूटने पर हुए दर्द की दवा
जो बाप ने कभी नहीं दी उसे

वो खरीद सकेगा अपनी बेगुनाही
जो सौतेली माँ ने अपनी हर गलती उस पर डाली थी
तब खुद को बेकसूर साबित करने को नहीं थी उसके पास

बच्चा खरीद सकेगा अपना हक
जो घर में मौजूद
उसकी माँ की हर चीज पर
सौतेली माँ ने जमा रखा है
सिवाय ममता को छोड़कर

 

खरीद सकेगा

अपना भी हिस्सा 

माँ का सबकुछ 

जो उसके हिस्से में आना था

अब दूसरी माँ के हिस्से में आ गया है

वो खरीद सकेगा
बाप नाम के आदमी के भीतर

रखने को एक बाप का दिल
जो उसने पति बनते ही

सुहागरात पर निकालकर रख दिया था
अपनी दूसरी दुल्हन के कदमों में
बच्चे से फेर लिया था मुँह
बच्चा घुटता रहा सदमों में

बच्चा खरीद सकेगा
थोड़ी शर्म भी बाप के लिए
जो माँ की बरसी से पहले
सेहरा सजाने पर उसे नहीं आई थी

वो खरीद सकेगा

अपनी माँ के लिए रत्ती भर इज्जत
जो उसे जीते जी
और मरने के बाद नहीं मिली कभी

बच्चा खरीदेगा
नानी के घर जाने के लिए
गर्मी की छुट्टियों के वही दिन
माँ के मरने के बाद
बाप आज तक कभी
ननिहाल की चौखट पर नहीं ले गया उसे
कि वह एक घण्टा भी बिताता
नाना- नानी का लाड़ पाता

बच्चा चाहता है
कि हिस्से में मिले
उन पैसों से बाप खरीदकर

 ले आएगा भगवान से उसके लिए
उससे एक बार मिलने को तरसते

अस्पताल के बेड पर लेटे 

नाना के लिए 

कुछ साँसें
जो उससे बिना मिले चले गए
ताकि वे फिर जी उठें
और वो उनसे मिल सके

बच्चा खरीद सकेगा
बूढ़ी नानी की बाहों में वही दम
फिर से झूला झुलाने को
कंत- कतैंया करने को
पाँव के जोड़ों की वही फुर्ती
पकड़म- पकड़ाई खेलने के लिए

बच्चा खरीद सकेगा
मौसी की आँखों की चमक
जो उससे मिलने के लिए रो- रोकर
गँवा दी है उसने

बच्चा खरीद सकेगा वो बचपन
जिसे बाप ने बीतने दिया
बगैर बेफ़िक्री, खेल, मौज- मस्ती के
हर वक्त के रोने के साथ

लेकिन सबसे पहले
खरीदना चाहता है बच्चा
थोड़ा– सा अमृत अपने लिए
माँ को जहर देकर मारने वाले

बाप की वजह से

फिलहाल तो बच्चा 

खरीदना चाहता है आजादी
जो माँ के हत्यारे के साथ रहने के डर से

उसे आजाद कराएगी।
—0—

Tuesday, February 4, 2025

1447

 

एडजस्टमेंट

लिली मित्रा

 


नीले सलवार-कमीज़ पर हरी बिंदी!!

कोई तुक बनता है क्या?

सूरज की रोशनी में घुटन

और

धुंध में जीवन का उजास

अटपटी सी सोच लगती है... ना?

एक पिंजरे में कैद पंछी आसमान को देख

जब पंख फड़कता होगा तो

ऐसा ही कुछ मन में कल्पना करता होगा…

उस पंछी के लिए 'एडजस्टमेंट' बस इतना

सा आशय रखता हो...शायद।

पर हर औरत ये कहती सुनाई देती है-

थोड़ा सा एडजस्ट करो...हो जाएगा।

एडजस्टमेंट औरत के शब्दकोश का एक जरूरी शब्द क्यों है?

और यही एक आवश्यक शब्द जब विद्रोह का बिगुल बजाता है

तो उसकी ध्वनि में अट्टहास का सुर नहीं

किसी जलतरंग की तरंग का लहरिया सुर होता है

जो पहले उसकी रगों में

फिर उसके परिवेश, तदनंतर संपूर्ण ब्रह्मांड

में फैल जाता है।

वह जुट जाती है इस शब्द के कई पर्याय बनाने में,

इस शब्द की नई व्याकरण गढ़ने में।

पर्याय का हर शब्द नए सन्दर्भानुकूल अर्थ-परिधान में

उपस्थित होता है

वो इस 'एडजस्टमेंट' का पिंजरा तोड़ता नहीं है-

पिंजरे की फांक से पूरा असमान खुद में

घसीट लेता है...

-0- फरीदाबाद, हरियाणा।

(मृदुला गर्ग जी की कहानी 'हरी बिंदी'  पढ़ने के बाद उपजी कविता)

-0-

Monday, February 3, 2025

1446

 

वासन्ती  पाहुन

शशि पाधा


वासन्ती  पाहुन लौट के  आया
डार देह की भरी-भरी
मंद-मंद पुरवा के झूले
नेह की गगरी झरी-झरी

 
उड़-उड़ जाए हरित ओढ़नी
जाने कितने पंख  लगे
रुनझुन गाए गीत पैंजनी
कंगना मन की बात कहे

 
ओझल हो न पल भर साजन
 
मुखड़ा देखूँ घड़ी-घड़ी।

कभी निहारूँ रूप आरसी
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अंग  सँवारे
बिछुआ सोहे पाँव धरूँ

 
जूही- चम्पा वेणी बाँधूं
 
मोती माणक जड़ी-जड़ी

 
रुत  वासन्ती सज धज आई
देहरी आँगन धूप धुले
आम्र तरू पे गाये कोयल
सौरभ के नव द्वार खुले

     
ओस कणों में हँसती किरणें
     
हीरक कणियाँ लड़ी-लड़ी

महुआ टेसू गँध बिखेरें
आँख मूँद पहचान करूँ
कलश प्रीत का छल- छल छलके
अँजुरी भर रसपान करूँ

   
मौसम ने सतरंग बिखराये 
   
धरा वासंती लाल-हरी

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