कृष्णा वर्मा
होश सँभला नहीं कि कराने लगते हो
कर्त्तव्यों का बोध
सिखाने लगते हो हदें
पनपती सोच में उठान से पहले ही
ठूँस देते हो व्यर्थ के भेद
उठने बैठने चलने फिरने हँसने मुसकाने पर भी
जड़ देते हो सदियों पुराना ज़ंग लगा ताला
घर की आबरू थमा कर कैसे
ताक पर रख देते हो उसकी सब चाहतें
कितनी बेदर्दी से कुतर देते हो उसके स्वप्न
घर भर की इज़्ज़त का कच्चा घड़ा
क्यों रख देते हो उसके निर्बल काँधों पर
कभी सोचा है, तुम्हारी
इज़्ज़त पर आँच न आने देने की
ज़िम्मेदारी तले दब के रह जाती हैं उसकी ख़ुशियाँ
उसके विकास का क़द
क्यों मान लेते हो गुनाह उसका लड़की होना
क्यों लाद देते हो असंतुलित दायित्वों का बोझ
जा ज़रा भाई के लिए चाय बना दे
पापा को खाना परोस दे
कभी माँ का हाथ भी बँटा लिया कर चौके में
जब देखो किताबों में मुँह दिए रहती है
अरे, सीख ले कुछ काम-काज अगले घर जाना है
नाक न कटवा दियो हमारी
अपनी नाक की चिंता के अलावा कभी बेटी की
खुशी की चिंता क्यों नहीं सताती
क्यों उसके ही बलिदान की प्यासी रहती है इनकी नाक
क्यों दिन-रात नसीहतों की मूसल से
कूटते हो उसके कोमल मन का ओखल
हम जन्में तो घर भर को घेर लेता है मातम
और वह जनमे तो पीटते हो थाली
वह तुम्हारा अभिमान और हम अपमान
वह आँख का तारा हम कंकरी
वह आँखों पर पलकें हम बोझ की गठरी
उसकी जवानी को छूट हमारी पर पहरे
हमारे लिए नकेल और ज़ंजीरें
और उसको एक लगाम तक नहीं
हमारे हाथों में इज़्ज़त का भारी पुलिन्दा
और उसके हाथ पर ज़ायदाद के काग़ज़
तुम्हारी अपनी ही खींची भेद की लकीरों का हैं यह अक्स
जो शर्मिंदगी बनकर आज खिंच रहा हैं तुम्हारे माथे पर
समय रहते कसते जो उसकी लगाम
तो आज इन हाथों को मलना न पड़ता पछतावे से
खुशी से थाली पीटते आपके यह हाथ आज
पीट न रहे होते अपना सिर
संस्कारों के सही विभाजक होते तो
लुटती न खुले आम तुम्हारे घरों की इज़्ज़त
यह कैसी बेरुख़ी है
क्यों नहीं बाँट पाते समादर संतान को
अपनी ही परछाई से पक्षपात क्यों
कैसे संभव होगी स्वस्थ संसार की कामना
चलो न माँ हम दोनों मिलकर लें
ऐसा दृढ़ संकल्प
जो कर दे आधी आबादी को भयमुक्त
और पलट कर रख दें संसार का दृष्टिकोण।
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पुरुषवादी मानसिकता पर प्रश्नचिह्न लगाती और सकारात्मक हल की पहल के संकेत देती सशक्त कविता।बधाई कृष्णा वर्मा जी।
ReplyDeleteनारी मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती ,सशक्त ,सुंदर भावपूर्ण कविता ।बहुत बहुत बधाई कृष्णा जी।
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति की बधाई।
Deleteसच कहा...यही मानसिकता है पुरुष प्रधान समाज की ....
ReplyDeleteसुंदर सृजन हार्दिक शुभकामनाएँ कृष्णा जी
नारी के हृदय की पीड़ा पर सुन्दर तथा भावपूर्ण सृजन.. हार्दिक बधाई आद.कृष्णा जी!
ReplyDeleteजाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे,भेद भाव सदियों से चल रहा है। हल जानते हुए भी कौन है जो रुकावट बना हुआ है, यह रुकावट बाहरी न होकर, कहीं हमारे अपने मन की ही तो नहीं....ढेर सारे प्रश्नों को उठती और सच को सम्बोधित करती सुंदर अभिव्यक्ति। आपको बधाई कृष्णा जी!
ReplyDeleteसंसार का दृष्टिकोण ही तो नहीं बदल पाया है, जिससे स्त्रियों की स्थिति ऐसी बनी हुई है. बहुत सुन्दर रचना, बधाई कृष्णा जी.
ReplyDeleteबहुत सशक्त रचना ,बधाई कृष्णा जी।
ReplyDeleteसंस्कारों के सही विभाजक होते तो
ReplyDeleteलुटती न खुले आम तुम्हारे घरों की इज़्ज़त
यह कैसी बेरुख़ी है
क्यों नहीं बाँट पाते समादर संतान को
bahut sunder
badhayi
rachana
नारी होने का बोध और उससे जुड़े अनेक प्रश्न उठाती कविता है कृष्णा जी |सुन्दर चित्रण किया है मन भाव का बधाई हो |
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