1-गिद्ध
-रमेशराज
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चहचहाती चिडि़यों के बारे में
कुछ भी नहीं सोचते।
वे सोचते हैं कड़कड़ाते जाडे़ की
खूबसूरत चालों है बारे में
जबकि मौसम लू की स्टेशनगनें दागता है,
या कोई प्यासा परिन्दा
पानी की तलाश में इधर-उधर भागता है।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
कोई दिलचस्पी नहीं रखते
पार्क में खेलते हुए बच्चे
और उनकी गेंद के बीच।
वे दिलचस्पी रखते हैं इस बात में
कि एक न एक दिन पार्क में
कोई भेड़िया घुस आएगा
और किसी न किसी बच्चे को
घायल कर जाएगा।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
मक्का या बाजरे की
पकी हुई फसल को
नहीं निहारते,
वे निहारते है मचान पर बैठे हुए
आदमी की गुलेल।
वे तलाशते हैं ताजा गोश्त
आदमी की गुलेल और
घायल परिन्दे की उड़ान के बीच।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
रेल दुर्घटना से लेकर विमान दुर्घटना पर
कोई शोक प्रस्ताव नहीं रखते,
वे रखते हैं
लाशों पर अपनी रक्तसनी चौंच।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चर्चाएँ करते हैं
बहेलिए, भेडि़ए, बाजों
के बारे में
बड़े ही चाव के साथ,
वे हर चीज को देखना चाहते हैं
एक घाव के साथ।
पीपल जो गिद्धों की संसद है-
वे उस पर बीट करते हैं,
और फिर वहीं से मांस की तलाश में
उड़ानें भरते हैं।
बड़ी अदा से मुस्कराते हैं
‘समाज मुर्दाबाद’ के
नारे लगाते हैं
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध।
-0-
2-आँसू
विभा रश्मि
ठहर जा
बाहर न निकल
झूल जा
पलकों के नुकीले
फलक थाम
हीरक कण-सा
चमक बिखेर
सरित तरंग सा- कलकल
निर्झर -सा झर
कोमल कपोल पर
बह निर्बाध
अंतस् के तंत कस
मंत्र पढ़
कुछ अनगढ़ा
अपढ़ा
तू पढ़ / गढ़ ले ।
संपूर्ण जी
आत्म प्रकाशित
लौ सा -जल
व्यथा में से
पा जा अनमोल
चाहें तुच्छ क्यों न हो
देने को या भरने को
रिक्त स्थान ।
प्रवाहित होने दे
भीतर का
सरल - तरल दृगों से
तोड़ के बंध / खोल के गाँठें
बंधकों को मुक्त कर ।
बाहर न निकल
झूल जा
पलकों के नुकीले
फलक थाम
हीरक कण-सा
चमक बिखेर
सरित तरंग सा- कलकल
निर्झर -सा झर
कोमल कपोल पर
बह निर्बाध
अंतस् के तंत कस
मंत्र पढ़
कुछ अनगढ़ा
अपढ़ा
तू पढ़ / गढ़ ले ।
संपूर्ण जी
आत्म प्रकाशित
लौ सा -जल
व्यथा में से
पा जा अनमोल
चाहें तुच्छ क्यों न हो
देने को या भरने को
रिक्त स्थान ।
प्रवाहित होने दे
भीतर का
सरल - तरल दृगों से
तोड़ के बंध / खोल के गाँठें
बंधकों को मुक्त कर ।
-0-
umda rachnaaye
ReplyDeleteदो अलग भावधारा प्रवाहित करती सुन्दर रचनाएँ !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई !!
गिद्ध के स्वभाव की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है रमेशराज जी।
ReplyDeleteविभा रश्मि जी आँसू कविता में क्या भाव पिरोएं हैं। बहुत अच्छे लगे।
इतनी अच्छी भावाभियक्ति के लिए दोनों को बधाई।
आदरणीय रमेशराज जी व्यंगात्मक रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteपीपल जो गिद्धों की संसद है-
वे उस पर बीट करते हैं,
और फिर वहीं से मांस की तलाश में
उड़ानें भरते हैं।
बड़ी अदा से मुस्कराते हैं
‘समाज मुर्दाबाद’ के
नारे लगाते हैं
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध।
आदरणीया विभा जी सार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteरिक्त स्थान ।
प्रवाहित होने दे
भीतर का
सरल - तरल दृगों से
तोड़ के बंध / खोल के गाँठें
बंधकों को मुक्त कर ।
रमेशराज जी, बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है आपकी रचना...| बहुत बधाई...|
ReplyDeleteविभा जी, बहुत अच्छी रचना...मेरी बधाई...|
ReplyDeleteभीतर का\सरल-तरल दृगों से\तोड़ के बंध\खोल के गाँठें\बंधकों को मुक्त कर|आँसू का स्वभाव-उसका दिल खोल कर बाहर आ अपने भावों को व्यक्त कर अपने मन का बोझ हलका करने का आवाहन काव्य रूप में सुंदर अभिव्यक्ति है,विभा जी बधाई|रमेशराज जी का व्यंग्य भी यथार्थ परक है बधाई |
बेहतरीन रचनाएँ।
ReplyDeleteरमेशराज जी, विभा जी आप दोनों को बहुत बधाई।
सुन्दर भावाभियक्ति के लिए रमेशराज जी, विभा जी
Deleteआप दोनों को बहुत बधाई।!!
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
ReplyDeleteचर्चाएँ करते हैं
बहेलिए, भेडि़ए, बाजों के बारे में
बड़े ही चाव के साथ,
वे हर चीज को देखना चाहते हैं
एक घाव के साथ।
व्यंग्य की पैनी धार के साथ सामाजिक विद्रूपता को दर्शाती यथार्थपरक रचना के लिए रमेशजी को बधाई
विभाजी बहुत प्यारी रचना , कल-कल कर प्रवाहित होती, संग चलने का आह्वान करती हुई ... बधाई सुन्दर सृजन के लिए
ReplyDelete