रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
तुमने कहा था-
“मत भेजना मुझे कोई पाती
पाती की भाषा
किसी को नहीं सुहाती;क्योंकि तुम्हारे शब्द
पोंछ देते हैं मेरी सारी उदासी
बिना तुम्हारे शब्दों का आचमन किए
मैं रह जाती हूँ नितान्त प्यासी
लोगों को मेरा प्यासा मरना
बहुत सुहाता है,
जीने से नहीं ,
ज़्यादातर का मेरे मरने से
विशेष नाता है ।
तुम्हारे शब्द छुप जाते हैं
मेरे आँचल में
और बन जाते हैं सुरभित फूल
यह सौरभ बहुतों को नहीं रुचता
लोग चाहते हैं कि
मेरे आँचल को काँटों से भर दें
और मुझे लहूलुहान होने के लिए
मज़बूर कर दें ।
हर लेते तुम्हारे शब्द
शीतल बयार बनकर
मेरे तन-मन की थकान
मुझे लगने लगता है जीवन
थार के बीच में मरूद्यान,
वे चाहते हैं -
भावनाओं के प्रदूषण में
मेरा दम घुट जाए
भावों का ख़ज़ाना जो मेरे पास है
सरे राह लुट जाए ।”
पाती न भेजने की तुम्हारी बात
मन मसोस कर मानी
व्याकुलता बढ़ी तो
तुम्हारे द्वार पर आया
होले से तुमको पुकारा -
“मैं आया हूँ यह जानने कि
तुम अब कैसी हो
कैसा महसूस करती हो
अँधेरों में खुश हो और
उजालों से डरती हो ?”
“अरे तुम आ गए !
तुम्हारी वाणी का एक -एक शब्द
मेरी थकान हरता है
मेरे रोम -रोम से होकर
दिल में उतरता है
तुम्हारी आवाज़ से
मैं जीवन पा जाती हूँ
खुशियों की वादियों में
दूर कहीं खो जाती हूँ ;
मैं चाहती हूँ कि मरने से पहले
एक बार तुम्हें देखूँ !”
“द्वार तो खोलो”-मैंने कहा -
यह तो तुम्हारे वश में है,
मैं बाहर घिरते तूफ़ान में
बरसों से तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूँ,
वह हँसी ,आँसुओं में डूबी हुई हँसी-
“अपने मन का द्वार
मैंने आज तक बन्द नहीं किया
ध्यान से देखो, द्वार भीतर से नहीं
बाहर से बन्द है
मैं अभिशप्त हूँ -
न मैं बाहर जा सकती हूँ
न किसी को बुला सकती हूँ।
बस मेरे लिए इतना करना-
मेरे द्वार पर आकर
अपनी शुभकामनाओं के
दीप मत धरना ।
इस शहर को आप जैसों से
अनजाना डर है,
इसीलिए है अर्गला बन्द,
दिमाग़ बन्द , दिल संकुचित
नज़रिया सामन्ती ,चाल अवसरवादी !
मेरा सुख यहाँ सबसे बड़ा दुख है ,
सबको चुभता है ,
दिल में बर्छी -सा खुभता है !
मेरे सहचर ! मेरे बन्धु !! मेरे चिर हितैषी !!!
लौट जाओ तुम ,जैसे लौट जाती है
सूरज की रौशनी शाम को !
लौट जाता है जैसे सौभाग्य
अभागों के बन्द द्वार से।
और लौटा लो अपने ये
अपनत्व- भरे सम्बोधन-
मेरे सहचर ! मेरे बन्धु !!
मेरे चिर हितैषी !!!”
मैं तब यह पूछता हूँ -
“सब पर लग चुकी बन्दिश
अब मैं क्या करूँ ?
साँसों के बिना घुटकर
रोज़ मरूँ ?
कैसे जानूँ तुम्हारा दुख ?
कैसे समझूँ तुम्हारी हूक
कैसे पहुँचाऊँ शब्दों के बिना,
अपनी आवाज़ के बिना
तुम्हें सुख ?
बस बचा है मेरे पास केवल सोचना -
सदैव तुम्हारा हित ,
कल्पनाओं में पोंछना तुम्हारे आँसू
ज्वर से तपते तुम्हारे माथे का स्पर्श
और फिर नितान्त एकाकी कोने में छुपकर
दबे स्वर में खुद रो पड़ना
अपनी विवशता पर
अपने ही उर में कील की तरह गड़ना !
मेरे प्रिय ,मेरे सहचर ,मेरे बन्धु !
मेरे परम आत्मीय !
कभी समय मिले तो
मेरा कुसूर बताना
क्योंकि मैं कुछ भी बन जाऊँ
पाषाण नही बन सकता
अपने किसी सुख के लिए
किसी के आँगन में बाग़ लगा सकता हूँ
आग नहीं लगा सकता ।
19 मार्च ,2011
कविता में आपने अपनत्व का ज्वार भर दिया है। समूचे तानों-उलाहनों के माध्यम से यह अनुपम प्रेम-कविता है। 'शब्द' प्रेम की शक्ति है। बंदिशें घुटन का कारण हैं। इस सबको आपने बड़े कौशल से कविता में उतारा है।
ReplyDeleteबहुत ही दर्द भरा है ....एक एक शब्द दिल में उतरता चला गया |
ReplyDeleteस्त्री की मनोदशा को ब्यान करती कविता .....
किसी देवता का सन्देश लगती है ...जो उस के दुःख हरने के लिए उस के द्वार पर खुद चलकर आया है |
रामेश्वर जी की कलम को नमन !
गज़ब की रचना है…………भाव सीधे दिल मे उतर रहे हैं संवादयुक्त कविता बहुत कुछ अनकहा भी कह जाती है।
ReplyDeleteबिल्कुल दिल में उतर गए भाव...। मन को बहुत गहरे तक स्पर्श करती है यह कविता...। आप की कलम को मेरा प्रणाम...।
ReplyDeleteप्रियंका
वाह ............अति सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति..... हर शब्द में अंतर्मन के भाव हैं....
ReplyDeleteसुंदर रचना, करुणा, प्रेम, पश्चात्ताप और विचार सभी से भरपूर। एक ही रचना में इतना कुछ कह जाना अपने आप में एक बड़ी सफलता है। अति सुंदर रचना।
ReplyDelete-पूर्णिमा वर्मन
Respected Sir,
ReplyDeleteAapki prem aur apnatv bhari kavita parh kar mann bahut bhavuk ho gaya. Har ek shabd mann ko gehrayi tak choo rahe hain.
Mumtaz and T.H.Khan
भाई हिमांशु जी
ReplyDeleteइस कविता में वो ताकत है जो बरबस दिलों पर कब्ज़ा कर ले… एक एक पंक्ति, एक एक शब्द गहरी मानवीय संवेदना से रचा बसा… अन्तिम पंक्ति तो जैसे कविता की जान बन गई हो…
"अपने किसी सुख के लिए
किसी के आँगन में बाग़ लगा सकता हूँ
आग नहीं लगा सकता ।"
आप ऐसी जानदार और शानदार कविता कहाँ छिपा कर रखते हैं…
मेरी बधाई !
Simply superb! love these lines:
ReplyDelete"कभी समय मिले तो मेरा कुसूर बताना क्योंकि मैं कुछ भी बन जाऊँ पाषाण नही बन सकता अपने किसी सुख के लिए किसी के आँगन में बाग़ लगा सकता हूँ आग नहीं लगा सकता "
संवेदना से लबरेज ये कविता …अंतरमन को झकझोर देती है…उत्कृष्ट…रचना…माँ सरस्वती की कृपा हमेशा आपकी लेखनी पर बनी रहे…।
ReplyDeletekamboj bhai sahab,
ReplyDeletebahut samvedansheel kavita hai. dard aur peeda ki ajeeb kahaani, shabd shabd dil mein utar gaya. vaartaalaap jo man se man tak hui, bahut badhai.
कभी समय मिले तो
ReplyDeleteमेरा कुसूर बताना
तुम्हारे शब्द छुप जाते हैं
मेरे आँचल में
और बन जाते हैं सुरभित फूल
यह सौरभ बहुतों को नहीं रुचता
लोग चाहते हैं कि
मेरे आँचल को काँटों से भर दें
और मुझे लहूलुहान होने के लिए
मज़बूर कर दें ।
shabdon ka itna sunder barnan kab dekhne ko milta hai .
क्योंकि मैं कुछ भी बन जाऊँ
पाषाण नही बन सकता
अपने किसी सुख के लिए
किसी के आँगन में बाग़ लगा सकता हूँ
आग नहीं लगा सकता ।
ye panktiya hamesha yad rahengi aapne bas shbdon me bhavnayen pirodi hain .
bahut bahut badhai
saader
rachana
aadarniy sir
ReplyDeletebahut hi samvedan -sheel prastuti .
bhav itane gahre hain ki seedhe man me ek-ek shabs utar gaye .
bahut hi bhav-bhini rachna jo bar bar padhne ke liye vivash karti hai.
hardik abhinandan
poonam
अत्यन्त भावगर्भित अभिव्यक्ति के लिए बधाई!
ReplyDelete"अपने किसी सुख के लिए
ReplyDeleteकिसी के आँगन में बाग़ लगा सकता हूँ
आग नहीं लगा सकता ।"
is rachna men man ke har bav kut-2kar bhare han.kisi ki vivsata ko inti masumiyat se likha hai ki shabd nahi han ....aaj bhi samaj kitna hi barabar ka darja dene ki baat karta ho kintu sachhai ye hai ki aaj bhi stri ki haal aisi hi ha....der se aane ke mafi chaungi..
Bhai Rameashwarji
ReplyDeleteAap men bahut dhairya hai. Kavita achchhi lagi. Thanks
Omprakash kashtriya " prakash"
Ratangarh- 9424079675