रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कितना अच्छा होता !जो तुम
यूँ बरसों पहले मिल जाते
सच मानो इस मन के पतझर-
में फूल हज़ारों खिल जाते
खुशबू से भर जाता आँगन ।
कुछ अपना दुख हम कह लेते
कुछ ताप तुम्हारे सह लेते
कुछ तो आँसू पी लेते हम
कुछ में हम दो पल बह लेते
हल्का हो जाता अपना मन ।
तुमने चीन्हें मन के आखर
तुमने समझे पीड़ा के स्वर
तुम हो मन के मीत हमारे
रिश्तों के धागों से ऊपर
तुम हो गंगा -जैसी पावन ।
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बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteहिमांशु जी की यह कविता हवा के नर्म स्पर्श -सी ,मन को आनंद से भर गयी .बधाई.
ReplyDeleteबहुत सहज शब्दों से मन की बात कह दी.सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDelete''जो तुम यूँ बरसों पहले मिल जाते'' सुंदर कविता
ReplyDeleteकितना अच्छा होता !जो तुम
ReplyDeleteयूँ बरसों पहले मिल जाते .....
Sach mein hee kitna accha hota ....
Ek Accha teacher bahut Pahele hee mil jata.
Thanks for visiting " Shabdon Ka Ujala".
Thanks for your kind words.
आपकी प्यारी कविता मन में बहुत गहराई तक उतर गई।
ReplyDeleteबधाई!
sir ..panktiyan dil mein utar gayi..wonderful!
ReplyDeleteThis is a good blog.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी... मन को छू जाती है... बधाई...
ReplyDeleteBahut alag si khubsurat se bhavon se bhari rachna mili padhne ko..bahut2 badhai
ReplyDeleteतुमने चीन्हें मन के आखर
ReplyDeleteतुमने समझे पीड़ा के स्वर
तुम हो ......रिश्तों के धागों से ऊपर
सहज और भावपूर्ण रचना...परिभाषाओं से परे, रिश्तों के धागों से ऊपर जो हों वो पूजनीय होते हैं
मंजु