पथ के साथी

Saturday, June 5, 2010

खड़े जहाँ पर ठूँठ



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

खड़े हाँ पर ठूँठ

कभी यहाँ

पेड़ हुआ करते थे।

सूखी तपती

इस घाटी में कभी

झरने झरते थे ।

छाया के

बैरी थे लाखों

लम्पट ठेकेदार ,

मिली-भगत सब

लील गई थी

नदियाँ पानीदार ।

अब है सूखी झील

कभी यहाँ-

पनडुब्बा तिरते थे ।

बदल गए हैं

मौसम सारे

खा-खा करके मार

धूल -बवण्डर

सिर पर ढोकर

हवा हुई बदकार

सूखे कुएँ ,

बावड़ी सूखी

जहाँ पानी भरते थे ।

-0-

8 comments:

  1. वृक्ष अमूल्य धरोहर हैं,
    इनकी रक्षा करना होगा।
    जीवन जीने की खातिर,
    वन को जीवित रखना होगा।

    तनिक-क्षणिक लालच को,
    अपने मन से दूर भगाना है।
    धरती का सौन्दर्य धरा पर,
    हमको वापिस लाना है।।

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  2. दिवस विशेष पर खूब याद दिलाया इस रचना के माध्यम से..शायद हम चेतें.

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  3. bahut khub



    फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  4. बहुत ही सुन्दर गीत ! पढ़कर भीतर तक प्रसन्न्ता हूई कि अपने साहित्य में आपने प्रकृति को गहरी आत्मीयता और गहरे संवेदन से स्पर्श किया है। बधाई !

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  5. कभी कभी बहुत अच्छी चीजों की तारीफ़ करने लायक शब्द नहीं मिल पाते , इस समय मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है...। सो बस बधाई...।
    पता नहीं प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करना कब बंद करेगा इंसान...।

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  6. Bahut hee gahree baat kahee hai aap ne...
    Agar halkee-fulkee baat ka maan ho to aayeega....
    "Shabdon ka Ujala"....Chand kee yatra ke leeye...

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  7. Bahut der se padhi aapki racnha ...sorry..
    sach men halat yahi ho gaye han matlab ke dhekedaron ne sab kuch ula t pulat kar dala..rachana ke bhav bahut pasnd aaye..bahut2 badhai..

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  8. प्रकृति का विनाश इन स्वार्थी लोगो ने ही किया .....ज्वलंत समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए आभार ....शायद अब भी कोइ चेते .....

    डा. रमा द्विवेदी

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