पथ के साथी

Wednesday, May 20, 2020

989-आज़ादी की पूर्व सन्ध्या-संवाद

(रचना-तिथि-15-8-1997)

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

आज़ादी की पूर्व सन्ध्या पर
गांधी जी एक अधिकारी से टकराए
'देखकर नहीं चलता बूढ़े' अधिकारी गुर्राए
गांधी जी बोले-'तुम अधिकारी हो?
कानून पढ़ा है ?'
'हाँ कानून पढ़ा है;
इसीलिए कानून को
जेब में लेकर चलता हूँ
कभी कानून को
जूते की जगह पहनता हूँ
कभी खैनी की तरह मलता हूँ
फिर डण्डे की चोट से फटकता हूँ
जो कुछ बचता है,
उसे जबड़े में दबाता हूँ
चारा खाने वाले जानवर की तरह चबाता हूँ
कानून मेरे लिए कर्त्तव्य नहीं, धन्धा है
अनजान के लिए कानून
फाँसी का फन्दा है
अँधेरी रात है
मुझ जैसों के लिए जनता की
यही सौगात है
कानून से जनता को हाँकता हूँ
लोकतन्त्र के माथे पर
इसी तरह व्यवस्था टाँकता हूँ

फिर  गांधी जी आगे बढ़े
एक नेता दिखाई पड़े—
गांधी जी को देखकर चकराए-
'बापू , आप पचास साल पहले भी
15 अगस्त को दिल्ली में नहीं आए'
गांधी जी बोले-'यही जानना चाहता हूँ
कि इतने दिनों में तुमने
क्या-क्या गुल खिलाए हैं,
अब तक देश को तुम लोगों ने
देश को कितना चरा है
तुम्हारे हाथों लोकतन्त्र
कितना जिन्दा है, कितना मरा है।'

नेता जी बोले-'बापू जी !
हम विधान सभाओं में
जूते चलवाते हैं, गाली बरसाते हैं
माइक तोड़ते हैं, सिर फोड़ते हैं
इस प्रकार विधान सभा तक को अच्छा खासा
जंगल बनाते  है
और संसद तक में, दंगल कराते हैं
इस प्रकार जनता को लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति का
सन्देश देते हैं
जब ऊब जाते हैं , घोटाले करते हैं
यूरिया चबाते हैं , चारा चरते हैं
नोट नालियों में भरते हैं
बिस्तरे पर बिछवाते हैं
हमें याद है
आपने मरते समय 'राम!' कहा था
हमने उसमे  'आ' जोड़ लिया है
अब हम आराम से रहते हैं
कभी-कभी आपके उस राम में ही
सुख तलाशते हैं
इसलिए कुछ लोग हमें सुखराम भी कहते हैं।

गांधी जी आगे बढ़े
तो धर्माधिकरी दिखाई पड़े
राम-राम के साथ अधिकारी  से पूछा-
'महाराज आपका क्या हाल है
वे बोले-'मज़े में हूँ'
जनता भेड़ें हैं
हम इन्हें चराते  हैं
जहाँ चाहे वहाँ ले जाते हैं
हमारे लिए सब देव स्थान बराबर है
जब चाहे उन्हें तोड़ते हैं
शहरों में गाँवों में
दंगे करवाते हैं
इसमें बूढ़े,बच्चे, जवान,औरतें
सभी मरते हैं
इस तरह हम धर्म का प्रचार करते  हैं
तन्त्र -मन्त्र-षड्यन्त्र से हम धर्म चलाते हैं
मौका पाकर तिहाड़ भी हो आते हैं
कुछ दुष्ट जन हमें वहाँ  मच्छरों से कटवाते हैं
हम इनका भी हिसाब रखते हैं
जब बाहर आएँगे, इससे भी बेहतर
समाज के लिए कर दिखाएँगे

अन्त में मिला एक आम आदमी
गांधी जी ने पूछा-
'आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ मना रहे हो/'
वह बोला-'हाँ , बापू
अपने फटे कुर्ते में पचासवीं गाँठ
लगा रहा हूँ
इस तरह अपने नंगे बदन को
छुपा रहा हूँ,
मैंने जो सपने देखे थे
उन्हीं के सहारे जी रहा हूँ
हर वर्ष
अपने सपनों की चादर को सी रहा हूँ
नेताओं के आश्वासन का भूसा
मेरे जैसे सभी लोग खा रहे हैं
एक हम ही हैं , जो आश्वासनों के  सहारे
इस देश को चला रहे हैं
किसी तरह बचा रहे है ।'

गाधी जी आगे बढ़े
एक कवि उनके हत्थे चढ़े
पूछा-'तुमने देश को क्या दिया?'

कवि ने कहा-'जब समय आता है
जनता को कविता सुनाता हूँ
शब्दों के खिलवाड़ से
मन बहलाता हूँ
मंच पर शेर की तरह दहाड़ता हूँ;
लेकिन दैनिक जीवन में
व्यवस्था के पीछे-पीछे
दुम हिलाता हूँ
ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ता हूँ
जब कभी बहुत सोचता हूँ
बेबसी में अपने ही बाल नोचता हूँ
पीकर मंच पर जाता हूँ,
तो देश की व्यवस्था की तरह
लड़खड़ाता हूँ
मुझे इस बात का पूरा अहसास है
कि मैं देश की दुर्गति के लिए
जिम्मेदार हूँ
क़ुसूरवार हूँ।

जब -जब कवि की कथनी
और करनी में अन्तर आएगा
देश निश्चित रसातल  में जाएगा
बापू ! आज मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ
बची-खुची शर्म के कारण अब तक जिन्दा हूँ
मैं मानता हूँ-
कि कवि जब-जब सोता है,
तो देश अपनी शक्ति खोता है
मैं कसम खाता हूँ
अपने शब्दों से
प्रचण्ड अग्नि जलाऊँगा
रौशनी फैलाऊँगा
इस सोते हुए देश को ज़रूर जगाऊँगा
मरने का मौका आया तो
पैर पीछे न हटेगा
देश की रक्षा में
सबसे पहले मेरा ही शीश कटेगा।
-0-


Tuesday, May 19, 2020

988


 [ पिछले कुछ दिनों से मैं  कोविड 19  के  कारण एक क्वारेंटाइन सैंटर पर  कार्यरत हूँ । अन्य कोरोना वारियर्स की तरह वर्तमान हालात का सामना करते हुए मन में जो भाव उपजे उनसे जो गीत रचना हुई है वह सादर प्रेषित है।]
-परमजीत कौर 'रीत'

एक आहुति अपनी भी है

महासमर के महायज्ञ में
कण-कण अपना तोल रहीं हैं
एक आहुति अपनी भी है
सब समिधाएँ बोल रही हैं

वन में अब भी शिखी नाचते!
वहाँ भला देखेगा कौन
कोयल को आदेश मिला तो
पावस में तज डाला मौन
और जिजीविषा की चिड़ियाँ 
ये सभी रहस्य खोल रहीं हैं
एक आहुति अपनी भी है
 सब समिधाएँ बोल रही हैं
महासमर के महायज्ञ में
कण-कण अपना तोल रहीं हैं


दावानल का यह समय तो
निज से ऊपर उठने का है
रे ! हिम-पंछी वृक्ष के हित में
अवसर आज पिघलने का है
तो क्या, जो समकाली सिन्धु में 
मन नौकाएँ डोल रहीं हैं
एक आहुति अपनी भी है
 सब समिधाएँ बोल रही हैं
महासमर के महायज्ञ में
कण-कण अपना तोल रहीं हैं
-0-श्री गंगानगर

Monday, May 18, 2020

987


सत्या शर्मा ' कीर्ति '


हाँ , देखा है मैंने भी एक स्वप्न
किताबों से  भरी एक 
आलमारी हो
जिसके जिल्दों पर 
लिखे हों मेरे नाम के अक्षर
अंदर पन्नो पर सजे हों
जीवन - मृत्यु के गीत
जीत - हार के गीत

जिसमें 
समाज का संघर्ष भी हों
परिवर्तन की उम्मीद भी हों
भविष्य के सपने भी हों
कुछ मेरे अपने भी हों
कुछ रास्ते के पते भी हों
कुछ जीवन के सन्देश भी हों
हाँ , देखा है मैंने भी
इक खूबसूरत सपना

पर ! मेरी कविताओ ! 
क्या तुम तैयार हो ?
क्या शब्द बन रहे हैं सार्थक
क्या लेखनी ले रही है करवट
हाँ , कविता आज तुम बोलो
मौन न रहो 
क्या समाज को गति दे पाओगी तुम ?
क्या विचारों की क्रांति ला पाओगी तुम ?
दे सकोगी सूखे ओंठों पर खुशियाँ
हर सकोगी व्यथित हृदय की पीड़ा
क्या तख़्त के डर तो नहीं जाओगी
क्या सच्चाई का दामन थाम आगे बढ़ पाओगी

बोलो कविता यूँ मौन न रहो
यह वक्त है परिवर्तन का
एक पुनर्जागरण का
लेना होगा तुम्हें भी 
नया रू 
सिर्फ बगीचों के बीच 
नदियों के बीच 
पहाड़ों की तलहटी के नीचे
मत ढूँढना तुम गीत

देखो आँखों की कोरों पर
ढलती बूँदों को
रास्ते पर चलते नहीं थकते 
पैरों को

बोलो कविता तुम तैयार हो

मुझे संग्रह की जल्दी नहीं
मुझे तुम्हारा साथ चाहिए
पन्नो में नया इतिहास चाहिए
बदलाब की बयार चाहिए।।

अब तो बोलो कविता 
क्या तुम तैयार हो....???

12- 6 - 20

Monday, May 11, 2020

986


1-क्यों कर ऐसे काम कर रहे?
डॉ. शैलजा सक्सेना

मन से जो मजबूर हो रहे,
तन को वे बीमार करेंगे।

पाँव नहीं जिनके काबू में
चौराहों पर जा निकलेंगे,
घर पर अनचाही बीमारी,
रोग, शोक को ये लाएँगे।
दीवारों से झगडा करके
गलियों से दोस्ती कर रहे,
मन को समझा, देख आँकड़े!
बीमारों को देख न समझॆ,
भूखे कोरोना-गिद्धों को
अपना जीवन दान करेंगे।

हाँ, ये पेट बड़ा भूखा है
घर पर फाका तीन दिनों से,
लेकिन क्या घर के बाहर
काम कहीं कुछ मिल पाएगा?
जाकर बोलो दारोगा से
शायद राशन मिल जाएगा,
सवा अरब की भीड़-भाड़ में
जागेंगे भूखे भी अनगिन,
लेकिन घर से बाहर जाकर
क्या घर वापस फिर आएगा?
अपनी नासमझी से ही क्या
शहर को हम श्मशान करेंगे?

अल्लाह क्या बस एक ठौर है?
देव बसे क्या केवल मंदिर?
एक अकेला तू ही क्या यों
पुण्य कमा लेगा सब अंतिम?
सब ही तो रीते, खोए से
पर यह युद्ध चल रहा अभी तक,
घात कठिन इस मृत्यु दौर की
लाशों पर लाशें हैं स्थापित,
अंतिम बार परिवार न देखा
लाखों बन कर गए अपरिचित,
खुद को नहीं सँभाला हमने
देश को भी हैरान करेंगे?

-0-

2-पुकार
डॉ. शैलजा सक्सेना

तुम को पुकारती हूँ मैं,
तुम को पुकारती हूँ मैं जैसे
भूख पुकारती है भोजन को,
प्यास पुकारती है पानी को,
दारिद्र्य पुकारता है वैभव को,
ठिठुरन पुकारती है आग को,
निर्बल पुकारता है शक्ति को॥
मैं तुम्हें पुकारती हूँ…
मैं तुम्हें पुकारती हूँ ऐसे, जैसे
रोगी पुकारता है स्वास्थ्य को,
बेचैन पुकारता है चैन को,
रात पुकारती है नींद को,
मन पुकारता है अनुराग को,
बुद्धि पुकारती है युक्ति को।
मैं तुम्हें पुकारती हूँ..
मैं तुम्हें पुकारती हूँ जैसे
मिट्टी पुकारती है बीज को,
खेत पुकारते हैं बादल को,
पगडंडी पुकारती है राही को,
कुँआ पुकारता है को,
चूल्हा पुकारता है आग को

बंधन पुकारता है मुक्ति को।
मैं तुम्हें पुकारती हूँ..
मैं तुम्हें पुकारती हूँ जैसे
आँसू पुकारते हैं साँत्वना को,
पाँव पुकारते हैं गति को
गला पुकारता है ध्वनि को,
बच्चा पुकारता है माँ को,
वैधव्य पुकारता है सुहाग को,
जैसे मुक्ति पुकारती है भक्ति को।
मैं तुम्हें पुकारती हूँ।

-0-
2- मेरी माँ
सत्या शर्मा ' कीर्ति '

आज अचानक जब कहा 
मेरी माँ ने मुझसे
लिखो  ना मेरे  ऊपर भी कोई कविता
और फिर ध्यान से  देखा मैंने माँ को आज कई दिनों बाद ।

अरे ! चौंक सी ग मैं 
माँ कब  बूढ़ी हो ग ?
सौंदर्य से  दमकता उनका
वो चेहरा जाने कब ढँक गया झुर्रियों से

माँ के सुंदर लम्बे काले बाल 
कब हो गए सफेद 
कब माँ के मजबूत कंधे 
झुक से गए समय की बोझ से।

अचंभित हूँ मैं ...

ढूँढती रही मैं नदियों , पहाड़ों ,
बगीचों में कविता और अपनी माँ
मेरे ही आँखों के सामने होती रही बूढ़ी।

भागती रही भावों की खोज में
खोजती रही संवेदनाएँ
पर देख नहीं पाई जब 
प्रकृति खींच रही थी 
माँ के जिस्म पर अनेक रेखाएं ..

सिकुड़ती जा रही थी माँ 
तन से और मन से
और मैं ढूँढ रही थी प्रकृति में
अपनी लेखनी के लिए शब्द ।

जब बूढी आँखे और थरथराते हाथों से
जाने कितने आशीष लुटा रही थी माँ ।
तब मैं दूसरों के मनोभावों में  ढूँढ रही थी कविता ।
और इसी बीच
 जाने कब
मेरे और मेरी कविता के बीच बूढ़ी हो ग माँ ।
--0--

Sunday, May 10, 2020

985- ओस कणों सी पावन, माँ

                      बी.एल.आच्छा

घट्टी की घम्मर में जो
  गोद सुला ,माँ
  निंदिया के झूले में जो 
   गीत सुनाए, माँ।

लाडेसर की किलकारी से 
रूह मचल जाए, माँ
जैसे लहरों में चमक गई हो
सूर्य किरण -सी ,माँ।

कच्ची पहली में जाने पर 
तिलक लगाए ,माँ
गुड़ और दही खिलाकर 
जीवन की राह बनाए, माँ।

धड़के दिल भी हुलसे मन भी 
पर जब बच्चा घर आ जाए 
छाती से लग जाए ,माँ।
भारी बस्ता, होमवर्क में
साथी- सी बन जाए, माँ। 

आँख पिता की बच्चा देखे
कनखी से समझाए ,माँ
हलवे से लेकर पिज्जा तक 
बच्चे को लालच दे जाए, माँ।

कभी मनौती ,कभी चुनौती 
रंभाती गौ की वाणी में 
देवल- देवल जाए, माँ।
तपती नन्नू की काया से
आँखें तर हो जाए ,माँ।
फिर बच्चे की देख-रेख में
पिघल मोम हो जाए, माँ।

बेटे को घोड़ी चढ़वाकर
या बेटी के हथलेवे में 
छाती से भर जाए, माँ
आशीषों के गीत गवाकर 
कुमकुम पाँव सजाती, माँ।

कंधे पर से पार निकलते
मोटे -मोटे पोथों से सन्नाते
देर रात पढ़ते बच्चों को 
चुपचाप दूध दे जाए, माँ।
पोथी का व्याकरण छोड़
दिल की ग्रामर में खो जाए ,माँ।

पंछी जब युगल हो जाते
अलग अपार्ट में उड़ जाते
तब भी तीज त्योहारों पर 
लपसी ,खीर पहुँचाती, माँ।

ऊँची रैंक विदेशी ऑफर 
भीतर से भर जाती ,माँ।
पर विदेश जाते बच्चे को
देख  विकल हो जाती ,माँ।
शुभ संख्या में रुपये देकर
राहें आसान बनाती ,माँ।

नटखट बचपन की स्नेह नियंता
  बच्चों के जीवन की अभियंता
पंखों में ऊर्जा भर कर 
आकाश उड़ाती प्यारी, माँ
नीचे गिर जाने के डर से 
अपना पल्लू फैलाती, माँ।

कोमल धरती, निर्मल गंगा 
मधुरा भक्ति, सृजन की शक्ति 
ओस कणों सी पावक, माँ।
-0-बी.एल.आच्छा,B.L.Achha,36, Clements Street,Behind Saravana Stores,Puruswakam
Chennai (T.N.)-600007
Mob.9425083335
-0-