बीमार सोच
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बीमार सोच को ढोने वाले लोग हर क्षेत्र में मिल जाएँगे ।सुबह जागकर अख़बार में चोरी ,डकैती ,हत्या ,लूट ,दुर्घटना की ख़बर तलाश करना ; दिन भर ऐसी ख़बरों के वर्णन में अपनी सारी ताकत झोंक देना कुछ लोगों का शगल बन गया है ।दूसरी श्रेणी में वे भले लोग हैं ;जो बुरी ख़बर को ‘आज का चिन्तन’ की सुबह ही सुबह परिचितों को सुनाएँगे ।उस समय उनकी मुखमुद्रा एक सुलझे हुए सन्त जैसी लगेगी ।वे अपनी बात के कुप्रभाव से पूरी तरह निरीह रूप से अनजान होते हैं ।इसी तरह की नकारात्मक सोच हमारे शिक्षा –जगत् की भी सबसे बड़ी खामी है । ऐसा तभी होता है ;जब व्यक्ति अपने वर्तमान से ऊपर नहीं उठ पाता है ,अपने अतीत से मुक्त नहीं हो पाता है ।आने वाले समय के लिए न योजना बना सकता है ,न उन्हें लागू करने का ख़तरा उठा सकता है ।अपने अतीत के प्रक्षेपण से पूरे भविष्य को आच्छादित करना चाहता है । अपनी नकारात्मक सोच से पूरे विश्व को नरक बनाने का उद्यम ज़रूर कर लेता है ; लेकिन छोटे –से प्रयास से फूल देने वाला का एक पौधा लगाने में अपना अपमान समझने लगता है । ऐसे बीमार लोग इस देश में बहुतायत से पाए जाते हैं । हंगामा और हड़ताल करने में ज़मीन -आसमान के कुलाबे मिला सकते हैं। घण्टों बेकार की बातों पर बहस कर सकते हैं ,कुतर्क की कीचड़ में गोता लगा सकते हैं ;लेकिन सड़क पर घायल पड़े आदमी को अस्पताल नहीं पहुँचा सकते ।ज्ञान को कैद करके कालकोठरी में डाल सकते हैं,उजाले के पैरों में बेड़ी पहना सकते हैं ;परन्तु उजाले को बेरोकटोक बाहर नही जाने देंगे ।इन बीमार सोच वाले लोगों ने भावी पीढ़ी का जीवन बहुत कठिन कर दिया है। निरन्तर नया सोचने वालों और करने वालों को कदम –कदम पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है अपनी कुण्ठा को छात्रों पर लादना कायरता ही नहीं वरन् अपने सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा है ।इसका कुप्रभाव निकट भविष्य में शिक्षा-जगत को प्रभावित किए बिना नही रहेगा ।
बीमार सोच वाले लोग हमारे किशोरों को क्या देंगे ? हताशा निराशा और कुण्ठा के सिवाय शायद ही कुछ दे पाएँ । यदि हमें इनका भविष्य बचाना है तो सकारात्मक सोच को बढ़ावा देना पड़ेगा ।प्रयास करना होगा कि स्वस्थ मानसिकता वाले लोग ही शिक्षा के क्षेत्र में आएँ । युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ा संकट आदर्श का है । शिक्षक अगर उनका आदर्श बनने में असमर्थ है तो फिर इस दायित्व को कौन सँभालेगा ? संभवत कोई नहीं ।आस्था और निर्माण की विचारधारा रखने वाले लोग भारत के भविष्य का निर्माण करने के लिए आगे आएँ ;तभी यह नई पीढ़ी सही दिशा में आगे बढ़ सकेगी । निदा फाज़ली के शब्दों में कहें तो यह समीचीन होगा -
‘घर से मस्ज़िद है बहुत दूर तो चलों यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए ।’
बीमार सोच वाले लोग हमारे किशोरों को क्या देंगे ? हताशा निराशा और कुण्ठा के सिवाय शायद ही कुछ दे पाएँ । यदि हमें इनका भविष्य बचाना है तो सकारात्मक सोच को बढ़ावा देना पड़ेगा ।प्रयास करना होगा कि स्वस्थ मानसिकता वाले लोग ही शिक्षा के क्षेत्र में आएँ । युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ा संकट आदर्श का है । शिक्षक अगर उनका आदर्श बनने में असमर्थ है तो फिर इस दायित्व को कौन सँभालेगा ? संभवत कोई नहीं ।आस्था और निर्माण की विचारधारा रखने वाले लोग भारत के भविष्य का निर्माण करने के लिए आगे आएँ ;तभी यह नई पीढ़ी सही दिशा में आगे बढ़ सकेगी । निदा फाज़ली के शब्दों में कहें तो यह समीचीन होगा -
‘घर से मस्ज़िद है बहुत दूर तो चलों यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए ।’
बहुत ही सार्थक विचार
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित, वंदन-अभिनंदन 🙏
ReplyDeleteसुंदर ,सार्थक विचार
ReplyDeleteसुंदर ,सार्थक विचार
ReplyDeleteमहत्त्वपूर्ण विषय पर धारदार लेख लिखने के लिए आदरणीय काम्बोज भाई को बधाई |
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा.. आद. हिमांशुजी जी को हार्दिक बधाई !!
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