पथ के साथी

Saturday, August 26, 2023

1366-विधवा स्त्रियाँ!

डॉ. सुरंगमा यादव

  

हे ईश्वर!

विधवा स्त्रियाँ

तय कर रहीं तुम्हारी

जवाबदेहियाँ

पूजा तुम्हारी

कितने व्रत -उपवास

आए तुम्हें न रास

जिसके लिए माँगती रहीं दुआ

तुमने उसी से कर दिया जुदा

क्या तुम भी ग्रस्त हो?

समाज की रूढ़ियों से

पुरुष प्रधान

तुमने भी लिया मान

यह कैसा तरीका?

मृत्यु में भी उसे ही

दी तुमने वरीयता

विधुर होने की पीड़ा से

पुरुष बच जाता है तुम्हारी क्रीड़ा से

कोमल हृदया स्त्री पर

डाल देते हो पीड़ा गुरुतर

अनंत पथ पर पुरुष अग्रगामी

स्त्री पर आयी जैसे सुनामी

वैधव्य का दंश झेलती

मृतप्राय हो जाती हैं

विधवा स्त्रियाँ

एक स्त्री सिर्फ पति ही नहीं खोती

उसके साथ खो देती है

सारी खुशियाँ तीज- त्योहार

साज-सिंगार!

उसके हृदय की चीत्कार

तुम्हें कोसती है बार- बार

क्यों नहीं हर लिये तुमने उसके प्राण!

क्यों किया पति को निष्प्राण

विधवाओं की लंबी कतारें

लगाती हैं तुमसे न्याय की गुहारें

क्योंकि तुम्हें ही पूजा था

और तुम्हीं ने उपेक्षिता बनाकर

टाँग दिया हाशिए पर

वैधव्य को महसूस कराने की

कैसे ये रीति-रिवाज

उतारा जाता है जब उसका साज-सिंगार

उमड़ता है दु:ख का पारावार

जिन बच्चों को पाला -पोसा

जिन रिश्तों को सँजोया-सँवारा

उनकी ही नजरों में आ गया फर्क-सा

जा कहाँ? किसको सुनाए?

खुलकबेचारी रो भी न पा

सवाल बड़ा है?

हमेशा ही स्त्रियाँ

क्यों पाती हैं उधार की खुशियाँ

कभी सुहाग चिह्न लादें

कभी वे उतारें

बन जाती है एक स्त्री

चलता -फिरता प्रमाणपत्र

पति के जीवन अथवा मृत्यु का

पाँवों में अपने बेड़ियाँ कसके बाँधें

क्यों सहे वे ये सब?

क्यों जिएँ सूना जीवन

मृत्यु से पहले मृत्यु का वरण

साँसों का रिदम टूटना तय है

कोई आगे तो कोई पीछे गया है

प्यार लेकिन कभी भी मरता नहीं है

कल मूर्त्त था आज अमूर्त्त हुआ है

उसी प्यार का मान मन में रहे बस

साज-सिंगार छोड़े, उदासी लपेटे

क्यों रहे स्त्री मन को मसोसे

सौभाग्य उसका पुरुष मात्र ही है?

अन्यथा शून्य ही उसकी नियति है?

उठो स्त्रियो! रूढि़याँ सारी तोड़ो

जीवन में खुशियों से नाता न तोड़ो

तुम्हारी भी अपनी एक अस्मिता

ढूँढ लो फिर से उसका पता

सारे रंग- सिंगार- त्योहार अपने लिए अब सजाओ

जमाने से ऐसे नज़र न चुराओ।

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9 comments:

  1. मर्मस्पर्शी भावपूर्ण कविता। समाज तो सदा आड़े आता ही है। स्त्री को स्वयं रूढ़ियों को तोड़ अपने लिए जीना होगा। सुदर्शन रत्नाकर

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  2. सुंदर सृजन

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  3. डाॅ. सुरंगमा यादव की वैधव्य के नाम पर स्त्री पर लगी बंदिशों का मार्मिक चित्रण किया है । विधवा को सशक्त होने की बात भी की है । सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई । हार्दिक बधाई ।
    विभा रश्मि

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  4. भावपूर्ण हृदयस्पर्शी रचना...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी।

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  5. सुरंगमा जी आपने स्त्रियों के वैधव्य के विषय पर बहुत सुंदर कविता रची है ये सच है कि विधवा का जीवन जीना एक चुनौती है । समाज की रूढ़िवादी सोच आज भी आधुनिक युग में मिलती है। किंतु स्त्री को स्वयं हिम्मत से समाज से लड़कर अपने सुखों को पाना होता है । आपको हार्दिक बधाई । सविता अग्रवाल”सवि”

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  6. आप सभी ने अपनी अमूल्य टिप्पणी देकर उत्साहवर्धन किया,बहुत-बहुत आभार आप सभी का।

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  7. स्त्रियों की मनोदशा का बहुत ही भावपूर्ण, मार्मिक और संवेदनशील अभिव्यक्ति...

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