1-चाँद और मैं
सुरभि डागर
चाँद चले आते हो
मेरी छत पर साँझ ढले ,
ताकते रहते हो मुझे
अपनी भोली सी सूरत से
कह देते हो सब बिना कुछ कहे
निहारते रहते हो हर रोज़
और करते रहते हो अठखेलियाँ
साथ में।
पढ़ते रहते हो मेरे भावों को
झाँक
लेते हो काले बादलों से भी
और रह जाती हूँ भी तुमको ढूँढती
कहाँ छुपे हो चाँद मेरे
खेलते रहते हो लुका-छुपी
संग मेरे।
करती रहती हूँ मैं भी
बेसब्री से तुम्हारे आने का इन्तजार
करती हूँ
ढूँढती हूँ सिर्फ़ तुमको
अमावस्या की काली रात में भी,
सोचती हूँ
तुम भी बेचैन होगे देखने को मुझे
लुटा देते हो पूर्णिमा में अपनी चाँदनी
मुझ पर ,
भर देते हो हृदय की
अमावस्या के अँधेरे को
चाँदनी से।
2-पुरुष
दिव्या शर्मा
संसार के लवण को
खुद में समेटे
मुस्कुराता पुरुष
एक समुद्र है।
एक ऐसा समुद्र
जिसमें असंख्य स्वप्न
अपना गृह बनाएँ
रहते हैं।
ये
स्वप्न उसने नहीं देखे
किन्तु इन स्वप्नों को
पोषण देता पुरुष
अक्सर रह जाता है कुपोषित
क्योंकि ये स्वप्न
उसके रक्त संबंधों ने देखे हैं।
इन स्वप्नों की दुनिया
ले लेती है विस्तार
और छोड़ देती है
अनगिनत विष्ठा
उस पुरुष के भीतर
जो कि एक समुद्र है।
अपने तटों पर
अपनी पीड़ा पटकता
यह पुरुष
नदियों की पीड़ाओं को
अपने अंतस् में उतार
कर देता है मुक्त
इन नदियों को।
नदी स्त्री है।
समुद्र के सीने पर
चल रही हैं अनेक नाव
अपने शीर्ष पर
धन को बिठाकर
यह धन कभी काला है,
तो कभी श्वेत है;
लेकिन कभी-कभी यह धन
धारण कर लेता है
गुलाबी रूप।
यह रूप समुद्र के सीने में
हौले से गड़ जाता है
जिसका दबाव
उसे आनंद देता है
आनंद के
मिथ्या
दबाव में खोया यह समुद्र
पुरुष है।
दुर्दांत होती
समाज की आकांक्षाओं का
लक्ष्य बनता यह पुरुष
जग के लवण को समेट
बन जाता है थोड़ा और
विशालकाय समंदर।
-0-
3- साइकोलॉजी
प्रांशु बरनवाल
इन दिनों
'वह'
साइकोलॉजी पढ़ रही है,
ताकि प्रेम करने से पूर्व
समझ सके पुरुषों की मनोग्रन्थियाँ,
और भाँप सके उसके
असभ्य, दम्भी
और अहं की भावनाएँ।
इन दिनों उधेड़ रही है,
एक-एक पन्नों की
उलझी-बिखरी मनों की गाथाएँ,
ताकि अलग कर सके
मनुष्य और पशु के बीच असमानताएँ।
इन दिनों ढूँढ रही है,
मनुष्यता का सहवास
ताकि हृदय के कोरे पन्नों पर,
प्यार की कलम से उकेर कर,
पढ़ व महसूस कर सके
अपने सपनों का संसार!!
-0-प्रांशु
बरनवाल, मकान न. 83B/2, मौर्या लॉज,
एनिबेसेन्ट पुलिस चौकी, छोटा बघाड़ा, प्रयागराज उत्तर-प्रदेश-211002
4-साँच को आँच नहीं
सीमा सिंघल 'सदा'
मैं, तुम,
हम
सच कहूँ तो
सब बड़े ही खुदगर्ज़
हैं
कोई किसी का नहीं
सब अपनी ही बात
अपने ही अस्तित्व को
हवा देते रहते हैं
कि दम घुट न जाए कहीं
...
सत्य
जिन्दा है जब तक
विश्वास भी
साँस
ले रहा है तब तक
झूठ असत्य अविश्वास
भिन्न नामों की परिधि
में
छुपे हुए सत्य को
पहचान जाओ तो
ये तुम्हारा हुनर
वर्ना ये रहता है
अनभिज्ञ !
....
नहीं कचोटता होगा
तुम्हें
कभी असत्य
क्योंकि जब जिसके साथ
जीवन निर्वाह की आदत
हो जाए
तो फिर गलत होकर भी
कुछ गलत नहीं लगता
‘पर
उपदेश कुशल बहुतेरे’
वाली बात कह कर
तुम सहज ही
मुस्करा तो देते हो
पर सत्य से
नज़रें मिलाने का
साहस
नहीं कर पाते
इतिहास गवाह है-
हर क्रूरता को
मुँह की खानी पड़ी है
और झूठ ने गवाँई है
अपनी जान
साँच को आँच नहीं
सभी रचनाएँ बहुत ही सुंदर सभी को बधाई।
ReplyDeleteअलग-अलग भावों की सहज अभिव्यक्ति की सभी कविताएँ प्रभावी हैं।सभी को बधाई।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ अपना-अपना प्रभाव डालने में पूर्णतया सफल रही हैं।सुंदर सृजन के लिए आप सभी को बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteभावपूर्ण सुंदर सृजन के लिए सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteअलग-अलग भावनाओं को उकेरती इन सभी बेहतरीन रचनाओं के लिए आप सभी को बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन...आप सभी रचनाकारों को बहुत बधाई।
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