पथ के साथी

Monday, March 8, 2021

1057-नारी

 1-डॉ.कविता भट्ट

1-स्त्री समुद्र है

 

 हाँ स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त


मन के भाव ज्वार-भाटा के समान

विचलित और दुःखी करते हैं उसे भी

हो जाती है जीवमात्र कुछ क्षणों के लिए।

किन्तु; पुनः स्मरण करती है; कि

वह है- प्रसूता, जननी और पालनहार

पुरुष- अपने अस्तित्व के लिए भी

निर्भर है सूक्ष्म जीव सा- इसी समुद्र पर

दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ

प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी

विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में

विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है

समेट लेती है- सब गुण-अवगुण

समुद्र के समान- प्रशान्त होकर

और चाहती है कि ज्वार-भाटा में

सूक्ष्म जीव का अस्तित्व बना रहे।

-0-

2- यक्षप्रश्न!

 

तू पंचतत्त्व जैसी;

तू पृथ्वी तत्त्व- तुझमें गुरुत्व है।

सघनता भी- तू है प्रचंड ज्वाला,

अग्नितत्त्व- सी; अविरल-प्रबल।

प्रवाह तेरा-

धर लेती आकार, हर प्रकार;

क्योंकि तू जल तत्त्व।

प्राण भरती; तन-मन-जीवन,

तू प्राण- वायु तत्त्व भी है तू।

तेरा विस्तार- आकाश-सा है नारी,

आँचल-बाँधे; अनगिनत सूर्य,

चन्द्रमा-तारे-आकाशगंगाएँ भी;

किन्तु फिर भी; तेरे सम्मान पर

क्यों कोटि प्रश्नचिह्न?

है यही- यक्षप्रश्न।

-0-

2-डॉ मंजुश्री गुप्ता


1-वसुधा या द्रौपदी ?

 

मैं -

पृथ्वी, भू, वसुधा

जो करती तेरा पालन पोषण?

नहीं,

तूने तो बना दिया मुझे द्रौपदी!

दु; शासन और दुर्योधन की तरह

पेण्टिंग-   मंजुश्री गुप्ता

करते मेरी मर्यादा का क्षरण

मेरे वस्त्रों -

वृक्षों, खेतों, जंगलों को

काट-

निरंतर करते

मेरा चीर हरण!

यह भी नहीं सोचते

जीव जंतु क्या खायेंगे

कहाँ लेंगे शरण?

अपनी अनंत प्यास को बुझाने

मेरे नयन नीर का

निरंतर करते दोहन शोषण

विकास के नाम पर

कोई कसर नहीं छोड़ी तूने

नष्ट किया पर्यावरण!

रे मनुज!

अपनी क्रूर हरकतों  से

बढ़ा  दिया है ताप तूने

मेरे मस्तिष्क का

अब जल तू स्वयं ही

झेल वैश्विक ऊष्मीकरण!

आशा नहीं अब मुझे

कि मुझे बचाने आयेगा

कोई कृष्ण!

स्वयं किया है मैंने

प्रतिशोध का वरण!

खोल ली है केश राशि

तू देख मेरा विकराल रूप

हाँ महाभारत!

अकाल, बाढ़, प्रलय

ज्वालामुखी विस्फोट

सुनामी, भूस्खलन, दावानल ,

महामारियाँ !

अब कोई रोक नहीं सकता तुझे

तेरे पापों का दंड भोगने से

चेत जा रे  स्वार्थी मनुज!

तेरा अब होगा मरण!

-0-

2-स्त्रियाँ...

त्याग ही नहीं
इच्छा और आकांक्षा भी
मुस्कान ही नहीं
आँसू और ईर्ष्या भी
तन ही नहीं
मन और भावना भी
भोग्या ही नहीं
जननी और भगिनी भी
कामना ही नहीं
प्रेम और ममता भी
रति ही नहीं
दुर्गा और सरस्वती भी
स्त्रियाँ...
देवी या डायन नहीं
मनुष्य हैं
सिर्फ मनुष्य!

-0-

 

3-पूनम सैनी

1.

जब बंद थे सब मकानों में


तब बंद था दरवाज़ा
,

उनके बचाव का।

इस तरह कुछ और 

अधिक तड़पी महिलाएँ

लॉकडाउन के उन दिनों।

2.

कातिल निगाहों वाली

खुद कत्ल हो जाती है

झांझर बन जाती जंजीरें

आलते के निशाँ

खूनी छाप हो जाते है

सच कहते है लोग

किस्मत और वक्त बदलते

देर न लगती।

-0-

4-नन्दा पाण्डेय

 

1-अब वह चुप रहने लगी है

 

मौन की प्रत्यंचा पर


साध हृदय के कोलाहल को

अब वह चुप रहने लगी है

और लोग उसकी चुप्पी का

विद्वत्ता से अर्थ लगाने लगे हैं

 

किसी को नहीं पता 

कि आज उसका मन

सन्निपात की अवस्था में पहुँचकर

अंतिम साँसें ले रहा है

घर के सारे छोटे-बड़े काम फुर्ती,लगन और

सहजता से निबटाती है

किसी को अहसास तक नहीं होने देती

कि अंदर उसके क्या चल रहा है

ऐसा नहीं कि वो कुछ साबित करना या

दिखाना चाहती है बस अपनी

कमजोर स्थिति जाहिर नहीं करना चाहती

 

किसी औरत को गणित का ज्ञान हो

 या वह वीणा बजाए पर इससे

उसकी स्थिति में रत्तीभर फर्क नहीं पड़ने वाला

इस बात को आज वो अच्छी तरह समझ चुकी है

 

कुछ अनुभूतियाँ जो 

हर रोज दिन ढलने के बाद

उसकी स्मृतियों के संसार में आती है और

उसे भूतकाल के तहखाने में ले जाने को

उन्मत्त रहती है फिर जाते-जाते

बहुत से सुलगते सवाल छोड़ जाती है

और वो इस उम्मीद में जीने लगती है कि

शायद कोई उत्तर मिल  जाए

 

उत्तर में उसकी आत्मा की 

अस्फुट गोपनीय भाषा

खदबदाकर खौल उठे चावल की तरह

ऊँची-ऊँची लपटों में धधककर 

भीतर ही भीतर टूटती दरकती जा रही थी

 

उसका बस चलता तो 

अपनों के लिए सूरज पर भी छा जाती

जो आज खुद भटक रही है

मन की पगडंडियों पर

अतीत की छाया के लिए

जिंदगी को अपने शर्तों और 

अपने तरीकों से जीने वाली आज

अपने ही द्वंद्वों के बीच उलझकर घुटने लगी है

आज दूर-दूर तक कोई सृजनहार नहीं जो

दिल में चुभती फाँस निकाल सके

 

आज बहुत सोच समझकर 

अपने ही हाथों अपनी आत्मा पर

 ताला जड़कर

अपनी सारी बेचारगी को ठूँस-ठूँस कर 

उफनती धूप और गर्म लू से 

बचाकर रख लिया है उसने

 

रिश्तों का समीकरण अवैध हो सकता है

पर क्या वो भी अवैध था

जो उसने काँपते अधरों को उसके अधरों पर

रखकर एक अकम्प विश्वास दिया था

अपने सखा होने का , हमेशा करीब होने का

बर्फ -सी जमी वेदना

समय के संस्पर्श से पिघलकर फूट पड़ी

आज उसे अहसास हुआ कि

वो उजाले में कम और अँधेरे में ज्यादा है

 

मौन की प्रत्यंचा पर

साध हृदय के कोलाहल को

रिक्त हाथों में भरकर

वेदना के उस अपरिचित अहसास को

न अंगीकार कर सकी

न मुक्त कर सकी.......!

ईमेल- nandapandey002@gmail.com

-0-

5-रमेश कुमार सोनी

1-खाना बनाने वाली बाई 

 

खाना बनाने वाली बाई 


खाने की सुगंध अपनी देह में लपेटे
 

ले जाती है घर 

आवारा हवाओं से बचाते हुए 

बच्चे पूछते हैं - 

माँ आज क्या बनाया है ?

माँ कहती है - शाही पनीर .......

बच्चे चुपचाप उसके  स्वाद  के साथ 

खाना खाकर सो जाते हैं

बच्चे जानते हैं - 

माँ है, तो उम्मीद है 

माँ है, तो सपने जिंदा हैं .....

बच्चे खुश हैं कि उनके 

गंध , अहसास , स्वाद और ....दृष्टि जिंदा है 

एक दिन माँ नहीं लौटी 

गंध चोरी के आरोप में जेल में बंद है !!

भूखे बच्चे ताक रहे हैं ......।।

-0-

2-उग रही औरतें...

सिर पर भारी टोकरा
टोकरे में है - भाजी , तरकारी
झुण्ड में चली आती हैं
सब्जीवालियाँ

भोर , इन्हीं के साथ जागता है मोहल्ले में ;
हर ड्योढ़ी पर
मोल - भाव हो रहा है
उनके दुःख और पसीने का ।

लौकी दस और भाजी बीस रुपये में
वर्षों से खरीद रहे हैं लोग ,
सत्ता बदली , युग बदला,
लोग भी बदल गए
लेकिन उनका है

वही पहनावा और वही हँसी - बोली ;
घर के सभी सदस्यों को चिह्नती हैं वे
हालचाल पूछते हुए
दस रुपये में मुस्कान देकर लौट जाती हैं ।

शादी - ब्याह के न्यौते में आती हैं
आलू , प्याज , साबुन , चावल और
पैसों की भेंट की टोकरी लिए ,

कहीं छोटे बच्चे को देखा तो
ममता उमड़ आती है
सब्जी की  टोकरी छोड़
दुलारने बैठ जाती हैं ;

मेरे मोहल्ले का स्वाद
इन्ही की भाजी में जिंदा है आज भी
औरतों का आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है
रसोई तक उनकी गंध पसर जाती है

ये बारिश में नहीं आती हैं
उग रही होती हैं
अपनी खेतों और बाड़ियों में
सबके लिए थोड़ी -थोड़ी  सी

अँखुआ रहे हैं -
आकाश , हवा , पानी
इनकी भूमि सी कोख में
सबके लिए थोड़ी - थोड़ी  सी .... ।
3-गृहस्थी की पाठशाला

 

घाट , जगत और कछार
सुन रहे हैं -
औरतों की कहानी ,
नहा रही हैं औरतें
धो रही हैं उनके दाग ।

कोई सिसक रही है
कोई हँसते हुए गपिया रही है
इन्ही के जरिए पूरा गाँव
जानता है लोगों की करतूतों को -

किसे कौन घूरता है ?
किसकी नज़र गंदी है और
किसके घर में सब
ठीक नहीं चल रहा है ।

औरतें हर घर का भेद जानती हैं
सिर्फ एक ही प्रश्न के जरिए -
‘’का साग खाए या? ‘

मायके से ससुराल तक के
र का किस्सा
यहाँ नहा - धोके पवित्र हो जाता है ।
औरतें पूरी दुनिया को यहीं से

पढ़ती - समझती हैं
हर खतरे को भाँपते हुए
हँसिया लेकर दौड़ लगा लेती हैं ,
खाना परोसते हुए
अपने मर्द से कह देती हैं -

कइसे , आजकल तोर आदत बने नइए ?
हलक में अटक जाता है -
बासी और मिरचा ।
मर्द की सारी हेकड़ी

उतारना जानती हैं ये औरतें ;
घाटों पर सिखाती है इन्हें ये सब ,
कुछ उम्रदराज औरतें
घाट पाठशाला है -

औरतों के औरत होने का ,
घर - गृहस्थी में   ;
जिसे बाथरूम का अजगर निगल गया है ...
घाट को इन दिनों
सन्नाटा चुभ रहा है औरतों का

किसी सरकारी स्कूल के बन्द होने
जैसा बुरा हसास है यह ;
इन दिनों घाट याद कर रहे हैं -
चूड़ी , पायल की खनक के साथ
एड़ी माँजती औरतों के किस्से सुनने .... ।
-0-

 

 

25 comments:

  1. बहुत ही उत्कृष्ट और प्रबल भावनाओं से भरी खूबसूरत रचनाएँ।सभी को हार्दिक बधाई।💐

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  2. बहुत ही सुंदर सटीक भावों से ओतप्रोत कविताओं का आनंद मन ने लिया। कविता दी, रमेश सोनी जी,नंदा जी,पूनम जी हार्दिक बधाई।

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  3. मंजूँ श्री गुप्ता जी भावपूर्ण कविताओं के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. नारी के विभिन्न पक्षों को दर्शाती एक से बढ़कर एक भावपूर्ण रचनाएं।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  5. -स्त्री समुद्र है, यक्षप्रश्न, वसुधा या द्रौपदी ?,जब बंद थे सब मकानों में, अब वह चुप रहने लगी है, खाना बनाने वाली बाई, उग रही औरतें...गृहस्थी की पाठशाला ... जैसी उत्कृष्ट रचनाओं के सभी रचनाकारों का हार्दिक अभिनंदन 💐💐

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  6. सभी रचनाएं बहुत ही बेहतरीन।
    प्रकाशित सभी रचनाकरों को हार्दिक बधाई
    💐💐

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  7. सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक
    सभी को हार्दिक बधाइयाँ

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  8. हार्दिक आभार प्रकाशक महोदय तथा आप सभी मित्रो का।

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  9. रमेश सोनी जी कविता गृहस्थी की पाठशाला बहुत प्रभावी लगी। बधाई।

    कविता जी, पूनम जी, मंजू जी की सवाल उठाती कविताएँ बहुत कुछ कहती हैं। बधाई।
    नन्दा जी --मौन की प्रत्यंचा पर

    साध हृदय के कोलाहल को

    रिक्त हाथों में भरकर

    वेदना के उस अपरिचित अहसास को

    न अंगीकार कर सकी

    न मुक्त कर सकी.......!

    द्वंद की ग़ज़ब बयानगी की है बधाई।


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  10. नारी पर लिखी सभी रचनाएँ लाजवाब हैं।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

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  11. नारी से जुड़े सवालों, भावनाओं और हालातों को शब्द देती इन खूबसूरत रचनाओं के लिए आप सभी को हार्दिक बधाई

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  12. सहज साहित्य की असीम सफलता के लिए भी आदरणीय काम्बोज जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ

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  13. नारी पर लिखित बहुत उम्दा रचनाएँ ...आप सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

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  14. 1057
    डॉ.कविता भट्ट का साहित्य, धर्म , दर्शन और समाज का गहन अध्ययन किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है, मेरे लिए गौरव का विषयतद है ‘ काव्य -रचना के समय तदनुकूल भाव-भाषा एक दूसरे के पूरक और अनुगामी दृष्टिगत होते हैं-‘स्त्री समुद्र है’ कविता की हर पंक्ति अपने आप में व्याख्या बनकर आती है-‘ हाँ, स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त/ मन के भाव ज्वार-भाटा के समान’ उद्वेलित और प्रशान्त में सागर का उद्वेलन और उसके बाद भी एकदम शान्त, नारी मन की सहज प्रस्तुति है। जबकि पुरुष क्या है? सारे गर्व, सभी भूलों के बाद भी आश्रय ही खोजता है-‘दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ/प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी/विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में’ और नारी तो ठहरी द्रवित होने वाली। वह –‘विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है’। वह नारी है ही- ‘तू पंचतत्त्व जैसी;/तू पृथ्वी तत्त्व- तुझमें गुरुत्व है।/सघनता भी- तू है प्रचंड ज्वाला,अग्नितत्त्व- सी; अविरल-प्रबल।प्रवाह तेरा-( यक्षप्रश्न!) दो कदम और आगे नारी की सह्ष्णुता का प्रतीक बनती है।
    डॉ मंजुश्री गुप्ता की कविता ‘वसुधा या द्रौपदी ?’ के माध्यम से आज की सारी विडम्बना रूपायित कर दी है। ‘स्त्रियाँ...’ में यह रूप बेवाकी से आया है-त्याग ही नहीं।इच्छा और आकांक्षा भी
    मुस्कान ही नहीं/आँसू और ईर्ष्या भी/तन ही नहीं/मन और भावना भी/भोग्या ही नहीं’ पाठकीय संवेदना को झकझोरता है।
    हमारी सबसे कम अवस्था की कवयित्री पूनम सैनी की प्रतिभा को अकादमी के लेखन शिविर में देखने का अवसर मिला-‘जब बंद थे सब मकानों में/तब बंद था दरवाज़ा,/उनके बचाव का।/इस तरह कुछ और /अधिक तड़पी महिलाएँ/लॉकडाउन के उन दिनों’ बहुत गहरी पीड़ा लिये हुए है। इसी प्रकार दूसरी कविता में ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘झांझर बन जाती जंजीरें/आलते के निशाँ/खूनी छाप हो जाते हैं’ साहित्य को इनसे बहुत आशाएँ हैं।
    नन्दा पाण्डेय की कविता- ‘अब वह चुप रहने लगी है’ में ‘मौन की प्रत्यंचा पर
    साध हृदय के कोलाहल को/अब वह चुप रहने लगी’ ----'किसी को नहीं पता /कि आज उसका मन/सन्निपात की अवस्था में पहुँचकर/अंतिम साँसें ले रहा है’ छूटे हुए प्यार की वेदना उसे मथती है। गहन प्रभाव की कविता है।
    रमेश कुमार सोनी की कविताएँ-‘खाना बनाने वाली बाई’ , ‘उग रही औरतें...’, ‘गृहस्थी की पाठशाला’ नए भावबोध की कविताएँ है। सर्वहारा वर्ग के टूटते सपनों की धमक इन कविताओं में मिलती है। हाइकु, ताँका आदि से हटकर सोनी जी का यह कवि रूप प्रभावित करता है।



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  15. सटीक,सुंदर समीक्षा के लिए भैया को हार्दिक बधाई।

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  16. इतने सुन्दर अंक और समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु आदरणीय श्री काम्बोज जी को हार्दिक बधाई। सभी साथी रचानाकारों को भी हार्दिक बधाई। मेरी रचना को स्थान प्रदान करने हेतु हार्दिक आभार।

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  17. दिल से धन्यवाद गुरु जी।बस आपका आशीर्वाद और मार्गदर्शन मिलता रहे।कोशिश रहेगी आशाओं पर खरी उतर पाऊँ।स्थान देने के लिए धन्यवाद।🙏

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  18. सुंदर, सार्थक समीक्षा के लिए आ. भाई काम्बोज जी को हार्दिक बधाई।

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  19. सभी कविताएं अत्यंत भावप्रवण । भाई की समीक्षा ने चार चाँद लगा दिए। कोटिशः बधाई सभी कवियों को ।

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  20. एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाएँ।समस्त रचनाकारों को बधाई।

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  21. नारी मन की गहन अनुभूतियों और भावनाओं को व्यक्त करतीं सुंदर कविताएँ।

    "स्त्री समुद्र है, यक्ष प्रश्न,
    वसुधा या द्रौपदी, स्त्रियाँ,
    जब बंद थे सब मकानों में,
    अब वह चुप रहने लगी है,
    खाना बनाने वाली बाई,
    उग रहीं औरतें,
    गृहस्थी की पाठशाला" अत्यंत ही भावपूर्ण कवितायें।

    आदरणीया दीदी डॉ कविता भट्ट शैलपुत्री, डॉ मंजू श्री गुप्ता, पूनम सैनी, नंदा पाण्डेय और आदरणीय रमेश कुमार सोनी जी को हार्दिक बधाई।

    सुंदर समीक्षा के लिए आदरणीय श्री काम्बोज जी को हार्दिक शुभकामनाएँ।

    सादर-
    रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

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  22. महिला दिवस के अवसर पर प्रकाशित सभी रचनाएँ बेहद भावपूर्ण हैं. सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई.

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  23. एक से बढ़कर एक रचनाएँ! नारी के विभिन्न रूपों का अत्यंत ही प्रभावपूर्ण एवं मनमोहक चित्रण किया है, आप सभी ने! डॉ. कविता जी, डॉ. मंजू जी, पूनम जी, नंदा जी एवं रमेश जी...आप सबको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ!

    सचमुच! नारी धरती का ही एक रूप है, जो अपने भीतर नदिया, झरने, पहाड़, सहरा, जंगल... और भी न जाने क्या-क्या समेटे रहती है! वह ईश्वर की बेहद ख़ूबसूरत रचना है, जो जितनी कोमल है, उतनी ही मज़बूत भी! उसकी क्षमता को समझने के लिए सबसे पहले उसे ही अपनी आँखें खोलने की ज़रूरत है! एक दिवस में ही नहीं, जीवन के हर पल में वह शामिल है! कोई दरकार नहीं कि उसे पुरुषों के बराबर समझा जाए! उसे स्त्री ही समझा जाए, एक इंसान समझा जाए, यही कामना है!

    आदरणीय भैया जी की अमूल्य समीक्षात्मक टिप्पणी जैसे 'सोने पर सुहागा'! आप सभी रचनाकार बहुत भाग्यशाली हैं, जिन्हें ये प्राप्त हुई! :-)

    ~सादर शुभकामनाओं सहित
    अनिता ललित

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  24. वाह सभी रचनाकारों की कविताएँ नारी के अस्तित्व को नए आयाम तक पहुँचाने में सक्षम हैं हृदय तल से बधाई और शुभकामनाएँ।

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