सुदर्शन रत्नाकर
पिता अब शिला की तरह
मौन रहते हैं
कहते कुछ नहीं,
पर सहते बहुत हैं
शिथिल होते शरीर और
चेहरे की झुर्रियों के नीचे
भावनाओं के सोते बहते हैं
जिसका नीर आँखों से बहता है।
कहाँ गई वह कड़क आवाज़ और
रौबीला चेहरा,चमकती आँखें
जिन्हें देख, ख़ौफ़ से भर जाता था मैं।
लेकिन पिता के प्यार -भरे शब्द
सिर पर रखा स्नेहिल हाथ
और गोद में उठा लेना
आज भी याद आता है मुझे
उनके कदमों की आवाज़ सुन
सहम जाना
फिर भी उनके आने की प्रतीक्षा करना
कंधे पर चढ़ना और उनकी पॉकेट से
टॉफ़ियाँ लेकर भाग जाना
भूलता ही नहीं मुझे।
उँगली पकड़कर मेले में जाना
पिता का खिलौने दिलाना,
उनका टूट जाना,मेरा रोना
और खिलौने दिलाने का प्रण
कितने सुखद होते थे क्षण।
बड़े हुए तो बदल गए
पिता और मैं,
विचार और विचारधाराा ।
वे बरगद हो
गए,
और मैं नया उगा कीकर का पेड़
मैं उनकी ख़ामोश आँखों के ख़त
पढ़ नहीं पाता
बुलाने पर भी पिता के पास
नहीं जाता;
पर वे आज भी अपनी छाया के
आग़ोश में लेने के लिए
बाँहें फैलाए बैठे हैं
लेकिन मेरी ही क्षितिज को छूने की
अंतहीन यात्रा ,स्थगित नहीं होती
न मैं बच्चों का हुआ, न पिता का हुआ
और वह बरगद की छाया
प्रतीक्षा करते थक गई है।
अब मेरे भी बाल पकने लगे हैं
मेरे भीतर भी जगने लगा है
ऐसा ही एहसास ।
मैंने जो बोया था
वही तो काटूँगा
वक्त तो लौटेगा नहीं
पिता तो बरगद है और मैं
कीकर
न टहनियाँ हैं, न छाया है फिर
कौन आएगा मेरे पास
कौन आएगा मेरे पास?
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मैंने जो बोया था वही तो काटूँगा/वक्त तो लौटेगा नहीं...ये पश्चाताप, ये वेदना एक उम्र पर आकर शायद हर पुत्र को व्यथित करने लगती है..संवेदना को झंकृत करती भावपूर्ण कविता हेतु आदरणीया सुदर्शन जी को बधाई।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.... बहुत सुंदर.... पिता को बरगद एवं स्वयं को जंगली बबूल कहना संवेदना प्रस्तुत करता है |
ReplyDeleteवे बरगद हो गए, और मैं नया उगा कीकर का पेड़.....मैंने जो बोया था ...कौन आएगा मेरे पास ?
हार्दिक शुभकामनाएँ सुदर्शन जी
बेहद भावपूर्ण रचना।यह क्रम चलता रहता है, पुत्र जब पिता बनता है, तब उसे पिता की भावनाओं का अहसास होता है, वह फिर पीछे लौटकर पिता को बताना चाहता है कि आप मेरे लिए क्या हैं, परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है । बधाई सुदर्शन जी ।
ReplyDeleteअंतर्मन को भिगोती , पिता पर एक उत्तम कविता के लिये सुदर्शन रत्नाकर जी को हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना...बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteउनकी खामोश आँखों के खत पढ़ नहीं पाता..न मैं बच्चों का हुआ, न पिता का हुआ....क्षितिज को छूने की अंतहीन यात्रा....मन मैं उठते कितने सैलाब, पश्चताप की वेदना, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई स्वीकारें सुदर्शन जी!!
ReplyDeleteबहुत दिल को छूने वाली रचना है सुदर्शन जी "पर वे आज भी अपनी छाया के आगोश में लेने के लिए बाहें फैलाए बैठे हैं " मार्मिक पंक्तियाँ है हार्दिक बधाई स्वीकारें |
ReplyDeleteपिता पर कम ही रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं , मिली भी तो बेहतरीन , सुंदर ।
ReplyDeleteबधाई ।
आदरणीया दीदी जी, मन भीग गया भीतर तक, आँखें भी अछूती नहीं रहीं! कितना सत्य लिखा है आपने! काश! हर संतान इस सत्य को समझ पाती! कभी तो संतान ही स्वार्थी हो जाती है और कभी हालात ऐसे बन जाते हैं कि संतान पास ही नहीं आ पाती, दुनिया की अंधी दौड़ में बस भागती ही रह जाती है... बहुत ही मार्मिक भावाभिव्यक्ति! बहुत-बहुत बधाई आपको इस उत्कृष्ट सृजन के लिए!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको आदरणीया!
बहुत भावपूर्ण सृजन के लिए आदरणीया जी को हार्दिक बधाई ।
ReplyDelete-परमजीत कौर 'रीत'
शिवजी श्रीवास्तव जी,पूर्वा शर्मा जी,रीत मुक्तसरी जी, विभा जी,अनिता ललित,रमेश कुमार सोनी जी,सविता जी, प्रीति जी,कृष्णा जी, सुरंगमा जी, नवीन भारद्वाज जी आप सब को बेहतरीन प्रतिक्रिया और मेरा हौसला बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार ।सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...पुत्र की स्वीकारोक्ति दिल को छू गई...बरगद और कीकर का बिम्ब सुन्दर|
ReplyDeleteबधाई आदरणीया सुदर्शन दी| आभार मंच का !
मैंने जो बोया था
ReplyDeleteवही तो काटूँगा
वक्त तो लौटेगा नहीं
पिता तो बरगद है और मैं कीकर
न टहनियाँ हैं, न छाया है फिर
कौन आएगा मेरे पास
कौन आएगा मेरे पास?
भाव विव्हल करती हुई पंक्तियां ....उत्कृष्ट लेखन शैली
ReplyDeleteऑंखें नम हो गईं,बहुत ही मार्मिक सृजन.... हार्दिक बधाई आपको आदरणीया दीदी !