1. बिन तुम्हारे
(पराये देश में
बुजुर्गों की व्यथा)
मंजीत कौर ‘मीत’
बिन तुम्हारे
निपट तन्हा हो गया
हूँ बिन सहारे
हाल भी न पूछता
अब आ के कोई
पास भी न बैठता
दिल लगाके कोई
आसमाँ से गिर रहा
ज्यूँ टूटे तारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे
घेरती यादें तुम्हारी
बन के सपने
इस बेगाने देश में
मैं ढूँढूँ अपने
याद मुझको आते वो
जो पल गुज़ारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे
किस से कहूँ मैं यहाँ
दिल की बाती
विरह से मैं लिख रहा हूँ
नित्य पाती
ढूँढता भँवर में घिरा
मैं किनारे ।
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे ।
माटी मेरे देश की
अब वह भी रूठी
अजनबी हवा में हो गई
साँस झूठी
याद मुझको आते है
गंगा के धारे ।
पार्क में बैठा हूँ
बिलकुल अकेला
पेड़-पौधे,पक्षियों
का
है झमेला
फूल कागज़ के खिले
बगिया में सारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे ।
ढूँढतीं मेरी निगाहें
अब साथ मेरे
हम निवाला,हम जुबाँ
हमराज़ मेरे
चाहता हूँ करना मैं
कुछ दिल की बातें
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे ।
ख़ाक के समान हैं
सारे रतन
लौट जाना चाहता हूँ
अपने वतन
सूखी रोटी देश की है
दुग्ध धारे ।
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2 _हलधर - मंजीत कौर ‘मीत’
जनता का जो पेट है भरता
तिल-तिल कर वो ही मरता
क्या शासन अब तक चेता है
ये रोज़ आँकड़ा
क्यूँ बढ़ता
किसको अपना
कह दे हाल
मण्डी में हैं खड़े दलाल
उनकी रोज़ तिजोरी भरती
बोझ कर्ज़ का नित बढ़ता
क्या शासन अब तक चेता है?
कभी बाढ़ खेती को खाए
सूखा नदिया कभी
उड़ाए
ओले खड़ी फसल बिछाते
नैनो से झरना झरता
क्या शासन अब तक चेता है?
पीठ-पेट दोनों मिले हुए
गुरबत में लब सिले हुए
बेटी ब्याहे कि फीस चुकाए
यही सोच तिल-तिल मरता
क्या शासन अब तक चेता है?
खाद बीज सब सरकारी
लगा लाइन में वो भारी
बनी किश्त की लाचारी
यही सोच मन में डरता
क्या शासन अब तक चेता है?.
सूख रही फूलों की डाली
कहने को धरती का माली
खीसा-हाथ दोनों ही खाली
रोज़ बरफ सा वो गलता
क्या शासन अब तक चेता है?
हाथों की हैं घिसी लकीरें
सूखा-पाला दिल को चीरें
रात-दिन उलझन में उलझा
फिर एक फैसला वो करता
क्या शासन अब तक चेता है
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3. कैसे तुझे बचाऊँ- मंजीत कौर ‘मीत’
कैसे तुझे बचाऊँ
किस आँचल के तले
छुपाऊँ
शब्द नहीं हैं पास मेरे
कैसे तुझे बताऊँ
उम्र नहीं है तेरी बिटिया
ऊँच-नीच समझाऊँ
आना-जाना,गली
मोहल्ला
क्या सब ही तेरा छुड़ाऊँ
कैसे तुझे ....
किस आँचल .........
माँ का दिल डरता है अब तो
सुन खबरें बदकारों की
कोमल कमसिन तू क्या जाने
नज़रें इन मक्कारों की
तुझे नज़र न लगे किसी
की
किस कोठर में छुपाऊँ
कैसे तुझे ........
किस आँचल .......
गली मोहल्ले गाँव की
बिटिया
सब की साँझी
होती थी
साँझ ढले जब बैठ इकट्ठे
सुख-दुःख सभी पिरोती थीं
किस पर करूँ
भरोसा अब तो
समझ नहीं मैं पाऊँ
कैसे तुझे ......
किस आँचल ........
कठिन राहहै जीवन की बिटिया
पग में काँटे ही काँटे हैं
तुझे
हिम्मत से चुनने होंगे
जो कुदरत ने हम को बाँटे हैं
तेरे कोमल पाँव तले
पलकें आप बिछाऊँ
कैसे तुझे बचाऊँ
किस आँचल के तले छुपाऊँ |
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अत्यंत सम्वेदनशील कविताएँ, आज का सच दर्शाती हुई, बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हुई !
ReplyDeleteबहुत बधाई आपको ... मंजीत कौर 'मीत' जी !!!
~सादर
अनिता ललित
मंजीत जी ,सर्वप्रथम बेहतरीन विषयों पर सृजन हेतु बधाई!! बुजुर्गों की मन:स्थिति ,उनके एहसासों को शब्दों का जामा पहनाकर आपने पाठक वर्ग का ध्यान उनकी ओर खींचकर समाज के सचेत लेखक होने का उदाहरण प्रस्तुत किया। किसान के जीवन मर्म पर बड़ी बारीकी से कलम चलाई और नाजुक कोमल भावनाओं से बिटिया के प्रति अपना प्रेम अपनत्व प्रकट किया।हरेक कविता को बहुत सुंदर ढंग से प्रेरक बनाकर अपनी अभिव्यक्ति को वर्णित किया..डॉ.पूर्णिमा राय,अमृतसर।...
ReplyDeleteमंजीत जी, प्रवासी वेदना को बहुत सहज रूप से शब्दों में बाँधा है आपने | अजनबी लोगों के बीच जीना एक चुनौति है और अपनों के पास समय ही नहीं है | सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई |
ReplyDeleteशशि पाधा
ये कविताएँ एक ऐसा शब्दचित्र प्रस्तुत करती हैं जो वास्तविकता के करीब है, लेकिन इस वास्तविकता से हम सदा नज़र चुराते हैं. मनजीत जी की संवेदनाएँ सचमुच नमनीय हैं!
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2459 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
मनजीत जी संवेदनशील विषयों पर सशक्त रचनाओं हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteमानव मन की भावनाओं (बुज़ुर्गों की तन्हाई व बेटी को समाज की विद्रूपताओं से
बचाने का भाव) तथा 'हलधर' में देश के किसानों की तंगहाली और कड़ी मेहनत के बाद भी
जीवन में आर्थिक संकट का बना रहना,तिस पर प्रकृति की मार के बिंब बहुत ह्रदयस्पर्शी बन
पड़े हैं। विचारों को आंदोलित करती हैं आपकी ये रचनाएँ ।साधुवाद ।
मंजीत जी प्रवासी बुजुर्गों के अकेलेपन की व्यथा को आपने बेहद सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। बेगाने देश में सभी सुख सुविधाओं से युक्त जीवन भी सोने के पिंजरे में कैद पंछी सा ही होता है। बच्चे चाह कर भी इसको कम करने के लिए कुछ खास मदद नहीं कर पाते। लेकिन यहाँ अमेरिका के बे एरिया में बुजुर्गों के लिए काफी सुविधाएँ हैं जिनकी वजह से वे अपने हमउम्र लोगों के साथ मिलजुल कर बहुत सी सृजनात्मक चीजें करते हैं तथा अपना समय आनंद के साथ बिताते हैं। मैंने इस विषय पर एक लेख लिखा था शीघ्र ही साँझा करुँगी
ReplyDeleteबेटी की माँ होने के नाते मैं आपकी "कैसे तुझे बचाऊं" कविता का दर्द ह्रदय से महसूस कर सकती हूँ सभी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक हैं।
मंजीत जी की सभी रचनाएं दिल को छू लेने वाली हैं आज के जीवन के सत्य को बखूबी दर्शाती हैं ।माँ के मन की व्यथा का सुन्दर चित्रण है । हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteसभी सुंदर रचनाएं समाजिक विद्रूपता की समस्या को लिए हुए समसमायिक हैं .
ReplyDeleteबधाई .
अच्छी वैचारिक रचनाओं के लिए बधाई मनजीत जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचनाएँ। जिस सरलता से प्रवासी मनोव्यथा को आपने व्यक्त किया है सच में मर्म को गहरे स्पर्श कर गयीं। मनजीत जी बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteसभी कविताएं बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी हैँ .
ReplyDeleteमंजीत जी बहुत सुंदर रचनाएँ हार्दिक बधाई जी .....बिन तुम्हारें ,हलधर ,कैसे तुम्हें बचाऊँ सभी रचनाएँ शानदार हृदयस्पर्शी
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ReplyDeleteमंजीत जी सभी रचनाएँ बहुत सुंदर !!!
माँ का दिल डरता है अब तो
सुन खबरें बदकारों की
कोमल कमसिन तू क्या जाने
नज़रें इन मक्कारों की
गली मोहल्ले गाँव की बिटिया
सब की साँझी होती थी
साँझ ढले जब बैठ इकट्ठे
सुख-दुःख सभी पिरोती थीं
मर्मस्पर्शी !!! हार्दिक बधाई मंजीत जी!!!
सभी रचनाएँ अत्यन्त सुन्दर हैं । उनके दर्द मन को छू गये । सार्थक रचनाओं के लिये बहुत बहुत बधाई ।
ReplyDeleteमंजीत जी मर्मस्पर्शी कवितायें वर्तमान समाज की मुख्य समस्याओं पर बड़े सुन्दर तरीके से भाव व्यक्त किये गयें हैं । जो हृदय को विह्वल कर गये । बधाई ।
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण कविताएँ। बधाई।
ReplyDeleteमंजीत जी, आपकी तीनों रचनाएँ विषयवस्तु में भले एक-दूसरे से इतर हों , पर संवेदना के धरातल पर सभी मन को झकझोर डालती हैं...| इतने अच्छे से मन को छूती रचनाएँ कागज़ पर उकेरने के लिए बहुत बहुत बधाई...|
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