रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जब-जब
दानव बीच सड़क पर
चलकर आएँगे ।
किसी भले मानुष के घर को
आग लगाएँगे ।
अनगिन दाग़ लगे है इनके
काले
दामन पर
लाख देखना चाहें फिर भी
देख न पाएँगे ।
कभी जाति कभी मज़हब के
झण्डे
फ़हराकर
छीन कौर भूखों का गुण्डे
खुद खा जाएँगे ।
नफ़रत बोकर नफ़रत की ही
फ़सलें
काटेंगे
खुली हाट में नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे ।
तुझे कसम है हार न जाना
लंका
नगरी में
खो गया विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे
।
इंसानों के दुश्मन तो हर
घर
में बैठे हैं
उनसे टक्कर लेने वाले -
भी मिल जाएँगे ।
-0-
( रचना-22-12
-1994; सानुबन्ध मासिक -अंक अगस्त 1995 में प्रकाशित; आकाशवाणी अम्बिकापुर से 20-02-1998 को प्रसारित)
बहुत ख़ूब भैया जी! चित्रण बहुत सुंदर साथ ही सकारात्मकता के साथ अंत ! बहुत अच्छा संदेश दिया!:-)
ReplyDeleteकाश! हर कोई यही सोचे, यही करे... तो बहुत कुछ बदल जाए...
~सादर!!!
बेहद प्रभावी ...
ReplyDeleteकभी जाति कभी मज़हब के
झण्डे फ़हराकर
छीन कौर भूखों का गुण्डे
खुद खा जाएँगे ।.......
इंसानों के दुश्मन तो हर
घर में बैठे हैं
उनसे टक्कर लेने वाले -
भी मिल जाएँगे ।
पंक्तियाँ आज के परिवेश में भी उतनी ही सार्थक ,सटीक हैं ...बहुत बधाई आपको !
कालजयी - यथार्थवादी रचना व्यंगात्मकता लिए हुए सुंदर प्रस्तुति .
ReplyDeleteहार्दिक बधाई .
बहुत अर्थपूर्ण प्रभावशाली रचना!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई!
bahut prabhavi abhivyakti .....!!
ReplyDeletesunder rachna .
सहज साहित्य में आपकी कविता को " बीच सड़क पर " को मैं इस अर्थ में कालजयी रचना कहूँगा क्योंकि देव - दानवों का यह संघर्ष निरंतर चलता रहता है। मैं कविता को कवि के ह्रदय का प्रतिबिम्ब मानता हूँ। आपकी यह रचना हमें आपके भीतर मौजूद उस इंसान का परिचय देती है जिसका सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है और जो हिंसा का पुरजोर विरोध करता है। काम्बोज जी आपको बधाई और सुन्दरतम सुभकामनाएँ !
ReplyDeleteतुझे कसम है हार न जाना
ReplyDeleteलंका नगरी में
खो गया विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे ।
kya baat hai bhaiya .mujhe lagta hai jab aapne akashvani pr padha hoga logon ko bahut bahut bahut pasand aayi hogi
sunder sakaratmak bhav bhaiya
rachana
waah bahut accha ...
ReplyDeleteनफ़रत बोकर नफ़रत की ही
ReplyDeleteफ़सलें काटेंगे ....
एकदम सही बात है आजकल चारों और नफरत ही नफरत का तो बोलबाला है ……. सामायिक एवं सार्थक रचना
सादर
मंजु
chiin kaurr bhuukhon ka gunde khud kha jayenge....
ReplyDelete...unse takar lene vale bhi mil jayenge|
bhai ji ,apaki soch aur lekhani dono men hi sashakt avaaz ki guung hai.Badhai.
Pushpa Mehra
suder prastuti,badhai.
ReplyDeleteनफ़रत बोकर नफ़रत की ही
ReplyDeleteफ़सलें काटेंगे
खुली हाट में नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे ।
आज भी यही स्थिति है। बहुत यथार्थपरक रचना। बहुत ही सुन्दर रचना।
कविता पसद करने के लिए आप सबाका हृदय से आभार ! रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
ReplyDeletebahut sunder abhivaykti, badhayi.
ReplyDeleteइंसानों के दुश्मन तो हर
ReplyDeleteघर में बैठे हैं
उनसे टक्कर लेने वाले -
भी मिल जाएँगे ।
सच है हर घर में इंसानों के दुश्मन बैठे हैं पर हर घर में उनसे टक्कर लेने वाले नहीं हैं, अन्यथा हालात यूँ नहीं होते. सामयिक रचना, बहुत बहुत बधाई काम्बोज भाई.
बहुत प्रेरक रचना ...हम नहीं हारेंगे..., ना लंका नगरी से न नफरत के रावण से ..
ReplyDeleteसच्चाई को पूरी शिद्दत से प्रस्तुत करते हुए भी आपने सकारात्मकता का दामन नहीं छूटने दिया...इस खूबसूरत रचना का यह एक बहुत प्रशंसनीय पहलू है...|
ReplyDeleteआभार और बधाई...|
प्रियंका